सामने एक बनती इमारत का टुकडा
पीछे अपनी गहनता में स्थिर
पहाड़ और तेज़ आंधी !
अब मुझे हरियाली दूब पर टिकी
ओस की बूँद के बने रहने की अनिवार्यता
महसूस नहीं होती.
क्योंकि जहाँ मैं तैर रहा हूँ
वह एक अंतहीन समुद्र है
और चारों तरफ़
बड़ी-बड़ी मछलियों का समूह
तो क्या मैं सारे इरादों को
सतह हो जाने दूँ ?
सच तो यह है कि हम
उन तमाम गैर-ज़रूरी क्षणों को
जीना भी अनिवार्य समझते हैं
जो हमारी पतली हथेलियों को
कभी का बीच से चीर गए हैं.
यह कैसे हो सकता है कि आदमी
अपनी परछाईं से भाग जाए
और घोषित कर दे युद्ध का अंत ?
जबकि सन्नाटों में लटकी हुई
प्रतिकूल आवाजें अब भी दमदार हैं
और हम सिर्फ़ अपने बहरे होने की
कीमत चुका रहे हैं.
सब कुछ करने की क्षमता होने पर भी
सब कुछ सहे जा रहे हैं.
**************************
[दिल्ली 1980]
शनिवार, 23 अगस्त 2008
मेरा मन / कुसुम अंसल
आज तुम से मिलने का कितना मन था
पर मन को मैं ने रोक लिया था
तुम्हारे चेहरे पर
थकान और नींद मिलकर
जो भी भाव दे रहे थे
उन्हें मैंने अनपढा छोड़ कर
करवट बदल ली थी.
मन बे-मतलब, बे-परवाह नहीं है
कि चेहरे को पढ़कर भी जिद कर बैठे.
रात गहरा रही है
गहराने दो
क्योंकि आज
तुमसे मिलने का बहुत मन था.
*************************
[दिल्ली 1986]
पर मन को मैं ने रोक लिया था
तुम्हारे चेहरे पर
थकान और नींद मिलकर
जो भी भाव दे रहे थे
उन्हें मैंने अनपढा छोड़ कर
करवट बदल ली थी.
मन बे-मतलब, बे-परवाह नहीं है
कि चेहरे को पढ़कर भी जिद कर बैठे.
रात गहरा रही है
गहराने दो
क्योंकि आज
तुमसे मिलने का बहुत मन था.
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[दिल्ली 1986]
विशवास की मौत / कुसुम अंसल
हाँ मैं खड़ी हूँ
इतने विशवास से खड़ी हूँ
तुम मेरे परिधान के सौन्दर्य पर
कोई गीत लिखो,
मेरे चेहरे की लुनाई पर मोह से भर उठो.
मेरे बालों के रेशमीपन को
अँगुलियों में लपेट लो.
हाँ, मैं खडी रहूंगी.
परिधान के भीतर, छलनी-छलनी
तार-तार, क्षत-विक्षत मेरा मन
अभी साँस लेता रहेगा
हाँ, सौन्दर्य की ही बात करो
यह जानने की ज़रूरत भी क्या
कि यह सुरमई काली घटाओं के रंग
तुम्हारे छल और विश्वासधात की
तूलिका ने दिए हैं.
बालों का क्या है, चमकते रहेंगे.
विशवास कि मौत...
शरीर की मौत ही नहीं होती.
****************
[दिल्ली 1986]
इतने विशवास से खड़ी हूँ
तुम मेरे परिधान के सौन्दर्य पर
कोई गीत लिखो,
मेरे चेहरे की लुनाई पर मोह से भर उठो.
मेरे बालों के रेशमीपन को
अँगुलियों में लपेट लो.
हाँ, मैं खडी रहूंगी.
परिधान के भीतर, छलनी-छलनी
तार-तार, क्षत-विक्षत मेरा मन
अभी साँस लेता रहेगा
हाँ, सौन्दर्य की ही बात करो
यह जानने की ज़रूरत भी क्या
कि यह सुरमई काली घटाओं के रंग
तुम्हारे छल और विश्वासधात की
तूलिका ने दिए हैं.
बालों का क्या है, चमकते रहेंगे.
विशवास कि मौत...
शरीर की मौत ही नहीं होती.
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[दिल्ली 1986]
बच्चा / नरेंद्र मोहन
कई बार उसे आग में जलाया गया
दीवार में चिनाया गया
पर हर बार वह लौट आया
हँसता, दमकता हुआ.
कई बार उसपर गोलियाँ दागी गयीं
वह नहीं मरा
कई बार उसे तलवार से काटने के लिए
हाथ आगे बढे
और बीच में ही झूलते रह गए
आग ने उसे तेजोदीप्त किया
दीवार ने पुख्ता बनाया
गोली ने तेज़ी दी
और तलवार ने धार.
