ग़मों का बोझ है दिल पर, उठाता रहता हूँ
मैं राख ख़्वाबों की अक्सर उठाता रहता हूँ
ज़मीं पे बिखरी हैं कितनी हकीक़तें हर सू
उन्हें समझ के मैं गौहर उठाता रहता हूँ
उसे ख़याल न हो कैसे मेरी उल्फ़त का
मैं नाज़ उसके, बराबर उठाता रहता हूँ
शिकायतें मेरे हमराहियों को हैं मुझ से
गिरे-पड़ों को मैं क्योंकर उठाता रहता हूँ
ये जिस्म मिटटी का छोटा सा एक कूज़ा है
मैं इस में सारा समंदर उठाता रहता हूँ
मैं संगबारियों की ज़द में जब भी आता हूँ
मैं संगबारी के पत्थर उठाता रहता हूँ
ये जान कर भी कि हक़-गोई तल्ख़ होती है
नकाब चेहरों से 'जाफ़र' उठाता रहता हूँ
**************************
शुक्रवार, 22 अगस्त 2008
हवाएं गर्म बहोत हैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
हवाएं गर्म बहोत हैं कोई गिला न करो
है मस्लेहत का तक़ाज़ा लबों को वा न करो
फ़िज़ा में फैली है बारूद की महक हर सू
कहीं भी आग नज़र आए तज़करा न करो
न जाने तंग नज़र तुमको क्या समझ बैठें
म'आशरे में नया कोई तज्रबा न करो
न कट सका है कभी खंजरों से हक़ का गला
डरो न ज़ुल्म से, तौहीने-कर्बला न करो
तुम्हें भी लोग समझ लेंगे एक दीवाना
तुम अपने इल्म का इज़हार जा-ब-जा न करो
वो जिनका ज़र्फ़ हो खाली, सदा हो जिनकी बलंद
ये इल्तिजा है कभी उनसे इल्तिजा न करो
***********************
है मस्लेहत का तक़ाज़ा लबों को वा न करो
फ़िज़ा में फैली है बारूद की महक हर सू
कहीं भी आग नज़र आए तज़करा न करो
न जाने तंग नज़र तुमको क्या समझ बैठें
म'आशरे में नया कोई तज्रबा न करो
न कट सका है कभी खंजरों से हक़ का गला
डरो न ज़ुल्म से, तौहीने-कर्बला न करो
तुम्हें भी लोग समझ लेंगे एक दीवाना
तुम अपने इल्म का इज़हार जा-ब-जा न करो
वो जिनका ज़र्फ़ हो खाली, सदा हो जिनकी बलंद
ये इल्तिजा है कभी उनसे इल्तिजा न करो
***********************
लेबल:
ग़ज़ल
बहार /अहमद नदीम क़ासमी
इतनी खुशबू है कि दम घुटता है
अबके यूँ टूट के आई है बहार
आग जलती है कि खिलते हैं चमन
रंग शोला है तो निकहत है शरार
रविशों पर है क़यामत का निखार
जैसे तपता हो जवानी का बदन
आबला बन के टपकती है कली
कोपलें फूट के लौ देती हैं
अबके गुलशन में सबा यूँ भी चली
*******************
अबके यूँ टूट के आई है बहार
आग जलती है कि खिलते हैं चमन
रंग शोला है तो निकहत है शरार
रविशों पर है क़यामत का निखार
जैसे तपता हो जवानी का बदन
आबला बन के टपकती है कली
कोपलें फूट के लौ देती हैं
अबके गुलशन में सबा यूँ भी चली
*******************
लेबल:
नज़्म
नहीं चाहता है / इरफ़ान सिद्दीक़ी
शोलए-इश्क़ बुझाना भी नहीं चाहता है
वो मगर ख़ुद को जलाना भी नहीं चाहता है
उसको मंज़ूर नहीं है मेरी गुमराही भी
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
सैर भी जिस्म के सहरा की खुश आती है मगर
देर तक ख़ाक उड़ाना भी नहीं चाहता है
कैसे उस शख्स से ताबीर पे इसरार करे
जो कोई ख्वाब दिखाना भी नहीं चाहता है
अपने किस काम में आएगा बताता भी नहीं
हमको औरों पे गंवाना भी नहीं चाहता है
मेरे अफ्जों में भी छुपता नहीं पैकर उसका
दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है.
*******************
वो मगर ख़ुद को जलाना भी नहीं चाहता है
उसको मंज़ूर नहीं है मेरी गुमराही भी
और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है
सैर भी जिस्म के सहरा की खुश आती है मगर
देर तक ख़ाक उड़ाना भी नहीं चाहता है
कैसे उस शख्स से ताबीर पे इसरार करे
जो कोई ख्वाब दिखाना भी नहीं चाहता है
अपने किस काम में आएगा बताता भी नहीं
हमको औरों पे गंवाना भी नहीं चाहता है
मेरे अफ्जों में भी छुपता नहीं पैकर उसका
दिल मगर नाम बताना भी नहीं चाहता है.
