सोमवार, 2 मार्च 2009

ज़र्द पत्ते की तरह चेहरे पे मायूसी लिए.

ज़र्द पत्ते की तरह चेहरे पे मायूसी लिए.
जीस्त की राहों से गुज़रे लोग नासमझी लिए.
क्या हुआ फूलों को आखिर क्यों हैं सबख़ामोश लब,
रतजगे रुख़सार पर आँखों में बेख्वाबी लिए.
कैसे समझेगा समंदर की कोई गहराइयां,
जब भी नदियों ने बहाए जितने आंसू पी लिए,
बेखबर आतश-फ़िशां हरगिज़ नहीं हालात से,
आग का दरिया रवां है प्यास कुछ गहरी लिए.
क्यों किसी के साथ कुछ तफरीक ये करतीं नहीं,
क्यों ये सूरज की शुआएं फ़िक्र हैं सबकी लिए.
ख्वाब का फुक़ादान, फ़िक्रों से बसीरत लापता,
ये भी कोई ज़िन्दगी है, जैसे चाहा जी लिए।
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3 टिप्‍पणियां:

  1. "कैसे समझेगा समंदर की कोई गहराइयां/जब भी नदियों ने बहाए जितने आंसू पी लिए"...क्या खूब शैलेश साब....

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  2. Dear Sir
    Aadab
    aap ka blog parh kar jee khush ho gaya...Nazmen hain ke Qayamat hain.
    Aap ko bahaisiyat USTAAD to jaanta hi hoon Shayari ne rooh ko sarshaar kar diya.Bahut Mubarak!!
    Arman Rasool Faridi
    Lecturer
    Dept. of Computer Science,AMU
    arman_faridi@rediffmail.com

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  3. ख्वाब का फुक़ादान, फ़िक्रों से बसीरत लापता,
    ये भी कोई ज़िन्दगी है, जैसे चाहा जी लिए।

    एक बेहतर रचना पढ़वाने के लिये धन्यवाद।

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