कितनी रोचक बात है, हम है स्वयं-घोषित महान.
आत्म-गौरव की प्रतिष्ठा का हमें अच्छा है ज्ञान.
हर समय सुनता हूँ मैं अन्तर में कुछ ऐसा निनाद
जैसे पंडित शंख फूँके, जैसे मुल्ला दे अज़ान.
मेरी इस गतिशीलता ने लक्ष्य को सम्भव किया,
मार्ग में आते रहे मेरे, निरंतर व्यावधान.
इतने सारे भेद-भावों को जिलाकर एक साथ,
एकता मुमकिन नहीं है, खोजते रहिये निदान.
हर समय स्वच्छंद रहकर भी हो साहिल से बंधा,
बन न पाया मन का ये विस्तार दरया के समान.
सबकी इच्छा है कि हर अच्छा-बुरा करते रहें,
और दामन पर न आये एक भी काला निशान.
लोग बचने के लिए बारिश से, जब आये यहाँ,
मन ने धीरे से कहा छोटा है घर का सायबान.
एक ही धरती पे, अपने-अपने सब धर्मानुरूप,
चाहते हैं संस्थापित करना, अपने संविधान.
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युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
मान गये ....बहुत ही जानदार रचना है ये तो ...
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