*******************
लेबल:
ग़ज़ल
मेरी आँखें वो आंसू फिर न रो पायीं / जोन एलिया
वो आंसू ही हमारे आख़िरी आंसू थे
जो हम ने गले मिलकर बहाए थे
न जाने वक़्त इन आंखों से फिर किस तौर पेश आया
मगर मेरी फरेबे-वक़्त की बहकी हुई आंखों ने
उसके बाद भी आंसू बहाए हैं
मेरे दिल ने बहोत से दुःख रचाए हैं
मगर यूँ ही
कि माहो-साल की इस रायगानी में
मेरी आँखें
गले मिलते हुए रिश्तों की फुरक़त के वो आंसू
फिर न रो पायीं !!
************************
जो हम ने गले मिलकर बहाए थे
न जाने वक़्त इन आंखों से फिर किस तौर पेश आया
मगर मेरी फरेबे-वक़्त की बहकी हुई आंखों ने
उसके बाद भी आंसू बहाए हैं
मेरे दिल ने बहोत से दुःख रचाए हैं
मगर यूँ ही
कि माहो-साल की इस रायगानी में
मेरी आँखें
गले मिलते हुए रिश्तों की फुरक़त के वो आंसू
फिर न रो पायीं !!
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लेबल:
नज़्म
समझा नहीं मुझे / उस्मान असलम
वो शख्स पास रह के भी समझा नहीं मुझे
इस बात का मलाल है, शिकवा नहीं मुझे
मैं उसको बे-वफ़ाई का इल्ज़ाम कैसे दूँ
उसने तो इब्तिदा से ही चाहा नहीं मुझे
क्या-क्या उमीदें बाँध के आया था सामने
उसने तो आँख भर के भी देखा नहीं मुझे
पत्थर समझ के पाँव की ठोकर पे रख दिया
अफ़सोस उसकी आँख ने परखा नहीं मुझे
मैं कब गया था सोच के ठहरूंगा उसके पास
अच्छा हुआ कि उसने भी रोका नहीं मुझे
************************
इस बात का मलाल है, शिकवा नहीं मुझे
मैं उसको बे-वफ़ाई का इल्ज़ाम कैसे दूँ
उसने तो इब्तिदा से ही चाहा नहीं मुझे
क्या-क्या उमीदें बाँध के आया था सामने
उसने तो आँख भर के भी देखा नहीं मुझे
पत्थर समझ के पाँव की ठोकर पे रख दिया
अफ़सोस उसकी आँख ने परखा नहीं मुझे
मैं कब गया था सोच के ठहरूंगा उसके पास
अच्छा हुआ कि उसने भी रोका नहीं मुझे
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लेबल:
ग़ज़ल
गुरुवार, 21 अगस्त 2008
सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 5]
[28]
गुरु बिनु ऐसी कौन करै.
माला तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै..
भव सागर तैं बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै..
सूर स्याम गुरु ऐसो समरथ, छीन मैं लै उधरै..
मुर्शिद बगैर ऐसी इनायत करेगा कौन
माला, तिलक, लिबासे-दिलावेज़ बख्श कर
रखते हैं सर पे छत्र ये रहमत करेगा कौन
दरियाए-इश्के-दुनिया में डूबे अगर कोई
हाथों में दे के दीप हिफाज़त करेगा कौन
मुर्शिद हमारे क़ादिरे-मुतलक़ हैं 'सूर' श्याम
बेडा वो पार करते हैं इक प् में सुब्हो-शाम..
[29]
जा दिन संत पाहुने आवत
तीरथ कोटि समान करै फल, जैसे दरसन पावत..
नयौ नेह दिन-दिन प्रति उनकै, चरन कमल चित लावत..
मन वच कर्म और नहिं जानत, सुमिरत औ सुमिरावत..
मिथ्या वाद उपाधि रहित ह्वै, विमल-विमल जस गावत..
बंधन कर्म कठिन जे पहिले, सौऊ काटि बहावत..
संगत रहैं साधू की अनुदिन, भव-दुःख दूरि नसावत..
'सूरदास' संगति करि तिनकी, जे हरि सुरति करावत..
वली-उल्लाह जिस दिन सूरते-मेहमान आता है.
करोड़ों तीर्थ का फल एक पल में बख्श जाता है.
जगाता है दिलों में ज़िक्रे-हक़ से नित नई उल्फ़त.
अमल से, क़ौल से दिल से, खुदा से लौ लगाता है.
सभी झूठे तिलिस्मों से सदा आज़ाद रहता है.
फ़क़त पाकीज़ा औसाफे-इलाही गुनगुनाता है.
वो सब दुश्वारियां पहले जो सद्दे-राह होती थीं.
