बुधवार, 11 मार्च 2009

ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.

ये वो सफ़र है के जाना है कब पता ही नहीं.
मगर न जाये कोई, ये कभी सुना ही नहीं.
न रास्ते से हैं वाक़िफ़, न मंज़िलों की खबर,
बढायें खुद से क़दम, इतना हौसला ही नहीं.
हवा के सामने लौ जिसकी थरथराई न हो,
चरागे-ज़ीस्त कभी इस तरह जला ही नहीं,
तमाम उम्र ही मेहनत-कशी में गुज़री है,
सभी ये समझे मेरा कोई मुद्दुआ ही नहीं.
हर एक ज़ाविए से उसको देखता आया,
सरापा देखूं उसे ऐसा ज़ाविया ही नहीं.
अगर वो पूछ ले, क्या अपने साथ लाये हो,
मैं क्या कहूँगा मुझे इसकी इत्तेला ही नहीं.
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मंगलवार, 10 मार्च 2009

सुब्ह के इन्तेज़ार में, रात तवील हो गयी.

सुब्ह के इन्तेज़ार में, रात तवील हो गयी.
आँखें पिघल-पिघल गयीं, नींद ज़लील हो गयी.
सरदियों की ये मौसमी, खुन्कियां सर-बरहना हैं,
धूप भी इत्तेफ़ाक़ से, कितनी बखील हो गयी.
राज़ था राज़ ही रहा, उसका वुजूद आज तक,
उसको न मैं समझ सका, उम्र क़लील हो गयी.
रौज़ने-फ़िक्र में कई, और दरीचे वा हुए,
कोई तो रास्ता मिला, कुछ तो सबील हो गयी.
मंजिलों के पड़ाव हैं, अहले-जुनूँ के जेरे-पा,
तायरे-नफ़्स के लिए, राहे-नबील हो गयी.
सिलसिलए-हयातो-मौत, सिर्फ सफ़र है रूह का,
वस्ल की आरजू हुई, ज़ीस्त क़तील हो गयी.
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सोमवार, 9 मार्च 2009

रिश्ते बेटे बेटियों से अब महज़ कागज़ पे हैं.

रिश्ते बेटे बेटियों से अब महज़ कागज़ पे हैं.
उन्सियत के बेल बूटे सब महज़ कागज़ पे हैं
अपने-अपने तौर के सबके हुए मसरूफियात,
लोग आपस में शगुफ्ता-लब महज़ कागज़ पे हैं.
जीस्त का मकसद समझना चाहता है कौन अब,
दर हकीकत सब मुहिब्बे-रब महज़ कागज़ पे हैं.
ज़हन बाज़ारों में रोज़ो-शब नहीं करता तलाश,
आज सुबहो-शाम, रोज़ो-शब महज़ कागज़ पे हैं.
घर की दीवारों में या ज़ेरे-ज़मीं कुछ भी नहीं,
सीमो-ज़र के सब खजाने अब महज़ कागज़ पे हैं.
अब तो क़दरें रह गयी हैं बस नसीहत के लिए,
ज़िन्दगी बेढब है सारे ढब महज़ कागज़ पे हैं।

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सोमवार, 2 मार्च 2009

ज़र्द पत्ते की तरह चेहरे पे मायूसी लिए.

ज़र्द पत्ते की तरह चेहरे पे मायूसी लिए.
जीस्त की राहों से गुज़रे लोग नासमझी लिए.
क्या हुआ फूलों को आखिर क्यों हैं सबख़ामोश लब,
रतजगे रुख़सार पर आँखों में बेख्वाबी लिए.
कैसे समझेगा समंदर की कोई गहराइयां,
जब भी नदियों ने बहाए जितने आंसू पी लिए,
बेखबर आतश-फ़िशां हरगिज़ नहीं हालात से,
आग का दरिया रवां है प्यास कुछ गहरी लिए.
क्यों किसी के साथ कुछ तफरीक ये करतीं नहीं,
क्यों ये सूरज की शुआएं फ़िक्र हैं सबकी लिए.
ख्वाब का फुक़ादान, फ़िक्रों से बसीरत लापता,
ये भी कोई ज़िन्दगी है, जैसे चाहा जी लिए।
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रविवार, 1 मार्च 2009

जिंदा रहना है तो फिर मौत से डरना कैसा.

