बुधवार, 30 जुलाई 2008

वक़्त के हाथ बहोत लंबे हैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

चाँद सितारों की मईयत को
सूरज के ताबूत में रख कर
शाम के सूने कब्रिस्तान में गाड़ आते हैं
वक़्त के हाथ बहोत लंबे हैं
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तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं / जावेद अख़तर

मैं भूल जाऊं तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो, कोई ख्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ कमबख्त
भुला सका न ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़याल जो आवाज़ तक गया ही नही
वो एक बात जो मैं कह नहीं सका तुम से
वो एक रब्त जो हम में कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब जो कभी हुआ ही नहीं
अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए
तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो कोई ख्वाब नहीं
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वज़ीर आगा की एक ग़ज़ल

सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं
कहाँ से लाऊं वो झोंका जो मेरे पास नहीं
पिघल चुका हूँ तमाज़त में आफताब की मैं
मेरा वुजूद भी अब मेरे आस-पास नहीं
मेरे नसीब में कब थी बरहनगी अपनी
मिली वो मुझको तमन्ना कि बे-लिबास नहीं
किधर से उतरे कहाँ आके तुझ से मिल जाए
अभी नदी के चलन से तू रू-शनास नहीं
खुला पड़ा है समंदर किताब की सूरत
वही पढ़े इसे आकर जो ना-शनास नहीं
लहू के साथ गई तन-बदन की सब चहकार
चुभन सबा में नहीं है कली में बॉस नहीं
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शआरे-वफ़ा / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

सरे-रहगुज़र मुझको कीलों से जड़ दो
पिन्हाकर मुझे
पाँव में आहनी बेड़ियाँ क़ैद कर लो
पिलाओ मुझे
अपने सफ्फाको-बे-रहम हाथों से
ज़ह्रे-हलाहल
अज़ीयत मुझे चाहे जितनी भी पहोंचाओ
थक-हार कर बैठ जाओगे इक दिन
कि मैं आशनाए -शआरे-वफ़ा हूँ।
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तू मुझे इतने प्यार से मत देख / अली सरदार जाफ़री

तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साए में
धूप भी चांदनी सी लगती है
और मुझे कितनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पाँव के छाले
यूँ दमकते हैं जैसे अंगारे
प्यार की ये नज़र रहे न रहे
कौन दश्ते-वफ़ा में जाता है
तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे
तू मुझे इतने प्यार से मत देख
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फ़राग़त / बलराज कोमल

यूँ तेरी निगाहों से गिला कुछ भी नहीं था
इस दिल ने तो बेकार यूँ ही बैठे-बिठाए
वीरानिए-लम्हात को बहलाने की ख़ातिर
अफ़साने गढे, बातें बनायी थीं हज़ारों
ये इश्क का अफसाना जो फिर छेड़ा है तू ने
बेकार है अब वक़्त कहाँ उसको सुनूँ मैं
जब तुमको फ़रागत न थी, अब मुझ को नहीं है।
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आवारा सज्दे / कैफी आज़मी

इक यही सोज़े-निहां कुल मेरा सरमाया है
दोस्तों मैं किसे ये सोजे-निहां नज़्र करूँ
कोई क़ातिल सरे-मक़तल नज़र आता ही नहीं
किसको दिल नज़्र करूँ और किसे जां नज़्र करूँ

तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझसे मगर तुम भी नहीं, तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहा नफसी चारागरी
महरमे-दर्दे-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं

अपनी लाश आप उठाना कोई आसन नहीं
दस्तो-बाजू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी देहलीज़
आज सज्दे वही आवारा हुए जाते हैं

दूर मंजिल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती
दार तक एके गया शौके-शहादत मुझ को

राह में टूट गया पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा राहनुमा कोई नहीं
एक के बाद खुदा एक चला आता था
कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं
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मंगलवार, 29 जुलाई 2008