उन्हें वो दूर करके जिंदगी आसां बनाता है
ज़रूरी है करें संगत सदा हम पीरे-कामिल की
जहाँ के रंजो-गम दुःख-दर्द सब कुछ वो मिटाता है.
तुझे लाजिम है कर ले 'सूर' संगत ऐसे रहबर की
जो अपने फैज़ से दीदारे-हक़ तुझ को कराता है..
[30]
अब कै राखि लेहु भगवान..
हौं अनाथ बैठ्यो द्रुम डरिया, पारधि साधे बान..
ता कै डर जो भजत चहत मैं, ऊपर ढुक्यो सुचान..
दुहूँ भांति दुःख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान..
सुमिरत ही अहि डस्यो पारधी, कर छूट्यो संधान..
'सूरदास' सर लग्यो सचानहि, जे जे कृपानिधान..
इस मर्तबा बचा लें मुझे आप या खुदा
शाखे-शजर पे बैठा हूँ मैं इक यतीम सा
सैयाद है निशानए-नावक लिए खड़ा
डर से मैं उसके, उड़ने की ख्वाहिश अगर करूँ.
ऊपर है बाज़ ताक में परवाज़ भर रहा
दोनों तरफ़ से मुझ पे मुसीबत है आ पड़ी.
है कौन जो बचाए मेरी जान बरमला
करते ही याद साँप ने सैयाद को डसा.
घबराया ऐसा, हाथ से नावक निकल पड़ा
जाकर वो सीधे बाज़ के सीने में धंस गया..
है 'सूर' सब करम उसी परवरदिगार का..
[31]
रे मन जनम अकारथ खोइसि..
हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि..
निसि दिन फिरत रहत मुंह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि..
गोड़ पसारि परयो दोउ नीकैं, अब कैसी कह होइसि..
काल जमनि सौं आनि बनी है, देखि देखि मुख रोइसि..
'सूर' स्याम बिनु कौन छुडावै, चले जाव भई पोइसि..
ऐ दिल गंवाई तूने अबस अपनी ज़िन्दगी.
बस पेट भर के खाता रहा तू तमाम उम्र
भूले से भी हरी से मुहब्बत कभी न की..
लालच में तू भटकता रहा यूँ ही रात दिन.
तेरे गुरूर ने तेरी खिल्क़त बिगाड़ दी
फैला के दोनों पांवों को गफ़लत में है पड़ा
ख़ुद ही बता कि हो गई हालत ये क्या तेरी..
अब जां पे आ बनी है, तेरे सामने है मौत..
तू देख-देख कर उसे रोता है हर घड़ी..
ऐ 'सूर' मगफिरत है कहाँ श्याम के बगैर..
बस वो ही अब निजात दिलाएं तो हो खुशी.
[32]
जा दिन मन पंछी उडि जैहै...
ता दिन तेरे तन तरुवर के, सबै पात झाड़ जैहै..
घर के कहें बेग ही काढौ, भूत भए कोउ खैहै..
जा प्रीतम सों प्रीति घनेरी, सोऊ देखि डरैहै ..
कहँ वह ताल कहाँ वह सोभा, देखत धूरि उडैहै..
भाई-बन्धु अरु कुटुंब कबीला, सुमिरि सुमिरि पछितैहै..
बिनु गोपाल कोउ नहिं अपनों, जस अपजस रह जैहै..
सो सुख 'सूर' जो दुर्लभ देवन, सत संगति में पैहै..
जिस घड़ी तायरे-अनफास करेगा परवाज़
पत्ता-पत्ता शजरे-जिस्म का झड़ जायेगा
घर के लोगों का बयाँ होगा कि ले जाओ शिताब
बन के शैतान किसी को ये निगल जायेगा..
दिलरुबा जान के रखता था जिसे जां से अज़ीज़
देख कर वो भी तुझे खौफ से थर्रायेगा
न तो होंगे वो तमाशे न वो जलवे होंगे.
हर तरफ़ एक गुबार उड़ता नज़र आएगा
भाई-बंद और तेरा कुनबा-क़बीला हर दम
याद कर कर के तुझे खूब ही पछतायेगा
सिर्फ़ गोपाल ही अपने हैं, पराये हैं सभी
बाक़ी रह जायेगी इस दुनिया में नेकीओ-बदी
देवताओं को मयस्सर नहीं जो कैफों-सुरूर.
सोहबते-नेक में ऐ 'सूर' उसे पायेगा.
[33]
अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल..
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल. .
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सब्द रसाल..
भरम भरयो मन भयो पखावज, चलत कुसंगत चाल..
तृष्ना नाद करत घट भीतर, नाना विधि दै ताल..
माया कौ करि फेंटा बाँध्यौ, लोभ तिलक दियो भाल..
कोटिक कला कांछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल..
'सूरदास' की सबै अबिद्या, दूर करहु नंदलाल..
अब बहोत नाच चुका मैं गोपाल..
