निश्चय किया
कि तुम पर मुष्टिका प्रहार करूँ
तुम लकडी के हो गए
सोचा
कि तुम्हें आरे से चीर डालूं
तुम लोहे के हो गए
तय किया
कि तुम पर भारी घनों से निरंतर
आघात पर आघात करूँ
तुम अदृश्य हो गए
मौजूदा व्यवस्था के तुम सिद्ध पुरूष
मैं मन्त्र षड़यंत्र से हीन जन
तुम्हारे वायवी हो चुके शरीर पर
कहाँ और कैसे प्रहार करता
मैं सोचता रहा।
आख़िर प्रहार को भी
एक ठोस लक्ष्य चाहिए।
******************
कविता / रामकिशन सोमानी / एक ठोस लक्ष्य चाहिए लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कविता / रामकिशन सोमानी / एक ठोस लक्ष्य चाहिए लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
गुरुवार, 4 सितंबर 2008
सदस्यता लें
संदेश (Atom)