जिंदा रहना है तो फिर मौत से डरना कैसा.
मक़्सदे-ज़ीस्त का अन्दर से बिखरना कैसा.
ज़ह्ने-इंसान की परवाज़ हदों में नहीं क़ैद,
इस हकीकत को समझकर भी मुकरना कैसा.
पाँव की ठोकरों में जब हो गुलिस्ताने-हयात,
नाउमीदी के बियाबाँ से गुज़रना कैसा.
ले के माजी का कोई ज़ख्म, उलझते क्यों हो,
हट के राहों से नशेबों में ठहरना कैसा.
सीखो दरयाओं से आहिस्ता खरामी के मज़े,
मौजों की तर्ह ये पल-पल पे बिफरना कैसा.
कोई भी मसअला इनसे तो कभी हल न हुआ,
फिर इन्हीं आहों से तन्हाई को भरना कैसा।

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शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले।

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले.
मल्लाह तू भी कश्ती से पतवार खींच ले.
तस्लीम है मुझे कि मैं बागी हूँ, ज़िन्दगी!
क्या सोचती है, मुझको सरे-दार खींच ले.
ज़ख्मी है संगबारियों से वो बुरी तरह,
बढ़कर कोई उसे पसे-दीवार खींच ले.
आजिज़ हूँ, सल्ब कर ले तू मुझसे मेरा शऊर,
अपनी इनायतों की ये रफ़्तार खींच ले.
तंग आ चूका वो अपनों के बेजा सुलूक से,
अच्छा है उसको महफ़िले-अग़यार खींच ले.
हो जाय इल्म जब के नहीं वो वफ़ा-शनास
कैसे न अपना हाथ तलबगार खींच ले.
इस ज़िन्दगी का हाल भी है कुछ उसी तरह,
हम पढ़ रहे हों और तू अखबार खींच ले.
ढीले पड़े हैं साज़, शिकस्ता हैं उंगलियाँ,
बेहतर है अब सितार से हर तार खींच ले।
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शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

ऐ मौत के फ़रिश्ते ! झिजकता है किस लिए.

ऐ मौत के फ़रिश्ते ! झिजकता है किस लिए.
लेजा हयात, गोशे में सिमटा है किस लिए.
इस ज़िन्दगी के हम कभी मालिक नहीं बने,
फिर ज़िन्दगी की हमको तमन्ना है किस लिए.
ये रिश्ते-नाते जितने भी हैं, सब हैं आरज़ी,
इंसान इनसे प्यार से लिपटा है किस लिए.
वैसे ही जल रहा हूँ, जलाती है और क्यों,
दुनिया! ये तेरी हरकते-बेजा है किस लिए.
बाज़ार में सजी हुई हर जिन्स की तरह,
हम भी थे, हमको तू ने खरीदा है किस लिए.
तेरे बताये रास्ते पर चल रहा था मैं,
मंज़िल जब आ गयी, मुझे रोका है किस लिए.
मौतो-हयात दोनों की है मांग हर तरफ़,
ख्वाहिश है जिसकी जो, नहीं मिलता है, किस लिए।


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हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.

हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.
हालात हैं ऐसे कि है मर जाने की ख्वाहिश.
उस कतरए-नैसाँ को थी आगोशे-सदफ़ में,
मानिन्दे-गुहर हुस्न से भर जाने की ख्वाहिश.
अब दे भी चुके सुब्ह को सब अपने उजाले,
बेहतर है करो मिस्ले-कमर जाने की ख्वाहिश.
गुलरंग न हो पाता ज़मीं का कभी दामन,
फूलों की न होती जो बिखर जाने की ख्वाहिश.
मयखाने के दस्तूर से वाकिफ तो नहीं हम,
दिल में है मगर बादाओ-पैमाने की ख्वाहिश.
ऐ काली घटाओ न हमें खौफ दिलाओ,
हम रखते हैं ज़ुल्मात से टकराने की ख्वाहिश.
झरने न उतरते जो पहाडों से ज़मीं पर,
दिल में ही दबी रहती निखर जाने की ख्वाहिश।
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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

ज़िन्दगी गुज़री है सन्नाटों की चादर ओढे.

