बुधवार, 27 फ़रवरी 2008

गाँव : पचास वर्षों बाद

पाँच दशक के अंतराल को

महानगर की भीड़ में पीछे छोड़ आया हूँ।

गाँव की मिट्टी में बचपन की

भीनी खुशबू खोज रहा हूँ ।

ईंट के भट्ठों की चिमनी के ,

काले दैत्याकार धुएं को

धान के खेतों की हरियाली,


गुम-सुम, थकी-थकी आंखों से

देख रही है।

खेतों की मेड़ों के सरगम,

सहमे-सहमे,

परिचित-परिचित से चेहरों से

खोयी पहचानों को फिर से मांग रहे हैं।

गाँव के पोखर,बंस्वारी के कट जाने से
चिडियों की मीठी आवाजों में शामिल,
दर्द के रिश्ते भूल गए हैं.

००००---००००-

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