मेरी बेटी मुडेरों को रौशन दियों से सजाती रही
मेरा बेटा पटाखों की आवाज़ पर
क़ह्क़हों से मुझे गुदगुदाता रहा.
मेरी पत्नी
अनारों के रंगीन फूलों की मुस्कान पर
मुग्ध होती रही
और मेरे पड़ोसी मुसलमान
मुझको
मेरे बच्चों को
मेरी पत्नी को
काफिर समझते रहे
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[अलीगढ़ 1976]
शनिवार, 23 अगस्त 2008
मैं मुसलमान हूँ / शैलेश ज़ैदी
मैं मुसलमान हूँ
पर उसी देश की मैं भी संतान हूँ
आँख खोली है तुमने जहाँ
तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
ईंट-गारे की दीवारें
'अल्लाहो-अकबर' के नारे लगातीं नहीं
शंख की गूँज हो
या अजानों की आवाज़ हो
घर की दीवारों पर
इनके जादू का होता नहीं कुछ असर
मेरे घर में किताबों के कमरे में
कुरआन के साथ गीता भी रक्खी हुई है
और हदीसों की जिल्दों के पहलू में
वेदान्त के भाष्य भी हैं
तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
मैं मुसलमान हूँ !
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[अलीगढ़/1965]
पर उसी देश की मैं भी संतान हूँ
आँख खोली है तुमने जहाँ
तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
ईंट-गारे की दीवारें
'अल्लाहो-अकबर' के नारे लगातीं नहीं
शंख की गूँज हो
या अजानों की आवाज़ हो
घर की दीवारों पर
इनके जादू का होता नहीं कुछ असर
मेरे घर में किताबों के कमरे में
कुरआन के साथ गीता भी रक्खी हुई है
और हदीसों की जिल्दों के पहलू में
वेदान्त के भाष्य भी हैं
तुम मेरा घर जलाने की इच्छा से आए हो
आओ जला दो इसे
मैं मुसलमान हूँ !
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[अलीगढ़/1965]
चुभन /शैलेश ज़ैदी
बूटों की आवाजें सीने में चुभती हैं
'हर हर महादेव' के नारे
संकरी गललियों के सन्नाटे चीर रहे हैं
मन्दिर के घंटे निःस्वर हैं
मस्जिद के आँगन में ईंटों के टुकड़ों का
ढेर लगा है
बस्ती ऊंघ रही है, मरघट जाग रहा है
मैं अपने घर की खिड़की से झाँक रहा हूँ
वहशीपन को अंक रहा हूँ.
क्या शिव की उत्ताल जटा से
फिर कोई गंगा निकलेगी ?
या कोई पैगम्बर आकर
स्नेह भरा उपदेश सुनाएगा
जिस से निद्रा टूटेगी ?
बूटों की आवाजें सीने में चुभती हैं।
[अलीगढ़/ 1968]
लेबल:
समकालीन कविता
शुक्रवार, 22 अगस्त 2008
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएं / अख्तर शीरानी
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएं तो क्या करें
उस बे-वफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें
मुझ को है एतराफ दुआओं में है असर
जाएँ न अर्श पर जो दुआएं तो क्या करें
एक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाज़िल हों रोज़ दिल पे बालाएं तो क्या करें
शब् भर तो उनकी याद में तारे गिना किए
तारे से दिन को भी नज़र आयें तो क्या करें
अहदे-तलब की याद में रोया किए बहोत
अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें
अब जी में है कि उनको भुला कर ही देख लें
वो बार-बार याद जो आयें तो क्या करें
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उस बे-वफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें
मुझ को है एतराफ दुआओं में है असर
जाएँ न अर्श पर जो दुआएं तो क्या करें
एक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाज़िल हों रोज़ दिल पे बालाएं तो क्या करें
शब् भर तो उनकी याद में तारे गिना किए
तारे से दिन को भी नज़र आयें तो क्या करें
अहदे-तलब की याद में रोया किए बहोत
अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें
अब जी में है कि उनको भुला कर ही देख लें
वो बार-बार याद जो आयें तो क्या करें
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लेबल:
ग़ज़ल
ग़मों का बोझ / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
ग़मों का बोझ है दिल पर, उठाता रहता हूँ
मैं राख ख़्वाबों की अक्सर उठाता रहता हूँ
