बुधवार, 23 जून 2010

उनवाने-गुफ़्तुगूए-दिले-दोस्ताँ न हों

उनवाने-गुफ़्तुगूए-दिले-दोस्ताँ न हों।
जीना भी हो मुहाल जो ख़ुश-फ़ह्मियाँ न हों॥

कुछ तल्ख़ियाँ भी होती हैँ शायद बहोत लतीफ़,
क्या लुत्फ़ है सफ़र का जो दुश्वारियाँ न हों॥

रुक जाये कारवाने-मुहब्बत न राह में,
यारब हमारी कोशिशें यूं रायगाँ न हों॥

तारीफ़ें सुन के होता है दिल बेपनाह ख़ुश,
फ़िरऔनियत के हम में कहीं कुछ निशाँ न हों॥

औलाद से मदद की तवक़्क़ो फ़ुज़ूल है,
बेहतर ये है किसी पे भी बारे-गराँ न हों॥

मौसीक़ियत, मिठास, रवानी, शगुफ़्तगी,
किस तर्ह लोग आशिक़े-उर्दू ज़ुबाँ न हों॥
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4 टिप्‍पणियां:

  1. रुक जाये कारवाने-मुहब्बत न राह में,
    यारब हमारी कोशिशें यूं रायगाँ न हों॥

    मौसीक़ियत, मिठास, रवानी, शगुफ़्तगी,
    किस तर्ह लोग आशिक़े-उर्दू ज़ुबाँ न हों॥

    वाह वाह !
    ख़ुदा हमारी कोशिशों और दिली दुआओं को ज़रूर क़ुबूल फ़रमाएगा और ये कारवान ए मुहब्बत ओ ख़ुलूस आगे ही बढ़ता रहेगा इंशा अल्लाह
    उर्दू ज़बान के हवाले से आप ने बिलकुल सही फ़रमाया वाक़ई ये और इस के अलावा बहुत कुछ है इस ज़बान के पास लेकिन आज अंग्रेज़ी हर ज़बान
    पर हावी हो गई है मैंने ऐसी ही कई चीज़ों के सिलसिले से एक शेर में कुछ कहने की कोशिश की है

    हुई मुद्दतें वो चले गए ,प हमारा ज़ह्न तो आज भी
    उसी नह्ज का ,उसी सोच का ,उसी मुम्लिकत का ग़ुलाम है
    शुक्रिया

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  2. मौसीक़ियत, मिठास, रवानी, शगुफ़्तगी,
    किस तर्ह लोग आशिक़े-उर्दू ज़ुबाँ न हों ?

    बिल्कुल दुरुस्त फ़रमाया , साहब !
    हम जैसे लोग उर्दू की तरफ़ इन्हीं वज्हात से तो खिंचे चले आते हैं ।

    तमाम अश्आर क़ाबिले-ता'रीफ़ हैं ।
    मुझे बहुत ख़ुशी है कि मैं नेट पर युग-विमर्श को पा सका ।
    …और अब तो मैंने मेरे ब्लॉग शस्वरं पर भी युग-विमर्श का लिंक लगा रखा है , जिसे देख कर शस्वरं के विजिटर भी युग-विमर्श तक पहुंचने लगे हैं , आप चाहें तो इसके लिए मेरी पीठ थपथपा सकते हैं ।

    आप भी शस्वरं पर आ'कर मेरी हौसलाअफ़्ज़ाई करें तो अच्छा लगेगा ।
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  3. कुछ तल्ख़ियाँ भी होती हैँ शायद बहोत लतीफ़,
    क्या लुत्फ़ है सफ़र का जो दुश्वारियाँ न हों॥\वाह वाह क्या बात कही पूरी गज़ल अच्छी लगी मगर वही समस्या कहीं कहीं शब्द समझ नही आये।अपकी गज़ल से बहुत कुछ सीखने की कोशिश करती हूँ। धन्यवाद्

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  4. बहुत अच्छी गज़ल.

    तारीफ़ें सुन के होता है दिल बेपनाह ख़ुश,
    फ़िरऔनियत के हम में कहीं कुछ निशाँ न हों॥
    ...वाह..क्या बात है! इस शेर ने मन मोह लिया.

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