रविवार, 18 अप्रैल 2010

रात की आँखें बेहद नम थीं

रात की आँखें बेहद नम थीं।
वो भी शायद शामिले-ग़म थीं ॥

सूरज कुछ ज़र्दी माएल था,
किरनों की पेशानियाँ ख़म थीं॥

दरिया की तूफ़ानी लहरें,
तल्ख़िए-साहिल से बरहम थीं॥

सुस्त पड़ी थीं तेज़ हवाएं,
बून्दें बारिश की मद्धम थीं॥

फूल सभी मुरझाए हुए थे,
तितलियां सब मह्वे-मातम थीं॥

ज़ुल्मो-तशद्दुद जाग रहा था,
राहत की उम्मीदें कम थीं॥
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4 टिप्‍पणियां:

  1. फूल सभी मुरझाए हुए थे,
    तितलियां सब मह्वे-मातम थीं॥

    ज़ुल्मो-तशद्दुद जाग रहा था,
    राहत की उम्मीदें कम थीं॥


    bahut khub



    shekhar kumawat


    http://kavyawani.blogspot.com

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  2. ज़ुल्मो-तशद्दुद जाग रहा था,राहत की उम्मीदें कम थीं॥********

    अच्छी रचना

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  3. Itani sundar gazal ki gungunane ko ji chah raha hai :)
    Bahut bahut pasand aai!
    Shukriya

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