सबसे ऊपर रहा
उसकी किलकारियों का आकाश
धूमकेतु उसका कुछ न बिगाड़ सका
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[दिल्ली, 1979]
दीवार में चिनाया गया
पर हर बार वह लौट आया
हँसता, दमकता हुआ.
कई बार उसपर गोलियाँ दागी गयीं
वह नहीं मरा
कई बार उसे तलवार से काटने के लिए
हाथ आगे बढे
और बीच में ही झूलते रह गए
आग ने उसे तेजोदीप्त किया
दीवार ने पुख्ता बनाया
गोली ने तेज़ी दी
और तलवार ने धार.
सबसे ऊपर रहा
उसकी किलकारियों का आकाश
धूमकेतु उसका कुछ न बिगाड़ सका
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[दिल्ली, 1979]
अँधेरी परत / नरेंद्र मोहन
अंधेरे की परत-दर-परत से
लिपटता चला गया
एक अंतहीन खोह के अंधे विस्तार में
आँखें फाड़े देखता रहा.
लिपटते-चिपकते-भिनभिनाते
आगे बढ़ते, आवाज़ बुलंद करते
सहमे हुए लोगों का हुजूम और दलदल
और अँधेरा और शोर-गुल !
लिपटने बंद होने के बीच की
अँधेरी परत में धसका देश
मैं ने नुमायाँ करना चाहा एक बड़े शीशे में
देखा (जितना दिख सकता था)
एक काली तिड़की हुई वृहदाकार स्लेट
और भौंकते, लार टपकाते कुत्तों के सिवा
वहाँ कुछ नहीं था.
********************
[दिल्ली, 1979]
लिपटता चला गया
एक अंतहीन खोह के अंधे विस्तार में
आँखें फाड़े देखता रहा.
लिपटते-चिपकते-भिनभिनाते
आगे बढ़ते, आवाज़ बुलंद करते
सहमे हुए लोगों का हुजूम और दलदल
और अँधेरा और शोर-गुल !
लिपटने बंद होने के बीच की
अँधेरी परत में धसका देश
मैं ने नुमायाँ करना चाहा एक बड़े शीशे में
देखा (जितना दिख सकता था)
एक काली तिड़की हुई वृहदाकार स्लेट
और भौंकते, लार टपकाते कुत्तों के सिवा
वहाँ कुछ नहीं था.
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[दिल्ली, 1979]
आग की भाषा / शैलेश ज़ैदी
हवाओं से एक दिन मैं ने पूछा
गोदामों में भरा
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का ढेर सारा सामान
देश के संविधान से अलग
विधायकों और सांसदों का
एक अपना संविधान.
दफ़्तरों में बाबुओं से लेकर अधिकारियों तक
नित्य पढी जाने वाली नोटों की गीता
क्या तुम्हें यह सब कुछ कचोटता नहीं ?
हवाएं पहले तो मुस्कुरा दीं
फिर गंभीर स्वर में बोलीं
तुम्हारे भीतर आग बहुत अधिक है
आग बने रहने से तुम्हें कोई रोकता नहीं
पर आग से कोई मैत्री नहीं रखता.
इस देश के लोग हवा बांधते हैं
हवा पीते हैं
हवा के रुख पर चलते हैं
हवा जीते हैं
और अंत में हवा हो जाते हैं
आग को हवा देना
सब कुछ जला देना है
आग में कोई आस्वादन नहीं होता
तेज तो होता है
पर संतुलित जीवन का
प्रशांत स्पंदन नहीं होता
भीतर की आग ने मुझसे कहा
हवाएं होती हैं बहरूपिया
जब और जैसा होता है सत्ता का चेहरा
हवाएं पहन लेती हैं उसी के अनुरूप मुखौटा
आग को तेज़ करो
हवाएं गर्म हो जायेंगी
और बोलने लगेंगी आग की भाषा .
************************
[वाराणसी 1978]
गोदामों में भरा
रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का ढेर सारा सामान
देश के संविधान से अलग
विधायकों और सांसदों का
एक अपना संविधान.
दफ़्तरों में बाबुओं से लेकर अधिकारियों तक
नित्य पढी जाने वाली नोटों की गीता
क्या तुम्हें यह सब कुछ कचोटता नहीं ?
हवाएं पहले तो मुस्कुरा दीं
फिर गंभीर स्वर में बोलीं
तुम्हारे भीतर आग बहुत अधिक है
आग बने रहने से तुम्हें कोई रोकता नहीं
पर आग से कोई मैत्री नहीं रखता.
इस देश के लोग हवा बांधते हैं
हवा पीते हैं
हवा के रुख पर चलते हैं
हवा जीते हैं
और अंत में हवा हो जाते हैं
आग को हवा देना
सब कुछ जला देना है
आग में कोई आस्वादन नहीं होता
तेज तो होता है
पर संतुलित जीवन का
प्रशांत स्पंदन नहीं होता
भीतर की आग ने मुझसे कहा
हवाएं होती हैं बहरूपिया
जब और जैसा होता है सत्ता का चेहरा
हवाएं पहन लेती हैं उसी के अनुरूप मुखौटा
आग को तेज़ करो
हवाएं गर्म हो जायेंगी
और बोलने लगेंगी आग की भाषा .