ज़मीं पे बिखरी हैं कितनी हकीक़तें हर सू
उन्हें समझ के मैं गौहर उठाता रहता हूँ
उसे ख़याल न हो कैसे मेरी उल्फ़त का
मैं नाज़ उसके, बराबर उठाता रहता हूँ
शिकायतें मेरे हमराहियों को हैं मुझ से
गिरे-पड़ों को मैं क्योंकर उठाता रहता हूँ
ये जिस्म मिटटी का छोटा सा एक कूज़ा है
मैं इस में सारा समंदर उठाता रहता हूँ
मैं संगबारियों की ज़द में जब भी आता हूँ
मैं संगबारी के पत्थर उठाता रहता हूँ
ये जान कर भी कि हक़-गोई तल्ख़ होती है
नकाब चेहरों से 'जाफ़र' उठाता रहता हूँ
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मैं राख ख़्वाबों की अक्सर उठाता रहता हूँ
ज़मीं पे बिखरी हैं कितनी हकीक़तें हर सू
उन्हें समझ के मैं गौहर उठाता रहता हूँ
उसे ख़याल न हो कैसे मेरी उल्फ़त का
मैं नाज़ उसके, बराबर उठाता रहता हूँ
शिकायतें मेरे हमराहियों को हैं मुझ से
गिरे-पड़ों को मैं क्योंकर उठाता रहता हूँ
ये जिस्म मिटटी का छोटा सा एक कूज़ा है
मैं इस में सारा समंदर उठाता रहता हूँ
मैं संगबारियों की ज़द में जब भी आता हूँ
मैं संगबारी के पत्थर उठाता रहता हूँ
ये जान कर भी कि हक़-गोई तल्ख़ होती है
नकाब चेहरों से 'जाफ़र' उठाता रहता हूँ
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लेबल:
ग़ज़ल
हवाएं गर्म बहोत हैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
हवाएं गर्म बहोत हैं कोई गिला न करो
है मस्लेहत का तक़ाज़ा लबों को वा न करो
फ़िज़ा में फैली है बारूद की महक हर सू
कहीं भी आग नज़र आए तज़करा न करो
न जाने तंग नज़र तुमको क्या समझ बैठें
म'आशरे में नया कोई तज्रबा न करो
न कट सका है कभी खंजरों से हक़ का गला
डरो न ज़ुल्म से, तौहीने-कर्बला न करो
तुम्हें भी लोग समझ लेंगे एक दीवाना
तुम अपने इल्म का इज़हार जा-ब-जा न करो
वो जिनका ज़र्फ़ हो खाली, सदा हो जिनकी बलंद
ये इल्तिजा है कभी उनसे इल्तिजा न करो
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है मस्लेहत का तक़ाज़ा लबों को वा न करो
फ़िज़ा में फैली है बारूद की महक हर सू
कहीं भी आग नज़र आए तज़करा न करो
न जाने तंग नज़र तुमको क्या समझ बैठें
म'आशरे में नया कोई तज्रबा न करो
न कट सका है कभी खंजरों से हक़ का गला
डरो न ज़ुल्म से, तौहीने-कर्बला न करो
तुम्हें भी लोग समझ लेंगे एक दीवाना
तुम अपने इल्म का इज़हार जा-ब-जा न करो
वो जिनका ज़र्फ़ हो खाली, सदा हो जिनकी बलंद
ये इल्तिजा है कभी उनसे इल्तिजा न करो
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लेबल:
ग़ज़ल
बहार /अहमद नदीम क़ासमी
इतनी खुशबू है कि दम घुटता है
अबके यूँ टूट के आई है बहार
आग जलती है कि खिलते हैं चमन
रंग शोला है तो निकहत है शरार
रविशों पर है क़यामत का निखार
जैसे तपता हो जवानी का बदन
आबला बन के टपकती है कली
कोपलें फूट के लौ देती हैं
अबके गुलशन में सबा यूँ भी चली
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अबके यूँ टूट के आई है बहार
आग जलती है कि खिलते हैं चमन
रंग शोला है तो निकहत है शरार
रविशों पर है क़यामत का निखार
जैसे तपता हो जवानी का बदन
आबला बन के टपकती है कली
कोपलें फूट के लौ देती हैं
अबके गुलशन में सबा यूँ भी चली
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लेबल:
नज़्म
नहीं चाहता है / इरफ़ान सिद्दीक़ी
शोलए-इश्क़ बुझाना भी नहीं चाहता है
वो मगर ख़ुद को जलाना भी नहीं चाहता है
उसको मंज़ूर नहीं है मेरी गुमराही भी
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
सैर भी जिस्म के सहरा की खुश आती है मगर
देर तक ख़ाक उड़ाना भी नहीं चाहता है
कैसे उस शख्स से ताबीर पे इसरार करे
जो कोई ख्वाब दिखाना भी नहीं चाहता है
अपने किस काम में आएगा बताता भी नहीं
हमको औरों पे गंवाना भी नहीं चाहता है
मेरे अफ्जों में भी छुपता नहीं पैकर उसका
दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है.
