शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

आबाई मिल्कियत थी ज़माने से जो ज़मीन.

आबाई मिल्कियत थी ज़माने से जो ज़मीन.
आया वो युग, कि हो गई सरकार के अधीन.
पहले थे खुश कि रखते हैं विष हम भी अपने साथ,
फैलाव से है साँप के अब, तंग आस्तीन.
अभिनेता और नेता हैं दोनों कला में दक्ष,
इनके ही वंश में हुए सब इनके जानशीन.
संकल्प का हो कोडा, तो मंजिल नहीं है दूर,
कस लो समय के घोडे पे संभावना की ज़ीन.
जाँबाज़ियों के देते हैं वक्तव्य रात-दिन,
व्यवहार में रहे हैं हमेशा तमाशबीन.
अब कह रहे हैं ऐसे कई मित्र भी ग़ज़ल,
जो बोल तक न पाये कभी 'ज़्वाद', 'क़ाफ़', 'शीन'.
मैं रचना-कर्मियों से शिकायत करूँगा क्या,
ख़ुद आजतक हुई न मेरी चेतना नवीन.
धरती निभाती आयी है अपनी परम्परा,
आकाश पर हैं दर्ज कुछ आलेख समयुगीन।

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मेरा ख़याल वो ख़ुद से भी ज़्यादा रखती है.

मेरा ख़याल वो ख़ुद से भी ज़्यादा रखती है.
मिसाल उसकी नहीं है, वो मेरी बेटी है.
यक़ीन आपको आये न आये सच है यही,
उसी ने मुझको ये जीने की रोशनी दी है.
मुझे भी शुब्हा हुआ है,कि दिल-शिकन हूँ मैं,
उमीद जब किसी अपने की, मैंने तोडी है.
मैं अपने दौर का बन जाऊं हमनवा कैसे,
वही तो खर्च करूँगा जो मेरे पूँजी है.
ये मोजज़ा है, निकल आया हूँ मैं खैर के साथ,
भंवर में, दिल की ये कश्ती, कभी जो उलझी है.
मैं नर्म शाख नहीं था, लचक-लचक जाता,
कलाई मेरी, बहोत वक़्त ने मरोड़ी है.
मेरे शऊर को है नक़्शे-लामकां की तलाश,
जहाँ न अरजो-समाँ हैं, न जिस्मे-खाकी है.
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दिल-शिकन=ह्रदय तोड़ने वाला, हमनवा=एकस्वर, मोजज़ा=दैवी चमत्कार, शऊर=विवेक, नक़्शे-लामकां=महाशून्य का चिह्न, अरजो-समाँ=धरती और आकाश, जिस्मे-खाकी=मिटटी का शरीर.

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

मेरी पलकों की ये छाजन आशियाना है तेरा.

मेरी पलकों की ये छाजन आशियाना है तेरा.
और तू नीचे उतर आ, घर ये सारा है तेरा.
ज्ञानियों का ध्यान-स्थल है, तेरी ठोढी का तिल,
रूप के इस जाल में दाना ये अच्छा है तेरा.
जब भी भौंरे फूल पर आते हैं, तू होता है खुश,
इस चमन के साथ कुछ निश्चय ही रिश्ता है तेरा.
मेरी काया को न मिल पाया कभी भी तेरा साथ,
हाँ मेरे प्राणों पे तो अधिकार रहता है तेरा.
चित्त है रोगी, चिकित्सक हैं तेरे मीठे अधर,
है सेहत पल भर में निश्चित, ऐसा नुस्खा है तेरा.
मैं न जाने क्या हूँ मुझसे है गगन भी कांपता,
बात बस इतनी सी है मुझ में बसेरा है तेरा.
चित्त की निधियां नहीं ऐसी, किसी को सौंप दूँ,
इसपे मुहरें हैं तेरी, भरपूर सिक्का है तेरा.
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प्रेम के संगीत की धुन भी अलग है साज़ भी.

