जड़ें दरख्तों की मज़बूत थीं, हिला न सकीं.
ये आंधियां कोई आफत भी इनपे ढा न सकीं.
*****
हया के तायरों के आशियाँ थे आंखों में,
जभी तो मिलने पे ये खुलके मुस्कुरा न सकीं.
*****
हमारे घर में ग़मों के निगाहबां थे खड़े,
बहारें आना बहोत चाहती थीं आ न सकीं.
*****
तुम्हारी यादें मुझे ले गई थीं बचपन में,
मगर वो आजके हालात को छुपा न सकीं.
*****
शिकंजे कस दिए थे हमने आरजूओं के,
गिरफ़्त सख्त थी इतनी कि फडफडा न सकीं.
*****
गुलों को अपने लहू से जो बख्शते थे हयात,
वो नगमे बुलबुलें इस दौर में सुना न सकीं.
*****
मुसीबतों ने मेरे घर में जब क़दम रक्खा,
पसंद आया घर ऐसा कि फिर वो जा न सकीं.
********************
युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
जड़ें दरख्तों की मज़बूत थीं, हिला न सकीं.
जवाब देंहटाएंये आंधियां कोई आफत भी इनपे ढा न सकीं.
bahut sundar rachana . abhaar fatima ji.
तुम्हारी यादें मुझे ले गई थीं बचपन में,
जवाब देंहटाएंमगर वो आजके हालात को छुपा न सकीं.
--गज़ब भाई!! बहुत ही उम्दा!!