भँवरे, तितली, मधुमक्खी सब अपनी धुन में मस्त रहे.
हम उद्देश्य रहित थे, भटके एकाकी, संत्रस्त रहे.
पुरवाई की शीतलता से रहे अपरिचित सारी उम्र,
लू के तेज़ थपेडों में श्रम करने के अभ्यस्त रहे.
बादल में पानी थे, खेतों में फसलों की आशा थे,
फूलों की अंगड़ाई में खुशबू बनकर पेवस्त रहे.
सीता जी के आंसू पोंछे तो मन को संतोष मिला,
माँ के आशीषों में पंडित ब्रज नारायन चकबस्त रहे.
रमते जोगी थे, गृहस्थ जीवन की माया से थे मुक्त,
अलख जगाया, प्रेम रसायन पीकर मस्त-अलस्त रहे.
पत्थर का टुकडा थे फिर भी आँखें मूँद नहीं पाए,
हमें हटाने की इच्छा से आये जो भी ध्वस्त रहे.
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युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
अत्यन्त सुन्दर
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