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[वाराणसी 1978]
काफ़िर / शैलेश ज़ैदी
मेरी बेटी मुडेरों को रौशन दियों से सजाती रही
मेरा बेटा पटाखों की आवाज़ पर
क़ह्क़हों से मुझे गुदगुदाता रहा.
मेरी पत्नी
अनारों के रंगीन फूलों की मुस्कान पर
मुग्ध होती रही
और मेरे पड़ोसी मुसलमान
मुझको
मेरे बच्चों को
मेरी पत्नी को
काफिर समझते रहे
****************
[अलीगढ़ 1976]
मेरा बेटा पटाखों की आवाज़ पर
क़ह्क़हों से मुझे गुदगुदाता रहा.
मेरी पत्नी
अनारों के रंगीन फूलों की मुस्कान पर
मुग्ध होती रही
और मेरे पड़ोसी मुसलमान
मुझको
मेरे बच्चों को
मेरी पत्नी को
काफिर समझते रहे
****************
[अलीगढ़ 1976]
मैं मुसलमान हूँ / शैलेश ज़ैदी
मैं मुसलमान हूँ
पर उसी देश की मैं भी संतान हूँ
आँख खोली है तुमने जहाँ
तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
ईंट-गारे की दीवारें
'अल्लाहो-अकबर' के नारे लगातीं नहीं
शंख की गूँज हो
या अजानों की आवाज़ हो
घर की दीवारों पर
इनके जादू का होता नहीं कुछ असर
मेरे घर में किताबों के कमरे में
कुरआन के साथ गीता भी रक्खी हुई है
और हदीसों की जिल्दों के पहलू में
वेदान्त के भाष्य भी हैं
तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
मैं मुसलमान हूँ !
**********************
[अलीगढ़/1965]
पर उसी देश की मैं भी संतान हूँ
आँख खोली है तुमने जहाँ
तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
ईंट-गारे की दीवारें
'अल्लाहो-अकबर' के नारे लगातीं नहीं
शंख की गूँज हो
या अजानों की आवाज़ हो
घर की दीवारों पर
इनके जादू का होता नहीं कुछ असर
मेरे घर में किताबों के कमरे में
कुरआन के साथ गीता भी रक्खी हुई है
और हदीसों की जिल्दों के पहलू में
वेदान्त के भाष्य भी हैं
तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
मैं मुसलमान हूँ !
**********************
[अलीगढ़/1965]
चुभन /शैलेश ज़ैदी
बूटों की आवाजें सीने में चुभती हैं
'हर हर महादेव' के नारे
संकरी गललियों के सन्नाटे चीर रहे हैं
मन्दिर के घंटे निःस्वर हैं
मस्जिद के आँगन में ईंटों के टुकड़ों का
ढेर लगा है
बस्ती ऊंघ रही है, मरघट जाग रहा है
मैं अपने घर की खिड़की से झाँक रहा हूँ
वहशीपन को अंक रहा हूँ.
क्या शिव की उत्ताल जटा से
फिर कोई गंगा निकलेगी ?
या कोई पैगम्बर आकर
स्नेह भरा उपदेश सुनाएगा
जिस से निद्रा टूटेगी ?
बूटों की आवाजें सीने में चुभती हैं।
[अलीगढ़/ 1968]
लेबल:
समकालीन कविता
शुक्रवार, 22 अगस्त 2008
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएं / अख्तर शीरानी
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएं तो क्या करें
उस बे-वफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें
मुझ को है एतराफ दुआओं में है असर
जाएँ न अर्श पर जो दुआएं तो क्या करें
एक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाज़िल हों रोज़ दिल पे बालाएं तो क्या करें
शब् भर तो उनकी याद में तारे गिना किए
तारे से दिन को भी नज़र आयें तो क्या करें
अहदे-तलब की याद में रोया किए बहोत
अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें
अब जी में है कि उनको भुला कर ही देख लें
वो बार-बार याद जो आयें तो क्या करें
*************************
उस बे-वफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें
मुझ को है एतराफ दुआओं में है असर
जाएँ न अर्श पर जो दुआएं तो क्या करें
एक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाज़िल हों रोज़ दिल पे बालाएं तो क्या करें
शब् भर तो उनकी याद में तारे गिना किए
तारे से दिन को भी नज़र आयें तो क्या करें
अहदे-तलब की याद में रोया किए बहोत
अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें
अब जी में है कि उनको भुला कर ही देख लें
वो बार-बार याद जो आयें तो क्या करें
*************************
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