धर्म, भाषा, वेश-भूषा है अलग, क्या कीजिये.
सबकी अपनी-अपनी कुंठा है अलग, क्या कीजिये.
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यह असंभव है कि हम पहुंचें किसी निष्कर्ष पर,
मेरा, उसका, सबका मुद्दा है अलग, क्या कीजिये.
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वो किसी के साथ घुल-मिलकर नहीं रहता कभी,
अपनी धुन में मस्त, चलता है अलग, क्या कीजिये.
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एक ही परिवार में रहते हैं यूँ तो साथ-साथ,
फिर भी हर भाई का चूल्हा है अलग, क्या कीजिये.
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मैं समझता हूँ कि जनता की अदालत है ग़ज़ल,
फ़ैसलों का सबके लह्जा है अलग, क्या कीजिये.
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सुनने में अच्छी बहुत लगती है ये समता की बात,
किंतु सबकी अपनी प्रतिभा है अलग, क्या कीजिये.
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उसके हिस्से में कभी सुख-चैन आया ही नहीं,
उसकी पीडाओं का किस्सा है अलग, क्या कीजिये.
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सब के अपने-अपने सच हैं, अपनी-अपनी है समझ,
एक ही सच सबको लगता है अलग, क्या कीजिये.
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मेरे अंतस में ही ‘काबा’ है, कहाँ जाऊँगा मैं,
मेरा हज, मेरी तपस्या है अलग, क्या कीजिये.
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राष्ट्रवादी कोण से करते हैं विश्लेषण सभी,
आपकी मेरी परीक्षा है अलग, क्या कीजिये.
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युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
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