सुब्ह के इन्तेज़ार में, रात तवील हो गयी.
आँखें पिघल-पिघल गयीं, नींद ज़लील हो गयी.
सरदियों की ये मौसमी, खुन्कियां सर-बरहना हैं,
धूप भी इत्तेफ़ाक़ से, कितनी बखील हो गयी.
राज़ था राज़ ही रहा, उसका वुजूद आज तक,
उसको न मैं समझ सका, उम्र क़लील हो गयी.
रौज़ने-फ़िक्र में कई, और दरीचे वा हुए,
कोई तो रास्ता मिला, कुछ तो सबील हो गयी.
मंजिलों के पड़ाव हैं, अहले-जुनूँ के जेरे-पा,
तायरे-नफ़्स के लिए, राहे-नबील हो गयी.
सिलसिलए-हयातो-मौत, सिर्फ सफ़र है रूह का,
वस्ल की आरजू हुई, ज़ीस्त क़तील हो गयी.
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युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
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