प्रेम के संगीत की धुन भी अलग है साज़ भी.
मन में कर लेती है घर इसकी मधुर आवाज़ भी.
प्रेमियों की आह से खाली ये दुनिया कब हुई,
सब को भाती है ये मीठी लय भी, ये अन्दाज़ भी.
मय की तलछट पीने वालों में हैं ऐसे भी पुरूष,
जिनकी जीवन-साधना है ब्रह्म की हमराज़ भी.
सांसारिक मोह-माया को जला देते हैं रिंद,
गुदडियों में लाल की सूरत हैं ये जांबाज़ भी.
थाह उनके ज्ञान की पाना सरल होता नहीं,
जिनमें है स्थैर्य भी, रखते हैं जो परवाज़ भी.
ज़िन्दगी भी एक मधुशाला सी लगती है हमें,
पीने वालों का यहीं अंजाम भी, आगाज़ भी.
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गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

अपनत्व के स्वभाव में कड़वाहटें नहीं.

अपनत्व के स्वभाव में कड़वाहटें नहीं.
गिरते हैं पेड़, जिनकी हैं गहरी जड़ें नहीं.
कैसा भी सर्द-गर्म हो रहता है वो समान,
माथे पे उसके आतीं कभी सिलवटें नहीं.
चुचाप नंगे पाँव उतर आया कब वो चाँद,
कमरे में तो किसी ने सुनीं आहटें नहीं,
ये आज भावनाओं की देवी को क्या हुआ,
रेखाएं हैं ललाट पे, सुलझीं लटें नहीं.
सम्भव है एक दिन कभी सौहार्द ऐसा हो,
धर्मों में, जातियों में, ये इन्सां, बटें नहीं.
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छोडिये भी, ये तमाशे नहीं अच्छे लगते.

छोडिये भी, ये तमाशे नहीं अच्छे लगते.
लोग, यूँ बात बनाते नहीं अच्छे लगते.
है ये बेहतर, कि रहें लम्हए-मौजूद में खुश,
ठेस पहोंचायें जो वादे, नहीं अच्छे लगते.
ताजा-ताज़ा हों खयालात तो सुनते हैं सभी,
सिर्फ़ लफ्जों के करिश्मे नहीं अच्छे लगते.
लब पे शोखी हो निगाहों में शरारत हो भरी,
सहमे-सहमे हुए बच्चे नहीं अच्छे लगते.
जो भी कहना है तुम्हें, खुलके कहो, साफ़ कहो,
गुफ्तुगू में ये इशारे नहीं अच्छे लगते.
जिनके हर गोशे से अग़राज की बू आती हो,
होश वालों को वो तोहफे नहीं अच्छे लगते.
आज की तर्ह कभी उनकी नवाजिश न हुई,
साफ़ ज़ाहिर है, इरादे नहीं अच्छे लगते.
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फ़रेब खा के भी हर लहज़ा खुश हुए सब लोग।

फ़रेब खा के भी हर लहज़ा खुश हुए सब लोग।
कि सिर्फ़ अपने ही ख़्वाबों में गुम रहे सब लोग।
सेहर से उसने सुखन के, दिलों को जीत लिया,
कलाम अपना, वहाँ, जब सुना चुके सब लोग।
ज़रा सी आ गयी दौलत, बदल गये अंदाज़,
कि अब नज़र में ज़माने की, हैं बड़े, सब लोग।
नहीं रहा, तो सब उसके मिज़ाज-दाँ क्यों हैं,
वो जब हयात था, क्यों दूर-दूर थे सब लोग।
अक़ीदत उससे न थी, खौफ था फ़क़त उसका,
जलाएं कब्र पे क्यों उसकी अब, दिये, सब लोग।
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बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

गुनगुनाते हुए सब तुमको नज़र आयेंगे.