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वो मगर ख़ुद को जलाना भी नहीं चाहता है
उसको मंज़ूर नहीं है मेरी गुमराही भी
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
सैर भी जिस्म के सहरा की खुश आती है मगर
देर तक ख़ाक उड़ाना भी नहीं चाहता है
कैसे उस शख्स से ताबीर पे इसरार करे
जो कोई ख्वाब दिखाना भी नहीं चाहता है
अपने किस काम में आएगा बताता भी नहीं
हमको औरों पे गंवाना भी नहीं चाहता है
मेरे अफ्जों में भी छुपता नहीं पैकर उसका
दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है.
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लेबल:
ग़ज़ल
मेरी आँखें वो आंसू फिर न रो पायीं / जोन एलिया
वो आंसू ही हमारे आख़िरी आंसू थे
जो हम ने गले मिलकर बहाए थे
न जाने वक़्त इन आंखों से फिर किस तौर पेश आया
मगर मेरी फरेबे-वक़्त की बहकी हुई आंखों ने
उसके बाद भी आंसू बहाए हैं
मेरे दिल ने बहोत से दुःख रचाए हैं
मगर यूँ ही
कि माहो-साल की इस रायगानी में
मेरी आँखें
गले मिलते हुए रिश्तों की फुरक़त के वो आंसू
फिर न रो पायीं !!
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जो हम ने गले मिलकर बहाए थे
न जाने वक़्त इन आंखों से फिर किस तौर पेश आया
मगर मेरी फरेबे-वक़्त की बहकी हुई आंखों ने
उसके बाद भी आंसू बहाए हैं
मेरे दिल ने बहोत से दुःख रचाए हैं
मगर यूँ ही
कि माहो-साल की इस रायगानी में
मेरी आँखें
गले मिलते हुए रिश्तों की फुरक़त के वो आंसू
फिर न रो पायीं !!
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लेबल:
नज़्म
समझा नहीं मुझे / उस्मान असलम
वो शख्स पास रह के भी समझा नहीं मुझे
इस बात का मलाल है, शिकवा नहीं मुझे
मैं उसको बे-वफ़ाई का इल्ज़ाम कैसे दूँ
उसने तो इब्तिदा से ही चाहा नहीं मुझे
क्या-क्या उमीदें बाँध के आया था सामने
उसने तो आँख भर के भी देखा नहीं मुझे
पत्थर समझ के पाँव की ठोकर पे रख दिया
अफ़सोस उसकी आँख ने परखा नहीं मुझे
मैं कब गया था सोच के ठहरूंगा उसके पास
अच्छा हुआ कि उसने भी रोका नहीं मुझे
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इस बात का मलाल है, शिकवा नहीं मुझे
मैं उसको बे-वफ़ाई का इल्ज़ाम कैसे दूँ
उसने तो इब्तिदा से ही चाहा नहीं मुझे
क्या-क्या उमीदें बाँध के आया था सामने
उसने तो आँख भर के भी देखा नहीं मुझे
पत्थर समझ के पाँव की ठोकर पे रख दिया
अफ़सोस उसकी आँख ने परखा नहीं मुझे
मैं कब गया था सोच के ठहरूंगा उसके पास
अच्छा हुआ कि उसने भी रोका नहीं मुझे
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ग़ज़ल
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