अब ये आश्वासन न दो, परिचित हैं सब अच्छी तरह.
तुमने अत्याचार ढाये, बे-सबब अच्छी तरह.
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आँधियों में पेड़ गिर जाते तो कोई दुख न था,
हमने आंखों से है देखा ये गज़ब अच्छी तरह.
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भुखमरी, दुख-दर्द, पीड़ा, आत्म हत्या से किसान,
कुछ बताओगे कि होंगे मुक्त कब अच्छी तरह.
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औपचारिकता के संबंधों में आस्वादन कहाँ,
मुझसे मिलना, प्यार जागे मन में जब अच्छी तरह.
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लक्ष्मी को पूजने का स्वाद चखने के लिए
दौड़ते हैं लोग जाने को अरब अच्छी तरह.
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हम तो गीदड़-भभकियों को भी समझ लेते थे सच,
वास्तविकता क्या है ये रौशन है अब अच्छी तरह.
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सोमवार, 12 जनवरी 2009
अब ये आश्वासन न दो, परिचित हैं सब अच्छी तरह.
संतुष्ट हूँ कि मन में कलुषता नहीं कोई.
संतुष्ट हूँ कि मन में कलुषता नहीं कोई.
पर्वा नहीं है गर मुझे समझा नहीं कोई.
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पीड़ा से जन्म लेते हैं रचनात्मक विचार,
वो रचनाकार क्या जिसे पीड़ा नहीं कोई.
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करते रहे शिकायतें बस अन्धकार की,
हमने कभी चिराग जलाया नहीं कोई.
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चिन्ता में दूसरों की गले जा रहे हैं लोग,
अपने दुखों से शह्र में दुबला नहीं कोई.
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गंभीरता से कीजिए सौहार्द पर विचार,
चिंतन का ये विषय है, तमाशा नहीं कोई.
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प्यासे हैं, गर्म रेत है, मंजिल भी दूर है,
जारी सफर है, राह में दरया नहीं कोई.
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चहरे उदास, होंठों पे पपडी जमी हुई,
पर झोंपड़ों में भूख का शिकवा नहीं कोई.
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इन बस्तियों में प्यार कभी बांटिये तो आप,
फिर कह सकें तो कहिये कि अच्छा नहीं कोई.
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रविवार, 11 जनवरी 2009
शोक की मनःस्थिति, मांगती है संवेदन.
शोक की मनःस्थिति, मांगती है संवेदन.
आंसुओं की पीड़ा को, समझेंगे न दुह्शासन.
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सब दुखों की गहराई, नापते हैं शब्दों से,
कोई सुन नहीं पाता, चित्त का व्यथित क्रंदन.
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आस्थाओं की झोली, जिसकी रिक्त होती है,
मानती नहीं उसकी, चेतना कोई बंधन.
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दहशतों के हाथों से, सामने निगाहों के,
जल के राख होता है, जीता-जागता मधुवन.
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जब भी याद करता हूँ, मैं वो सारी घटनाएं,
तैरता है आंखों में, होके अवतरित सावन.
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ईंट-पत्थरों ने भी, मेरे दुख को समझा है,
मेरा साथ देते हैं, ये उदास घर-आँगन.
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बुधवार, 31 दिसंबर 2008
ये दुआएं भी हैं साधना.
दे रहे थे नए वर्ष की सबको शुभकामना.
वर्ष आया खिसक भी गया
थोडी उपलब्धियां भी हुईं,
किंतु जनता उसी तर्ह पिसती रही,
मार महंगाई की सह के टूटे घडे की तरह
नित्य रिसती रही.
बात इतनी ही होती तो कुछ भी न था,
वर्ष आया समापन पे जब,
दैत्य आतंक का देश की सरहदों में घुसा.
होटलों में घरों में घुसा.
बेगुनाहों की जानें गयीं.
खून सडकों पे,
स्टेशनों, अस्पतालों पे बहता दिखायी दिया.
इस गुज़रते हुए वर्ष के होंठ पर,
मौत का राग सबको सुनाई दिया.
फिर भी मैं
आने वाले नए वर्ष की,
भेंट करता हूँ शुभकामना
सिर्फ़ ये सोचकर,
ये दुआएं भी हैं साधना.
