बुधवार, 12 मई 2010

खीज से जन्मे हुए शब्दों को जब भी तोलें

खीज से जन्मे हुए शब्दों को जब भी तोलें।
झिड़कियाँ माँ की मेरे कानों में अमृत घोलें॥

देखें बचपन की उन आज़ादियों की तस्वीरें,
बैठें जब साथ अतीतों की भी गिरहें खोलें॥

रात में भी तो उजालों की ज़रूरत होगी,
आओ कुछ धूप के टुकड़ों को ही घर में बो लें॥

आस्तीनों से टपकती हैं लहू की बून्दें,
मान्यवर आप इन्हें चुपके से जाकर धो लें॥

काट दी उम्र पराधीनता की बेड़ियों में,
अब हैं स्वाधीन तो कुछ हौले ही हौले डोलें॥

हो के स्वच्छन्द बहोत हमने गुज़ारे हैं ये दिन,
अब तो अच्छा है यही हम भी किसी के हो लें॥
**********

3 टिप्‍पणियां:

  1. रात में भी तो उजालों की ज़रूरत होगी,
    आओ कुछ धूप के टुकड़ों को ही घर में बो लें॥
    जरूरत तो इसी बात की है.
    शानदार गज़ल

    जवाब देंहटाएं
  2. ''rat me bhi to ujalo ki jrurt hogi
    aao kuchh tukdo ko hi ghr me bo le ''

    aashavadi drishtikon ki fsl ko ugane ke liye aise beej mntr bhut shayk hote hai
    sir bhut achchha lga pd ke .

    जवाब देंहटाएं