गुनगुनाते हुए सब तुमको नज़र आयेंगे.
इन दरख्तों पे भी कल बर्गो-समर आयेंगे.
चाँदनी, जाम में भर देगी, गुलों की नकहत,
रिंद, पीने के लिए, छत पे उतर आयेंगे.
मछलियाँ निकलेंगी ले-ले के समंदर से गुहर,
जौहरी साहिलों पर मिस्ले-शजर आयेंगे.
एक सैयारा करेगा मेरे आँगन का तवाफ,
सब नुजूमी मेरे दालान में भर आयेंगे.
आबशारों में हक़ायक़ के, नहायेंगे अदीब,
रूप फनकारों के कुछ और निखर आयेंगे.
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मिलन की बिजलियाँ हैं कौंधती सुगंधों में.

मिलन की बिजलियाँ हैं कौंधती सुगंधों में.
हवाएं आई हैं उत्तर से, आज, बरसों में.
तू अपने कारवां का डाल दे पड़ाव यहाँ,
कि साक्षात बसा लूँ मैं तुझको आंखों में.
जुदाई की मैं करूँ क्या शिकायतें तुझसे,
मैं अपशकुन न करूँगा खुशी के लम्हों में.
वो मांगता है क्षमा, चाहता है समझौता,
गिरा न पाऊंगा उसको मैं अपनी नज़रों में.
मैं जान-बूझ के बेगाना बन गया उससे,
कि देखूं, और भी कोई है, उसके सप्नों में.
दुखों ने पाँव से कुचला न होता दिल को मेरे,
कभी वो चर्चा अगर करता, इसकी मित्रों में.
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हाफ़िज़ शीराज़ी की चार रुबाइयों का मंजूम तर्जुमा / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

मन बंदए-आंकसम कि शौके दारद.
बर गरदनि-ख़ुद, ज़ि-इश्क़ तौक़े दारद.
तू लज़्ज़ते-इश्को-आशिकी कै दानी,
इन बादा कसे खुर्द कि ज़ौक़े दारद. [1]


गुलाम उसका हूँ, जो, कोई शौक़ रखता हो.
मिज़ाजे-इश्क का गर्दन में तौक़ रखता हो.
तुझे पता नहीं कुछ इश्को-आशिकी का मज़ा,
ये मय वो पीता है जो इसका ज़ौक़ रखता हो.

नै दौलते-दुनिया बि-सितम मी अर्ज़द.
नै लज़्ज़ते-हस्ती बि-अलम मी अर्ज़द.
नै हफ़्त हज़ार सालि शादीए-जहाँ,
बा मिहनति-पंज रोज़ए-ग़म मी अर्ज़द. [2]


ज़ुल्म की क़ीमत कोई दौलत नहीं.
ग़म का बदला जीस्त की लज्ज़त नहीं,
खुशियाँ यकजा हों हजारों साल की,
पाँच दिन के ग़म की भी क़ीमत नहीं.


गोयंद कसानेके ज़ि मय पर्हेज़न्द.
जाँसां कि बिमीरंद चुनाँ बर्खीज़न्द
मा बा मयो-माश्हूक अज़ीनीम मदाम,
ता बू कि ज़ि-खाकि मा चुनाँ अंगीज़न्द.[3]


जो मय नहीं पीते वो कहा करते हैं,
मौत जिस हाल में हो, वैसे उठा करते हैं.
माशूक को मय के साथ रखता हूँ मैं,
इस तर्ह उठें हम भी, दुआ करते हैं.


शीरीं दहनाँ उह्द बिपायाँ न बुरंद.
साहिब-नज़रां ज़ि-आशिकी जाँ न बुरंद.
माशूक चू बर मुरादों-राय तू बूद,
नामे-तू मियानि-इश्क्बाजाँ न बुरंद. [4]


शीरीं-लब जितने हैं, वादा नहीं पूरा करते.
जो नज़र रखते हैं, जानें हैं लुटाया करते.
मक्सदो-राय में जब आशिको-माशूक हों एक,
इश्क्बाजों में नहीं नाम गिनाया करते.

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