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रात आई है बलाओं से रिहाई देगी / मसऊद अनवर
रात आई है बलाओं से रिहाई देगी।
अब न दीवार न ज़ंजीर दिखायी देगी।
वक़्त गुज़रा है, पे मौसम नहीं बदला यारो,
ऐसी गर्दिश है ज़मीं ख़ुद भी दुहाई देगी।
ये धुंधलका सा जो है इसको गनीमत जानो,
देखना फिर कोई सूरत न सुझाई देगी।
दिल जो टूटेगा तो इकतरफा तमाशा होगा,
कितने आईनों में ये शक्ल दिखायी देगी।
साथ के घर में बड़ा शोर है बरपा अनवर,
कोई आएगा तो दस्तक न सुनाई देगी।
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इष्ट देवों को बिठाकर स्वर्ण सिंहासन पे आज.
इष्ट देवों को बिठाकर स्वर्ण सिंहासन पे आज.
करते हैं श्रद्धा प्रर्दशित लोग काले धन पे आज.
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कल्पनाओं से परे हैं राजनीतिक दाव-पेच,
बनती है सरकार उल्टे-सीधे गठबंधन पे आज.
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बाहु-बलियों के ही बूते पर खड़े हैं जो प्रदेश,
किस तरह इठला रहे हैं अपने अनुशासन पे आज.
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जन्म-दिन शासक का निश्चय ही मनेगा धूम से,
मैं भी कितना मूर्ख हूँ हँसता हूँ इस बचपन पे आज.
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इस व्यवस्था को बदलना हो गया है लाज़मी,
टिक गई है दृष्टि संभावित से परिवर्तन पे आज.
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दोष आरोपित किसी पर करने से क्या लाभ है,
बल कोई देता नहीं किरदार के नियमन पे आज.
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राजनेताओं के वक्तव्यों से जनता क्षुब्ध है,
रोक लगनी चाहिए शब्दों के इस वाहन पे आज.
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मंगलवार, 30 दिसंबर 2008
लिप्त हैं लोग सिंहासनों में.
लिप्त हैं लोग सिंहासनों में.
कौन आयेगा पीड़ित जनों में.
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राजनीतिक नहीं उसकी चिंता,
उसका चिंतन है कब बंधनों में.
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कक्ष से अपने बाहर निकलिए,
रोशनी है खुले आंगनों में.
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पेंग झूले की, कजरी की धुन हो,
रंग भर जायेगा सावनों में.
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आजके अंगदों पर भरोसा,
भूलकर भी न रखिये मनों में.
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ज़िन्दगी से अपरिचित रहे हैं,
खो गए हैं जो सुख-साधनों में.
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घन-गरज जितनी भी चाहें कर लें,
वृष्टि-जल कब है काले घनों में.
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देख लीजे हैं कितने सुखी हम,
बेकली है भरी दामनों में.
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हो गए और भी लोग हलके,
जब वज़न आ गया वेतनों में.
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फूल खिलते नहीं पहले जैसे,
खुशबुएँ अब नहीं उपवनों में.
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क़ौल का जिस शख्स के मुत्लक़ भरोसा ही न हो.
क़ौल का जिस शख्स के मुत्लक़ भरोसा ही न हो.
है यही बेहतर कि उस से कोई रिश्ता ही न हो.
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किस क़दर जाँसोज़ो-हैरत-खेज़ था वो हादसा,
उसने इस पहलू से मुमकिन है कि सोचा ही न हो.
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वो हक़ाइक़ को नज़र-अंदाज़ करता आया है,
मुझको शक है साजिशों में हाथ उसका ही न हो.
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हमने सारा जाल ख़ुद से बुन लिया, कहता है वो,
क्या करे, जब बात उसकी कोई सुनता ही न हो.
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कर चुका है अपनी गैरत का वो सौदा बारहा,
मुझको अंदेशा है आइन्दा भी ऐसा ही न हो.
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कुछ कहीं एहसास उसको ज़ुल्म का होगा ज़रूर,
वरना क्यों वो चाहता है इसका चर्चा ही न हो.
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धूप थोड़ी सी जो मिल जाती तो कट जाता ये दिन,
आज मुमकिन है कि सूरज घर से निकला ही न हो.
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ये भी हो सकता है मेरी ही ग़लत हो याद-दाश्त,
उसके मेरे दरमियाँ मिलने का वादा ही न हो.