ज़िन्दगी गुज़री है सन्नाटों की चादर ओढे.
मौत आयेगी उजालों के समंदर ओढे.
हम भी दुःख-दर्द की दुनिया में उसी तर्ह जिये,
जैसे वीरानों में गौतम ने हैं पत्थर ओढे.
जिस्म मिटटी का है मिटटी में इसे मिलना है,
होगा क्या, जिस्म पे कितना भी कोई ज़र ओढे.
जेबे-तन ब्रज में कन्हैया ने है की ज़र्द कसा,
काली कमली हैं मदीने में पयम्बर ओढे.
तर्क इंसान न कर पाया कभी हुब्बे-वतन,
बूए-काबुल रहा अफ़कार में बाबर ओढे,
सफ़रे-वस्ल हुआ करता है दुश्वार-गुज़ार,
रूह ने आबला-पायी के हैं गौहर ओढे.
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ज़र=सोना, जेबे-तन=शरीर पर सज्जित, ज़र्द कसा=पीताम्बर, हुब्बे-वतन=मातृभूमि प्रेम, बूए-काबुल=काबुल की सुगंध, अफ़कार=वैचारिकता, सफ़रे-वस्ल=मिलन-यात्रा, दुश्वार-गुज़र=कष्टसाध्य, रूह=आत्मा, आबला-पायी= पाँव में छाले पड़ जाना, गौहर=मोती.

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

युग-विमर्श की यात्रा का एक वर्ष

आज 25 फरवरी 2009 को युग-विमार्श ने अपनी यात्रा का एक वर्ष पूरा कर लिया. इस बीच 5872 पाठकों ने 14563 बार युग-विमर्श की रचनाओं और विचारों के साथ संपर्क स्थापित किया। यह एक संतोष-प्रद स्थिति है। देखा जाय तो यह पूरा वर्ष ऐसे पडावों से गुज़रा है जब हिंदी ब्लॉग जगत पर, विभिन्न स्थितियों से टकराते-जूझते देश की पृष्ठभूमि में, पर्याप्त कड़वाहटें व्यक्त हुई हैं। मानसिक तनाव की इस स्थिति से बाहर निकलकर अब कुछ ठंडी हवा महसूस की जा रही है। भावुकता के इस बहाव में युग विमर्श नहीं आया और उसने एक स्वस्थ वैचारिक धरातल पर खड़े रहने का प्रयास किया। इस एक वर्ष में युग विमर्श की 519 प्रविष्टियाँ इस तथ्य की पुष्टि करेंगी। संतोष का विषय यह है की जहाँ उर्दू-हिंदी ग़ज़लों ने अपनी लोकप्रियता बनायी, वहीँ भगवद गीता, इस्लाम की समझ, कबीर का सूफी दर्शन, प्रगतिशील आन्दोलन जैसे गंभीर विषयों से सम्बद्ध आलेख भी रुचिपूर्वक पढ़े गए। सूरदास के रूहानी नगमे और राम काव्य "अब किसे बनवास दोगे" को भी सराहा गया.

युग-विमर्श उन सभी पाठकों के प्रति आभार व्यक्त करता है, जिन्होंने अपनी प्रतिक्रिया के धरातल पर सहमतियाँ असहमतियां व्यक्त कीं और कहीं कोई तल्खी नहीं आई. हाँ जाने-अनजाने में किसी ब्लॉग कर्मी को युग-विमर्श द्बारा की गयी टिप्पणियों से यदि ठेस पहुंची है तो हमें इसका खेद है. हम और भी सतर्क रहने का प्रयास करेंगे.