बुधवार, 21 अप्रैल 2010

बचपन में खेलने के लिए जो मिले नहीं

बचपन में खेलने के लिए जो मिले नहीं।
मिटटी के वो खिलौने कभी टूटते नहीं॥

जुगनू जो रख के जेब में होते थे ख़ुश बहोत,
वो ज़िन्दगी में बन के सितारे टँके नहीं॥

मिटटी का तेल भी न मयस्सर हुआ कभी,
शिकवा है दोस्तों को के हम पढ सके नहीं॥

मेहनत्कशी से आँख चुराते भी किस तरह,
आसाइशों की गोद में जब हम पले नहीं॥

जो रूखा-सूखा मिल गया खाते थे पेट भर,
लुक़्मा वो अब चबाएं तो शायद चबे नहीं॥
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2 टिप्‍पणियां:

  1. जो रूखा-सूखा मिल गया खाते थे पेट भर,
    लुक़्मा वो अब चबाएं तो शायद चबे नहीं॥


    बहुत सुंदर


    bahut khub


    shekhar kumawat


    http://kavyawani.blogspot.com/

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  2. Ye ghazal behad khubsurat lagi mujhe...kai rang hain zindagi ke isme jo udas bachhon se baithe hain..

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