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कौल = वचन. मुत्लक़ = तनिक भी. जाँसोज़ = प्राणों को जलाने वाला. हैरत-खेज़ =आश्चर्यजनक. हक़ाइक़ = वास्तविकता. नज़र-अंदाज़ = तिरस्कृत. साज़िश = षड़यंत्र. गैरत = स्वाभिमान.
सोमवार, 29 दिसंबर 2008
ये खलिश कैसी है क्यों क़ल्ब तड़पता सा लगे.
ये खलिश कैसी है क्यों क़ल्ब तड़पता सा लगे.
सामने बैठा हुआ शख्स कुछ अपना सा लगे.
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जानता हूँ मैं कभी उससे कहीं भी न मिला,
बात फिर क्या है वो बेहद मुझे देखा सा लगे.
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सबको इस गर्दिशे-दौराँ ने किया है आजिज़,
राग वो छेड़ो जो हर एक को अच्छा सा लगे.
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मेरा हमसाया है, अब छोडो उसे माफ़ करो,
गुस्सा करते हुए भी, मुझको वो बच्चा सा लगे.
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वार करता है कुछ ऐसा कि पता तक न चले,
ज़ख्म लेकिन कहीं बेसाख्ता गहरा सा लगे.
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सबको मालूम है मासूम-तबीअत वो नहीं,
फिर भी जब सामने आए तो फ़रिश्ता सा लगे.
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ख़त्म हो जाए अगर खून के रिश्तों का लगाव,
क्यों न फिर सारा जहाँ एक ही कुनबा सा लगे.
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खलिश = चुभन, क़ल्ब = ह्रदय, शख्स = व्यक्ति, गर्दिशे-दौराँ = समय का चक्कर, आजिज़ = क्षुब्ध, हमसाया = पड़ोसी, बेसाख्ता = अनायास, मासूम-तबीअत = अबोध, भोला-भाला, कुनबा =परिवार.
रविवार, 28 दिसंबर 2008
वो अगर सुन सके मेरी कुछ इल्तिजा,
वो अगर सुन सके मेरी कुछ इल्तिजा, मैं समंदर से गहराइयां मांग लूँ. / क़ल्ब की वुसअतें, ज़ह्ने-संजीदा की सब-की-सब मोतबर खूबियाँ मांग लूँ.
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चाँद हो जाए मुझपर जो कुछ मेहरबाँ, पहले तो उससे घुल-मिल के बातें करूँ. / और फिर एक साइल के अंदाज़ में, उसकी ठंडक का उससे जहाँ मांग लूँ.
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देखता हूँ परिंदों को उड़ते हुए, आसमानों की नीली फ़िज़ाओं में जब, / जी में आता है परवाज़ मैं भी करूँ, क्यों न उनसे ये फ़न, ये समाँ मांग लूँ.
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ज़िन्दगी का ज़रा भी भरोसा नहीं, जाने किस वक़्त कह दे मुझे अलविदा, / खालिके-कुल को रहमान कहता हूँ मैं, दे अगर ज़ीस्ते-जाविदाँ मांग लूँ.
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इन बहारों में कोई भी लज्ज़त नही, मौसमे गुल की मुझको ज़रूरत नहीं, / मेरी तनहाइयों का तक़ाज़ा है ये, क्यों न मैं फिर से दौरे-खिज़ाँ मांग लूँ.
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क्यों है माहौले-जंगो-जदल हर तरफ़, कैसी बारूद की बू है ज़र्रात में, / बाहमी-अम्न की सूरतें हों जहाँ, चलके थोडी सी मैं भी अमां मांग लूँ.
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इल्तिजा = निवेदन, क़ल्ब = ह्रदय, वुसअतें = फैलाव, विस्तार, ज़हने-संजीदा = गंभीर मस्तिष्क, मोतबर = विश्वसनीय, साइल =याचक, परवाज़ = उड़ान, फ़न = कला, समाँ = दृश्य, अल-विदा = बिदा, खालिके-कुल = स्रष्टा, रहमान = कृपाशील, जीस्ते-जाविदाँ = अमरत्व, लज़्ज़त = स्वाद, दौरे-खिजां = पतझड़ का मौसम, माहौले-जंगो-जदल = यूद्ध का वातावरण, ज़र्रात =कण, बाहमी अम्न = पारस्परिक शान्ति, अमां = शान्ति।