सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

मैं मुसाफ़िर हूं ठहरने के लिए वक़्त कहाँ

मैं मुसाफ़िर हूं ठहरने के लिए वक़्त कहाँ।
इस बियाबान में मरने के लिए वक़्त कहाँ॥
सारा सहरा है मेरे साथ सफ़र में मसरूफ़,
शह्र से हो के गुज़रने के लिए वक़्त कहाँ ॥
तेज़ रफ़्तार हुई जाती है कुछ और ज़मीं,
अब इसे बनने-संवरने के लिए वक़्त कहाँ॥
आज सूरज की शुआएं भी फ़सुरदा हैं बहोत,
धूप का दर्द कतरने के लिए वक़्त कहाँ॥
कितने ही काम पड़े हैं जो ज़रूरी हैं बहोत,
पर किसी काम को करने के लिए वक़्त कहाँ॥
अपनी इस ख़ाना-ख़राबी में बहरहाल हूं ख़ुश,
वक़्ते-रुख़्सत है सुधरने के लिए वक़्त कहाँ॥
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7 टिप्‍पणियां:

  1. कितने ही काम पड़े हैं जो ज़रूरी हैं बहोत,
    पर किसी काम को करने के लिए वक़्त कहाँ॥

    क्या मारा है
    वक्त कहां है किसी के पास

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  2. कितने ही काम पड़े हैं जो ज़रूरी हैं बहोत,
    पर किसी काम को करने के लिए वक़्त कहाँ॥

    -बहुत उम्दा गज़ल!

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  3. कितने ही काम पड़े हैं जो ज़रूरी हैं बहोत,
    पर किसी काम को करने के लिए वक़्त कहाँ॥

    खूबसूरत भाव की पंक्तियाँ और सुन्दर गज़ल। वाह।

    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  4. Waah!! sundar bhavo se saji laajavab peshkash ke liye aabhar!!
    http://kavyamanjusha.blogspot.com/

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  5. तेज़ रफ़्तार हुई जाती है कुछ और ज़मीं,
    अब इसे बनने-संवरने के लिए वक़्त कहाँ
    और सुधरने के लिये वक्त कहाँ------- वाह वाह बहुत खूब । पूरी गज़ल ही बेहद खूबसूरत है। शुभकामनायें

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  6. कितने ही काम पड़े हैं जो ज़रूरी हैं बहोत,
    पर किसी काम को करने के लिए वक़्त कहाँ॥

    हम सब की जिंदगी का कडुवा सच है ये.
    बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है.

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