जब भी खिलते हैं तो इस तरह महकते हैं गुलाब.
मेरी बेख्वाब सी आंखों में उतर आते हैं ख्वाब.
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झाँक कर देखता हूँ ख़ुद को तो लगता है मुझे,
मैं कुछ ऐसा हूँ कि जैसे हो समंदर बे-आब.
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मौजे-दरया की तरह उमड़े हुए हैं बाज़ार,
डूब जाने का है इमकान, हैं ऐसे गिर्दाब.
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ज़िन्दगी ! तुझको मैं पढ़ता हूँ, निराले ढब से,
खोलकर पढ़ता हो जैसे कोई बच्चों की किताब.
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शख्सियत लोगों की है जाहिरो-बातिन में अलग,
ज़िद है पानी ही कहा जाय उसे, गो हो सराब.
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न है छोटों से मुहब्बत, न बड़ों की ताज़ीम,
गुम हुए जाते हैं तहज़ीब के सारे आदाब.
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युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
सचमुच जिन्दगी को खुली किताब की तरह ही पढना होता है तभी उससे गुलाब की खुश्बू आ सकती है.
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी ! तुझको मैं पढ़ता हूँ, निराले ढब से,
जवाब देंहटाएंखोलकर पढ़ता हो जैसे कोई बच्चों की किताब.
--बहुत जबरदस्त!! वाह!!
झाँक कर देखता हूँ ख़ुद को तो लगता है मुझे,
जवाब देंहटाएंमैं कुछ ऐसा हूँ कि जैसे हो समंदर बे-आब.
bahot umda lekhan hai ,lekhani ki asim kripa hai aap pe ... jari rahe
dhero badhai.......