सुलाने के लिए तारों भरी रातें नहीं आतीं.
मुझे वातानुकूलित कक्ष में नींदें नहीं आतीं.
न जाने कब से सूखे हैं हमारे गाँव के पोखर,
नहाने अब वहां चांदी की पाज़ेबें नहीं आतीं.
कोई पौधा कभी बरगद की छाया में नहीं पनपा,
कि उस को धूप देने सूर्य की किरनें नहीं आतीं.
मैं यादों के सहारे धुंधले खाके तो बनाता हूँ,
उभर कर फिर भी वो बचपन की तस्वीरें नहीं आतीं.
हमारी चाहतों में ही कहीं कोई कमी होगी,
किसी निष्कर्ष पर चिंतन की बुनियादें नहीं आतीं.
ये संबंधों की दुनिया ठोस भी है देर-पा भी है,
मगर जब दोनों पक्षों से कभी शर्तें नहीं आतीं.
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युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना है।बधाई।
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