परवेज़ फ़ातिमा की एक ग़ज़ल

उदास, सहमे हुए लोग, खामुशी हर सू
सदाएं सुनती हूँ क्यों आज मौत की हर सू
तड़पते ख्वाबों की उरियां-बदन इबारत से
सदाए-मर्सिया मिलती है गूंजती हर सू
चुभो के खंजरे-नफ़रत की नोक सीनों में
बरहना नाच रही है दरिंदगी हर सू
हमारे ख्वाब भी महफूज़ रह न पायेंगे
कि हमने ख़्वाबों की ताबीर देख ली हर सू
कहा किसी ने कि इस शहर से चली जाओ
यहाँ मिलेगी तुम्हें सिर्फ़ बेकली हर सू
समझ में कुछ नहीं आता मैं क्या करूँ 'परवेज़'
लगा रही है मुझे ज़ख्म, बेहिसी हर सू
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सोमवार, 28 जुलाई 2008

धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?/ मिश्कात आबिदी

बताये कोई लोग क्यों सो रहे हैं
ये बेचारगी किस लिए ढो रहे हैं
पड़ोसी को बस कोस कर रो रहे हैं
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

हुआ क्या जो इस दर्जा मजबूर हैं हम
क़दम क्यों उठाने से माजूर हैं हम
हकीकत से क्यों इस कदर दूर हैं हम
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

कहाँ से हैं आते ये जानों के दुश्मन
अमन शांती के तरानों के दुश्मन
हैं क्यों ये हमारे ठिकानों के दुश्मन
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

हुकूमत ने होंटों को सी क्यों लिया है
तकल्लुफ का आख़िर ये क्यों सिलसिला है
सही बात कहने में खतरा ही क्या है
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

तबाही का ये दौर कब तक चलेगा
इसी तर्ह क्या खून बहता रहेगा
या कोई कभी खुल के भी कुछ कहेगा
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

ज़रा जा के दहशत-पनाहों से पूछो
तशद्दुद-पसंदी के शाहों से पूछो
गला थाम कर कम-निगाहों से पूछो
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

ये उजड़े हुए घर ये जिस्मों के टुकड़े
कभी थे जो माँओं की आंखों के टुकड़े
हुए बेखता, बेगुनाहों के टुकड़े
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

हैं कातिल मेरे मुल्क के राहबर भी
जो करते नहीं कुछ, ये सब देख कर भी
कभी दहशतें पहोंचेंगी उनके घर भी
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?
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नोशी गीलानी की ग़ज़लें

[ 1 ]
महताब रुतें आयें, तो क्या-क्या नहीं करतीं
इस उम्र में तो लड़कियां सोया नहीं करतीं
किस्मत जिन्हें का दे शबे-ज़ुल्मत के हवाले
आँचल वो किसी नाम का ओढा नहीं करतीं
कुछ लड़कियां अंजामे-नज़र होते हुए भी
जब घर से निकलती हैं तो सोचा नहीं करतीं
यां प्यास का इज़हार मलामत है गुनह है,
फूलों से कभी तितलियाँ पूछा नहीं करतीं
जो लड़कियां तारीक मुक़द्दर हों, कभी भी
रातों को दिए घर में जलाया नहीं करतीं.
[ 2 ]
तुमने तो कह दिया कि मुहब्बत नहीं मिली
मुझको तो ये भी कहने की मुहलत नहीं मिली
नींदों के देस जाते, कोई ख्वाब देखते
लेकिन दिया जलने से फुर्सत नहीं मिली
तुझको तो खैर शहर के लोगों का खौफ था
मुझको ख़ुद अपने घर से इजाज़त नहीं मिली
बेजार यूँ हुए कि तेरे उह्द में हमें
सब कुछ मिला सुकून की दौलत नहीं मिली
[ 3 ]
कोई मुझको मेरा भरपूर सरापा लादे.
मेरे बाजू, मेरी आँखें, मेरा चेहरा लादे
कुछ नहीं चाहिए तुझ से ऐ मेरी उम्रे-रवां
मेरा बचपन, मेरे जुगनू, मेरी गुडिया लादे.
जिसकी आँखें मुझे अन्दर से भी पढ़ सकती हों
कोई चेहरा तू मेरे शह्र में ऐसा लादे
कश्तीए-जां तो भंवर में है कई बरसों से
या खुदा अब तू डुबो दे या किनारा लादे
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