अबतक साथ निभाया है तो चन्द दिनों की ज़हमत और.
मंज़िल साफ़ नज़र आती है, थोडी सी बस हिम्मत और.
साग़रो-सहबा की सरगोशी से बिल्कुल बे-पर्वा थे,
ख्वाब सजा लेते थे बैठे-बैठे थी वो ताक़त और.
पेड़ों का झुरमुट था, झील का नीला-नीला पानी था,
आँखों की कश्ती में सैर सपाटों की थी लज्ज़त और.
कितने ही औसाफे-हमीदा देख रहे थे हम में लोग,
किसको पता था फूल खिलाएगी तदबीरे-मशीयत और.
अपनी ज़ात से ऊपर उठकर उसके वुजूद में गुम था मैं,
इस एहसास में नगमा-रेज़ थी सुहबत और शराफत और.
कासए-सर में भर के शराबे-इश्क़ पियो तो बात बने,
मुह्र-बलब रह जाए शरीअत, देख के रंगे तरीक़त और.
**************************
साग़रो-सहबा =प्याला और मदिरा, सरगोशी = कानाफूसी, औसाफे-हमीदा = सत्व-गुण, तदबीरे-मशीयत = दैव-शक्ति के प्रबंध, ज़ात = व्यक्तित्व, वुजूद = अस्तित्व, कास'ए सर = सर का प्याला, मुह्र-बलब = मौन, शरीअत =इस्लामी धर्म-संहिता, तरीक़त = ब्रह्म-ज्ञान,
युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
अपनी ज़ात से ऊपर उठकर उसके वुजूद में गुम था मैं,
जवाब देंहटाएंइस एहसास में नगमा-रेज़ थी सुहबत और शराफत और.
यूँ टो पूरी गज़ल लाजवाब है मगर इस अश-ार ने मन को छू लिया आभार्