ख्वाहिशे-नफस वो गुस्से का है चोगा तन पर
है गले में हविसे-दुनिया की तस्बीहे-ज़वाल
हिर्स घुँघरू की तरह बजता है, गीबत है मिठास
क़ल्ब है वह्म से लबरेज़ पखावज की मिसाल
चलता रहता है जो बेमेल सी बेकार सी चाल
जिस्म में गूंजती रहती है तमा की आवाज़..
मुख्तलिफ तरह से देती हुई बदरंग सी ताल..
पारचा जहल का बांधे हूँ कमर में कस कर..
और पेशानी पे लालच के तिलक का है गुलाल..
स्वांग सौ तर्ह के भरता हूँ मैं दुनिया के लिए.
गुम हूँ इस तर्ह कि होती नहीं कुछ फ़िक्रे-विसाल..
'सूरदास' आपका है कैदे-जहालत में असीर.
कीजे आज़ाद उसे अपने करम से नंदलाल .
[34]
तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान..
छूटि गए कैसे जन जीवत, ज्यों पानी बिन प्रान..
जैसे मगन नाद सुनि नारंग, बधत बधिक तनु बान..
ज्यों चितवै शशि और चकोरी, देखत ही सुख मान..
जैसे कमल होत परिफुल्लित, देखत दर्शन भान..
'सूरदास' प्रभु हरि गुन मीठे, नित प्रति सुनियत कान..
आपकी भक्ती हमारी जिंदगी.
जां-बलब है आप से छुट कर जहाँ में हर कोई.
सुन के बाजे की सदा मस्ती में आता है हिरन
छेदता है तीर से सैयाद उसका जिस्मो-तन.
देख कर महताब को होता है खुश जैसे चकोर.
जैसे खिलता है कँवल पाकर झलक खुर्शीद की..
'सूरदास' औसाफे-शीरीं हरि के सुनने के लिए .
गोश बार आवाज़ हो जाते हैं रोज़ाना सभी
[35]
जो सुख होत गुपालहिं गाये.
सो नहीं होत जप तप के कीने, कोटिक तीरथ न्हाए..
दिये लेत नहिं चारि पदारथ, चरन कमल चित लाये..
तीन लोक तृन सम करी लेखात, नन्द नंदन उर आए..
बंशी-बट, बृंदाबन यमुना, तजि बैकुंठ को जाए..
'सूरदास' हरि को सुमिरन करि, बहुरि न भव चलि आए..
खुशी होती है जो गोपाल की मद्हो-सना गा कर.
मयस्सर हो नहीं सकती वो जप-तप की रियाज़त में..
जियारत-गाहों पर जा जा के हौजों में नहा कर..
कमल जैसे मुक़द्दस पाँव की उलफत हो गर दिल में..
बशर कौनैन की दौलत को भी तिनका समझता है..
कोई नेमत कभी लेने पे आमादा नहीं होता
भुला कर ब्रिन्दाबन को प्यारी जमना और मुरली को
करेगा क्या भला कोई वहां फिरदौ में जा कर
हरी का ज़िक्रे-पाकीज़ा किया कर 'सूर' तू दिल से
कि फिर वापस तुझे आना न हो दुनिया के अन्दर
************************** क्रमशः
गुरु बिनु ऐसी कौन करै.
माला तिलक मनोहर बाना, लै सिर छत्र धरै..
भव सागर तैं बूड़त राखै, दीपक हाथ धरै..
सूर स्याम गुरु ऐसो समरथ, छीन मैं लै उधरै..
मुर्शिद बगैर ऐसी इनायत करेगा कौन
माला, तिलक, लिबासे-दिलावेज़ बख्श कर
रखते हैं सर पे छत्र ये रहमत करेगा कौन
दरियाए-इश्के-दुनिया में डूबे अगर कोई
हाथों में दे के दीप हिफाज़त करेगा कौन
मुर्शिद हमारे क़ादिरे-मुतलक़ हैं 'सूर' श्याम
बेडा वो पार करते हैं इक प् में सुब्हो-शाम..
[29]
जा दिन संत पाहुने आवत
तीरथ कोटि समान करै फल, जैसे दरसन पावत..
नयौ नेह दिन-दिन प्रति उनकै, चरन कमल चित लावत..
मन वच कर्म और नहिं जानत, सुमिरत औ सुमिरावत..
मिथ्या वाद उपाधि रहित ह्वै, विमल-विमल जस गावत..
बंधन कर्म कठिन जे पहिले, सौऊ काटि बहावत..
संगत रहैं साधू की अनुदिन, भव-दुःख दूरि नसावत..
'सूरदास' संगति करि तिनकी, जे हरि सुरति करावत..
वली-उल्लाह जिस दिन सूरते-मेहमान आता है.
करोड़ों तीर्थ का फल एक पल में बख्श जाता है.
जगाता है दिलों में ज़िक्रे-हक़ से नित नई उल्फ़त.
अमल से, क़ौल से दिल से, खुदा से लौ लगाता है.
