गुरुवार, 11 मार्च 2010

तितली तितली दौड़ रहे हैं

तितली तितली दौड़ रहे हैं।
लेकर माज़ी दौड़ रहे हैं॥

लालच के बाज़ार में कब से,
कितने साथी दौड़ रहे हैं॥

आख़िर इस से हासिल क्या है,
यूँ ही ख़ाली दौड़ रहे हैं॥

घर से उठते आग के शोले,
पानी पानी ! दौड़ रहे हैं॥

माँ घर में बीमार पड़ी है,
फ़िक्र है गहरी दौड़ रहे हैं॥

आँधी का इम्कान है शायद,
पागल पंछी दौड़ रहे हैं॥

कैसे कर सकते हैं सुफ़ारिश,
जब ख़ुद हम भी दौड़ रहे हैं॥

लड़कियों की उमरें ढलती हैं,
कब हो शादी , दौड़ रहे हैं॥

शायद काम कहीं बन जाये,
कुरसी कुरसी दौड़ रहे हैं॥
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बुधवार, 10 मार्च 2010

यहाँ शायद मुकम्मल कुछ नहीं है

यहाँ शायद मुकम्मल कुछ नहीं है।
मसाएल हैं, मगर हल कुछ नहीं है॥

मैँ इन्साँ अब कहाँ, बुत बन चुका हूं,
मेरे सीने मेँ हलचल कुछ नहीँ है॥

वो जिन बोतल के बाहर आ चुका है,
के अब ख़ाली है बोतल, कुछ नहीं है॥

हमारी ही नयी शक्लें हैं ये सब,
घटा, तूफ़ान, बादल कुछ नहीं है॥

कभी समझो के इस कारे-जहां में,
सभी कुछ आज है, कल कुछ नहीं है॥

हमी कमज़ोरियों में धँस रहे हैं,
हक़ीक़त में ये दलदल कुछ नहीं है॥
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मंगलवार, 9 मार्च 2010

इस तर्ह मेरे साथ हैं घर के दरो-दीवार्

इस तर्ह मेरे साथ हैं घर के दरो-दीवार्॥
सहरा में नज़र आते हैं उगते दरो-दीवार्॥

खुल जाते हैं इदराक के नादीदा दरीचे,
बन जाते हैं एहसास के लम्हे दरो-दीवार॥

मैं क़ब्र में भी रहने नहीं पाया सुकूँ से,
करते रहे तामीर फ़रिश्ते दरो-दीवार॥

क्यों लोग निसाबों से निकलते नहीं बाहर,
क्यों लगते हैं तालीम के साँचे दरो-दीवार्॥

ग़ालिब की तरह हम भी बना लेंगे कोई घर,
दुनिया से बहोत दूर कहीं बे-दरो-दीवार॥

बेमेहरिए-अफ़लाक का हम शिक्वा करें क्या,
वरसे में मिले हैं ये सुलगते दरो-दीवार॥
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इदराक=बौद्धिकता । नादीदा-दरीचे=अनदेखी खिड़कियाँ । निसाब=पाठय्क्रम ।बेमेहरिए-अफ़लाक=आसमानों के अत्याचार्।वरसे में=उत्तराधिकार में।

मिली है जो भी हमें ज़िन्दगी ग़नीमत है

मिली है जो भी हमें ज़िन्दगी ग़नीमत है।
ये साँस चल तो रही है, यही ग़नीमत है॥

कभी दिखाए किसी को न आबले दिल के,
कभी न सोचा करें ख़ुदकुशी, ग़नीमत है॥

सफ़र से थक के यक़ीनन कहीं भी रुक जाते,
शजर न राह में था एक भी ग़नीमत है॥

किसी का क़र्ज़ नहीं है हमारी गरदन पर,
तबाह हाली में इतनी ख़ुशी ग़नीमत है॥

दिया था उसने बहोत कुछ नुमाइशों के लिए,
हमारे साथ रही सादगी ग़नीमत है॥

ये बात सच है के हम मुद्दतों से प्यासे हैं,
मगर ये प्यास है बस प्यार की ग़नीमत है॥

हज़ारों लोग हैं आते ज़रूरतों से मगर,
उदास होके न लौटा कोई ग़नीमत है॥

सुकून है के हमेशा मैं सर उठा के जिया,
हुई न रुस्वा मेरी ख़ुदसरी ग़नीमत है॥
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गंगाजल की क़समें खा लें।

गंगाजल की क़समें खा लें।
फिर भी चलेंगे दुश्मन चालें।
कुछ तो कभी हो उनकी इनायत,
ऐसी कोई राह निकालें॥
ज़ुल्म से बाज़ न आयेंगे वो,
जितना चाहें रो लें गा लें॥
कुछ कम कर लें उनसे तवक़्क़ो,
कुछ पागल दिल को समझा लें॥
बेचैनी बढ़ती जाती है,
किस हद तक हम ख़ुद को सभालें॥
खलियानों का क़ीमती ज़ेवर,
सोने जैसी धान की बालें।
भीग गये बारिश में कपड़े,
धूप कहां है जिसमें सुखा लें॥
क्या मालूम ये वक़्त की मौजें,
किसको डुबोएं किसको उछालें।
तनहाई में साथ तो देंगी,
बेहतर है कुछ चिड़ियाँ पालें॥
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सोमवार, 8 मार्च 2010

