शनिवार, 4 अक्टूबर 2008

वो लोग जो ज़िन्दा हैं / साक़ी फ़ारूक़ी

वो लोग जो ज़िन्दा हैं, वो मर जायेंगे इक दिन।
दुनिया के मुसाफ़िर हैं, गुज़र जायेंगे इक दिन।
सीने में उमंगें हैं, निगाहों में उजाले,
लगता है कि हालात संवर जायेंगे इक दिन।
दिल आज भी जलता है उसी तेज़ हवा में,
पत्तों की तरह हम भी बिखर जायेंगे इक दिन।
सच है कि तआकुब में है आसाइशे-दुनिया,
सच है कि मुहब्बत से मुकर जायेंगे इक दिन।
यूँ होगा कि इन आंखों से आंसू न बहेंगे,
ये चाँद सितारे भी ठहर जायेंगे इक दिन।
अब घर भी नहीं, घर की तमन्ना भी नहीं है,
मुद्दत हुई सोचा था कि घर जायेंगे इक दिन।
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4 टिप्‍पणियां:

  1. अब घर भी नहीं, घर की तमन्ना भी नहीं है,
    मुद्दत हुई सोचा था कि घर जायेंगे इक दिन।
    bahut khoob she'r, ek khoosurat ghazal ke liye dhanyvaad.

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  2. साकी फारुकी साहेब को पढ़ना अद्भुत रहा-बहुत आभार!!

    अब घर भी नहीं, घर की तमन्ना भी नहीं है,
    मुद्दत हुई सोचा था कि घर जायेंगे इक दिन।

    वाह!!!

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  3. एक अच्छी गजल पढ़वाने के लिए धन्यवाद

    वीनस केसरी

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