सभी झूठे तिलिस्मों से सदा आज़ाद रहता है.
फ़क़त पाकीज़ा औसाफे-इलाही गुनगुनाता है.
वो सब दुश्वारियां पहले जो सद्दे-राह होती थीं.
उन्हें वो दूर करके जिंदगी आसां बनाता है
ज़रूरी है करें संगत सदा हम पीरे-कामिल की
जहाँ के रंजो-गम दुःख-दर्द सब कुछ वो मिटाता है.
तुझे लाजिम है कर ले 'सूर' संगत ऐसे रहबर की
जो अपने फैज़ से दीदारे-हक़ तुझ को कराता है..
[30]
अब कै राखि लेहु भगवान..
हौं अनाथ बैठ्यो द्रुम डरिया, पारधि साधे बान..
ता कै डर जो भजत चहत मैं, ऊपर ढुक्यो सुचान..
दुहूँ भांति दुःख भयौ आनि यह, कौन उबारे प्रान..
सुमिरत ही अहि डस्यो पारधी, कर छूट्यो संधान..
'सूरदास' सर लग्यो सचानहि, जे जे कृपानिधान..
इस मर्तबा बचा लें मुझे आप या खुदा
शाखे-शजर पे बैठा हूँ मैं इक यतीम सा
सैयाद है निशानए-नावक लिए खड़ा
डर से मैं उसके, उड़ने की ख्वाहिश अगर करूँ.
ऊपर है बाज़ ताक में परवाज़ भर रहा
दोनों तरफ़ से मुझ पे मुसीबत है आ पड़ी.
है कौन जो बचाए मेरी जान बरमला
करते ही याद साँप ने सैयाद को डसा.
घबराया ऐसा, हाथ से नावक निकल पड़ा
जाकर वो सीधे बाज़ के सीने में धंस गया..
है 'सूर' सब करम उसी परवरदिगार का..
[31]
रे मन जनम अकारथ खोइसि..
हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि..
निसि दिन फिरत रहत मुंह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि..
गोड़ पसारि परयो दोउ नीकैं, अब कैसी कह होइसि..
काल जमनि सौं आनि बनी है, देखि देखि मुख रोइसि..
'सूर' स्याम बिनु कौन छुडावै, चले जाव भई पोइसि..
ऐ दिल गंवाई तूने अबस अपनी ज़िन्दगी.
बस पेट भर के खाता रहा तू तमाम उम्र
भूले से भी हरी से मुहब्बत कभी न की..
लालच में तू भटकता रहा यूँ ही रात दिन.
तेरे गुरूर ने तेरी खिल्क़त बिगाड़ दी
फैला के दोनों पांवों को गफ़लत में है पड़ा
ख़ुद ही बता कि हो गई हालत ये क्या तेरी..
अब जां पे आ बनी है, तेरे सामने है मौत..
तू देख-देख कर उसे रोता है हर घड़ी..
ऐ 'सूर' मगफिरत है कहाँ श्याम के बगैर..
बस वो ही अब निजात दिलाएं तो हो खुशी.
[32]
जा दिन मन पंछी उडि जैहै...
ता दिन तेरे तन तरुवर के, सबै पात झाड़ जैहै..
घर के कहें बेग ही काढौ, भूत भए कोउ खैहै..
जा प्रीतम सों प्रीति घनेरी, सोऊ देखि डरैहै ..
कहँ वह ताल कहाँ वह सोभा, देखत धूरि उडैहै..
भाई-बन्धु अरु कुटुंब कबीला, सुमिरि सुमिरि पछितैहै..
बिनु गोपाल कोउ नहिं अपनों, जस अपजस रह जैहै..
सो सुख 'सूर' जो दुर्लभ देवन, सत संगति में पैहै..
जिस घड़ी तायरे-अनफास करेगा परवाज़
पत्ता-पत्ता शजरे-जिस्म का झड़ जायेगा
घर के लोगों का बयाँ होगा कि ले जाओ शिताब
बन के शैतान किसी को ये निगल जायेगा..
दिलरुबा जान के रखता था जिसे जां से अज़ीज़
देख कर वो भी तुझे खौफ से थर्रायेगा
न तो होंगे वो तमाशे न वो जलवे होंगे.
हर तरफ़ एक गुबार उड़ता नज़र आएगा
भाई-बंद और तेरा कुनबा-क़बीला हर दम
याद कर कर के तुझे खूब ही पछतायेगा
सिर्फ़ गोपाल ही अपने हैं, पराये हैं सभी
बाक़ी रह जायेगी इस दुनिया में नेकीओ-बदी
देवताओं को मयस्सर नहीं जो कैफों-सुरूर.
सोहबते-नेक में ऐ 'सूर' उसे पायेगा.
[33]
अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल..
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल. .
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सब्द रसाल..
भरम भरयो मन भयो पखावज, चलत कुसंगत चाल..