हवा का रुख़ बदल जाता है अक्सर

हवा का रुख़ बदल जाता है अक्सर।
वो पहलू से निकल जाता है अक्सर्॥
ये सीना भी कोई आतश-फ़िशाँ है,
यहाँ लावा पिघल जाता है अक्सर्॥
भड़कती है कुछ ऐसी आग दिल में,
मेरा दामन भी जल जाता है अक्सर्॥
तबाही की तरफ़ जाकर ये मौसम,
अचानक ख़ुद सँभल जाता है अक्सर्॥
किसी ख़ित्ते में हो कोई धमाका,
हमारा दिल दहल जाता है अक्सर॥
हमें होती नहीं मुत्लक़ ख़बर तक,
ज़माना चाल चल जाता है अक्सर॥
अभी से दिल को यूँ छोटा न कीजे,
बुरा वक़्त आके टल जाता है अक्सर॥
सुलूक उसका बहोत अच्छा है, लेकिन,
ज़ुबाँ ऐसी है, खल जाता है अक्सर॥
कहीं जाऊँ, उसी की रह्गुज़र पर,
क़दम क्यों आजकल जाता है अक्सर॥
बनाने के लिए तस्वीर उस की,
ख़याल उसका मचल जाता है अक्सर॥
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रुख=दिशा । आतश-फ़शाँ=ज्वालामुखी।ख़ित्ता=भूभाग,क्षेत्र्।मुत्लक़=तनिक भी।सुलूक=व्यवहार।

रविवार, 7 मार्च 2010

तवील होती हैं क्यों आजकल शबें बेहद

तवील होती हैं क्यों आजकल शबें बेहद।
ये कौन है जो बढ़ाता है उल्झनें बेहद॥
ज़माने को नहीं शायद अब एक पल भी क़रार,
अजीब हाल है लेता है कर्वटें बेहद॥
कहीं भी जाओ मयस्सर नहीं ज़रा भी सुकूं,
कोई भी काम करो हैं रुकावटें बेहद॥
ख़बर भी है के गढे जा रहे हैं क्या क़िस्से,
हमारे हक़ में है बेहतर न हम मिलें बेहद॥
ये चन्द-रोज़ा इनायात क्यों हैं मेरे लिए,
मैं ख़ुश हूं अपनी ग़रीबी के हाल में बेहद्॥
जिन्हें था इश्क़ वो दुनिया में अब भी ज़िन्दा हैं,
मिलेगा क्या हमें करके इबादतें बेहद्॥
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तवील=लम्बी ।शबें=रातें । क़रार=चैन,सुकून ।मयस्सर=उपलब्ध ।इनायात=कृपाएं ।

ज़िकरे रोज़ो-शब करता हूं

ज़िकरे रोज़ो-शब करता हूं।
उसकी बातें कब करता हूं॥

आँसू पलकों पर क्यों आये,
दिल में तलाशे-सबब करता हूं॥

सिर्फ़ लबों को चूम रहा हूं,
ऐसा कौन ग़ज़ब करता हूं॥

जब से उसको देख लिया है,
बातें कुछ बेढब करता हूं॥

रुस्वाई का ख़ौफ़ है इतना,
ज़िक्र भी ज़ेरे-लब करता हूं॥

सोच के शायद वो भी आये,
बरपा बज़्मे तरब करता हूं॥

उसकी ही बात समझते हैं सब,
बात किसी की जब कर्ता हूं॥
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शनिवार, 6 मार्च 2010

तवील होता है जब इन्तेज़ार सोचता हूं

तवील होता है जब इन्तेज़ार सोचता हूं।
मैं उसपे करता हूं क्यों एतबार सोचता हूं॥

इनायत उसकी कोई ख़ास तो नहीं मुझ पर,
ये जान उसपे करूं क्यों निसार सोचता हूं॥

दरख़्त के वो समर हैं बलन्दियों पे बहोत,
रसाई मेरी कहाँ, बार-बार सोचता हूं॥

शिकायतें मैं कभी कोई उससे कर न सका,
वो हो न जाये कहीं शर्मसार सोचता हूं॥

किसी का दिल ही नहीं साफ़ है किसी के लिए,
भरा है ज़हनों में गर्दो-ग़ुबार सोचता हूं॥

न कोई तन्ज़ न कुछ तब्सेरा ही मैं ने किया,
फिर उसके दिल में चुभा कैसे ख़ार सोचता हूं॥

बदल के रास्ता अपना मैं मुत्मइन न हुआ,
के ये भी गुज़रा उसे नागवार सोचता हूं॥

मैं जितना चाहता हूं उसका ज़िक्र ही न करूं,
उसी के बारे में बे-अख़्तियार सोचता हूं॥
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शुक्रवार, 5 मार्च 2010

दिल की बातें बे मानी हैं

दिल की बातें बे मानी हैं।
मैं नहीं कहता,माँ कहती हैं॥
कब से राहें देख रही हैं,
शायद आँखें थक सी गयी हैं॥
टुकड़े-टुकड़े यकजा कर लूं,
यादें आज बहोत महँगी हैं॥
कोई तो है जो घर आया है,
प्यार की खुश्बूएँ फैली हैं॥
दर्द के क़िस्से, दुख के फ़साने,
अब तो यही मेरी पूँजी हैं॥
दिल सहरा जैसा वीराँ है,
आँखें इक सूखी सी नदी हैं॥
उड़ गयी कैसे इन की लिखावट,
दिल की किताबें क्यों सादी हैं॥
लौट के अब वो नहीं आयेंगी,
वो सारी बातें माज़ी हैं॥
नासमझी में क्या कर बैठे,
हम भी शायद अहमक़ ही हैं॥
मुझ में कोई बोल रहा है,
बातें मैंने उसकी सुनी हैं॥
मैं अश'आर कहाँ कहता हूं,
ये सब ग़ज़लें इलहामी हैं॥
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