तृष्ना नाद करत घट भीतर, नाना विधि दै ताल..
माया कौ करि फेंटा बाँध्यौ, लोभ तिलक दियो भाल..
कोटिक कला कांछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल..
'सूरदास' की सबै अबिद्या, दूर करहु नंदलाल..
अब बहोत नाच चुका मैं गोपाल..
ख्वाहिशे-नफस वो गुस्से का है चोगा तन पर
है गले में हविसे-दुनिया की तस्बीहे-ज़वाल
हिर्स घुँघरू की तरह बजता है, गीबत है मिठास
क़ल्ब है वह्म से लबरेज़ पखावज की मिसाल
चलता रहता है जो बेमेल सी बेकार सी चाल
जिस्म में गूंजती रहती है तमा की आवाज़..
मुख्तलिफ तरह से देती हुई बदरंग सी ताल..
पारचा जहल का बांधे हूँ कमर में कस कर..
और पेशानी पे लालच के तिलक का है गुलाल..
स्वांग सौ तर्ह के भरता हूँ मैं दुनिया के लिए.
गुम हूँ इस तर्ह कि होती नहीं कुछ फ़िक्रे-विसाल..
'सूरदास' आपका है कैदे-जहालत में असीर.
कीजे आज़ाद उसे अपने करम से नंदलाल .
[34]
तुम्हारी भक्ति हमारे प्रान..
छूटि गए कैसे जन जीवत, ज्यों पानी बिन प्रान..
जैसे मगन नाद सुनि नारंग, बधत बधिक तनु बान..
ज्यों चितवै शशि और चकोरी, देखत ही सुख मान..
जैसे कमल होत परिफुल्लित, देखत दर्शन भान..
'सूरदास' प्रभु हरि गुन मीठे, नित प्रति सुनियत कान..
आपकी भक्ती हमारी जिंदगी.
जां-बलब है आप से छुट कर जहाँ में हर कोई.
सुन के बाजे की सदा मस्ती में आता है हिरन
छेदता है तीर से सैयाद उसका जिस्मो-तन.
देख कर महताब को होता है खुश जैसे चकोर.
जैसे खिलता है कँवल पाकर झलक खुर्शीद की..
'सूरदास' औसाफे-शीरीं हरि के सुनने के लिए .
गोश बार आवाज़ हो जाते हैं रोज़ाना सभी
[35]
जो सुख होत गुपालहिं गाये.
सो नहीं होत जप तप के कीने, कोटिक तीरथ न्हाए..
दिये लेत नहिं चारि पदारथ, चरन कमल चित लाये..
तीन लोक तृन सम करी लेखात, नन्द नंदन उर आए..
बंशी-बट, बृंदाबन यमुना, तजि बैकुंठ को जाए..
'सूरदास' हरि को सुमिरन करि, बहुरि न भव चलि आए..
खुशी होती है जो गोपाल की मद्हो-सना गा कर.
मयस्सर हो नहीं सकती वो जप-तप की रियाज़त में..
जियारत-गाहों पर जा जा के हौजों में नहा कर..
कमल जैसे मुक़द्दस पाँव की उलफत हो गर दिल में..
बशर कौनैन की दौलत को भी तिनका समझता है..
कोई नेमत कभी लेने पे आमादा नहीं होता
भुला कर ब्रिन्दाबन को प्यारी जमना और मुरली को
करेगा क्या भला कोई वहां फिरदौ में जा कर
हरी का ज़िक्रे-पाकीज़ा किया कर 'सूर' तू दिल से
कि फिर वापस तुझे आना न हो दुनिया के अन्दर
************************** क्रमशः
ड्रग स्टोर / बलराज कोमल
अगर मैं जिस्म हूँ तो सर से पाँव तक मैं जिस्म हूँ
अगर मैं रूह हूँ तो फिर तमाम तर मैं रूह हूँ
खुदा से मेरा सिलसिला वही है जो सबा से है
अगर मैं सब्ज़ पेड़ हूँ
तो रूह और जिस्म की
वो कौन सी हदें हैं फासलों में जो बदल गयीं
ज़मीन मेरी कौन है ?
चमकता, नीलगूं, हसीन आसमान कौन है ?
जो बर्गे-गुल में धीरे-धीरे जज़्ब हो रही है धूप
ज़र्द धूप क्यों मुझे अज़ीज़ है ?
ये सोचता हूँ सब मगर मैं ताक़चों में बंद हूँ
मैं नाम कोई ढूँढता हूँ आज अपने करब का
तलाश कर रहा हूँ एक पल
क़तार-दर-क़तार शीशियों के इस हुजूम में
वो आसमान क्या हुआ ? वो सब्ज़ पेड़ क्या हुआ ?
जिगर में आग थी मगर सफूफ बन गया
जो सुर्ख था लहू कभी सपेद बन गया
मैं बोटियों में कट गया
मैं धज्जियों में नुच गया
यहाँ पे मेरी रोशनी, यहाँ पे मेरी ज़िन्दगी
सपेद,सुर्ख, ज़र्द, नीलगूं, सियाह लेबिलों में बट गई
सबा की रहगुज़र से दूर हट गई.
**********************************
अगर मैं रूह हूँ तो फिर तमाम तर मैं रूह हूँ
खुदा से मेरा सिलसिला वही है जो सबा से है
अगर मैं सब्ज़ पेड़ हूँ
तो रूह और जिस्म की
वो कौन सी हदें हैं फासलों में जो बदल गयीं
ज़मीन मेरी कौन है ?
चमकता, नीलगूं, हसीन आसमान कौन है ?
जो बर्गे-गुल में धीरे-धीरे जज़्ब हो रही है धूप
ज़र्द धूप क्यों मुझे अज़ीज़ है ?
ये सोचता हूँ सब मगर मैं ताक़चों में बंद हूँ
मैं नाम कोई ढूँढता हूँ आज अपने करब का
तलाश कर रहा हूँ एक पल
क़तार-दर-क़तार शीशियों के इस हुजूम में
वो आसमान क्या हुआ ? वो सब्ज़ पेड़ क्या हुआ ?
जिगर में आग थी मगर सफूफ बन गया
जो सुर्ख था लहू कभी सपेद बन गया
मैं बोटियों में कट गया
मैं धज्जियों में नुच गया
यहाँ पे मेरी रोशनी, यहाँ पे मेरी ज़िन्दगी
सपेद,सुर्ख, ज़र्द, नीलगूं, सियाह लेबिलों में बट गई
सबा की रहगुज़र से दूर हट गई.
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लेबल:
नज़्म
बुधवार, 20 अगस्त 2008
ताज़ा ग़ज़लें / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
[1]
शिकवए-गर्दिशे-हालात सभी करते हैं
ज़िन्दगी तुझसे सवालात सभी करते हैं.
सामने आते हैं जब करते हैं तारीफ़ मेरी
मसलेहत से ये इनायात सभी करते हैं
हक के इज़हार में होता है तकल्लुफ सब को
वैसे आपस में शिकायात सभी करते हैं
उस से मिलते हैं तो खामोश से हो जाते हैं
उस से मिलने की मगर बात सभी करते हैं
कह दिया उसने अगर कुछ तो है खफगी कैसी
ऐसी बातें यहाँ दिन रात सभी करते हैं
हर कोई फिरका-परस्ती में मुलव्विस तो नहीं
कैसे कह दूँ कि फ़सादात सभी करते हैं
तुमने 'जाफ़र' उसे चाहा तो बुराई क्या है
हुस्न की उसके मुनाजात सभी करते हैं
[2]
इतनी वीरान मेरे दिल की ये धरती क्यों है
ज़िन्दगी इसमें क़दम रखने से डरती क्यों है
एक तन्हा मैं बगावत की अलामत तो नहीं
ज़ह्न में फिर मेरी तस्वीर उभरती क्यों है
मेरी नज़रों से परे रहती है बरबाद हयात
सामने आती है मेरे तो संवरती क्यों है
रात औरों के घरों से तो चली जाती है
मेरे घर आती है जब भी तो ठहरती क्यों है
चाँद से मांग के शफ्फाफ सी किरनों का लिबास
चाँदनी छत पे दबे पाँव उतरती क्यों है
तुम जो हर सुब्ह सजा लेते हो ख़्वाबों की लड़ी
रोज़ 'जाफ़र' ये सरे-शाम बिखरती क्यों है
[3]
उसे हैरत है मैं जिंदा भी हूँ और खुश भी हूँ कैसे
ख़मोशी ही मेरे हक़ में है बेहतर, कुछ कहूँ कैसे
कहा था उसने हक़ गोई से अपनी बाज़ आ जाओ
कहा था मैं ने मैं पत्थर को हीरा मान लूँ कैसे
कहा उसने किसी मौक़े पे झुक जाना भी पड़ता है
कहा मैं ने कि सच्चाई को देखूं सर-नुगूं कैसे
कहा उसने कि चुप रह जाओ कोई कुछ भी कहता हो
कहा मैं ने कि मैं इंसान हूँ पत्थर बनूँ कैसे
कहा उसने कि तुम दुश्मन बना लेते हो दुनिया को
कहा मैं ने कि दुनिया की तरह मैं भी चलूँ कैसे
कहा उसने कि अपनों और बेगानों को पहचानो
कहा मैं ने कि इन लफ्ज़ों में ये मानी भरूं कैसे
मुझे 'जाफ़र रज़ा' फिर भी वो अपना दोस्त कहता है
इनायत उसकी मुझ पर इतनी ज़्यादा है गिनूं कैसे
*************************
शिकवए-गर्दिशे-हालात सभी करते हैं
ज़िन्दगी तुझसे सवालात सभी करते हैं.
सामने आते हैं जब करते हैं तारीफ़ मेरी
मसलेहत से ये इनायात सभी करते हैं
हक के इज़हार में होता है तकल्लुफ सब को
वैसे आपस में शिकायात सभी करते हैं
उस से मिलते हैं तो खामोश से हो जाते हैं
उस से मिलने की मगर बात सभी करते हैं
कह दिया उसने अगर कुछ तो है खफगी कैसी
ऐसी बातें यहाँ दिन रात सभी करते हैं
हर कोई फिरका-परस्ती में मुलव्विस तो नहीं
कैसे कह दूँ कि फ़सादात सभी करते हैं
तुमने 'जाफ़र' उसे चाहा तो बुराई क्या है
हुस्न की उसके मुनाजात सभी करते हैं
[2]
इतनी वीरान मेरे दिल की ये धरती क्यों है
ज़िन्दगी इसमें क़दम रखने से डरती क्यों है
एक तन्हा मैं बगावत की अलामत तो नहीं
ज़ह्न में फिर मेरी तस्वीर उभरती क्यों है
मेरी नज़रों से परे रहती है बरबाद हयात
सामने आती है मेरे तो संवरती क्यों है
रात औरों के घरों से तो चली जाती है
मेरे घर आती है जब भी तो ठहरती क्यों है
चाँद से मांग के शफ्फाफ सी किरनों का लिबास
चाँदनी छत पे दबे पाँव उतरती क्यों है
तुम जो हर सुब्ह सजा लेते हो ख़्वाबों की लड़ी
रोज़ 'जाफ़र' ये सरे-शाम बिखरती क्यों है
[3]
उसे हैरत है मैं जिंदा भी हूँ और खुश भी हूँ कैसे
ख़मोशी ही मेरे हक़ में है बेहतर, कुछ कहूँ कैसे
कहा था उसने हक़ गोई से अपनी बाज़ आ जाओ
कहा था मैं ने मैं पत्थर को हीरा मान लूँ कैसे
कहा उसने किसी मौक़े पे झुक जाना भी पड़ता है
कहा मैं ने कि सच्चाई को देखूं सर-नुगूं कैसे
कहा उसने कि चुप रह जाओ कोई कुछ भी कहता हो
कहा मैं ने कि मैं इंसान हूँ पत्थर बनूँ कैसे
कहा उसने कि तुम दुश्मन बना लेते हो दुनिया को
कहा मैं ने कि दुनिया की तरह मैं भी चलूँ कैसे
कहा उसने कि अपनों और बेगानों को पहचानो
कहा मैं ने कि इन लफ्ज़ों में ये मानी भरूं कैसे
मुझे 'जाफ़र रज़ा' फिर भी वो अपना दोस्त कहता है
इनायत उसकी मुझ पर इतनी ज़्यादा है गिनूं कैसे
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लेबल:
ग़ज़ल
मक़बूल ग़ज़लें / अहमद फ़राज़
[1]
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस किस से बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है तो ज़माने के लिए आ
कुछ तो मेरे पिन्दारे-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ
इक उम्र से हूँ लज़्ज़ते-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहते-जां मुझ को रुलाने के लिए आ
अब तक दिले-खुश-फ़ह्म को तुझ से हैं उमीदें
ये आखिरी शमएं भी बुझाने के लिए आ
[2]
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते
शिकवए-ज़ुल्मते-शब् से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते
इतना आसां था तेरे हिज्र में मरना जानां
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
उसकी वो जाने उसे पासे-वफ़ा था कि न था
तुम फ़राज़ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते
[3]
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शह्र में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आपको बरबाद कर के देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्मे-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेरो-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बामे-फलक से उतर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है उसकी सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमा-फरोश आँख भर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी, जलवे इधर के देखते हैं
कहानियां ही सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
****************
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस किस से बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है तो ज़माने के लिए आ
कुछ तो मेरे पिन्दारे-मुहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ
इक उम्र से हूँ लज़्ज़ते-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहते-जां मुझ को रुलाने के लिए आ
अब तक दिले-खुश-फ़ह्म को तुझ से हैं उमीदें
ये आखिरी शमएं भी बुझाने के लिए आ
[2]
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते
वरना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते
शिकवए-ज़ुल्मते-शब् से तो कहीं बेहतर था
अपने हिस्से की कोई शमअ जलाते जाते
इतना आसां था तेरे हिज्र में मरना जानां
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते
उसकी वो जाने उसे पासे-वफ़ा था कि न था
तुम फ़राज़ अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते
[3]
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शह्र में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आपको बरबाद कर के देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्मे-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उसको भी है शेरो-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बामे-फलक से उतर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है उसकी सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमा-फरोश आँख भर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
कि फूल अपनी क़बाएं कतर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी, जलवे इधर के देखते हैं
कहानियां ही सही सब मुबालगे ही सही
अगर वो ख्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
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