छोडिये भी, ये तमाशे नहीं अच्छे लगते.
लोग, यूँ बात बनाते नहीं अच्छे लगते.
है ये बेहतर, कि रहें लम्हए-मौजूद में खुश,
ठेस पहोंचायें जो वादे, नहीं अच्छे लगते.
ताजा-ताज़ा हों खयालात तो सुनते हैं सभी,
सिर्फ़ लफ्जों के करिश्मे नहीं अच्छे लगते.
लब पे शोखी हो निगाहों में शरारत हो भरी,
सहमे-सहमे हुए बच्चे नहीं अच्छे लगते.
जो भी कहना है तुम्हें, खुलके कहो, साफ़ कहो,
गुफ्तुगू में ये इशारे नहीं अच्छे लगते.
जिनके हर गोशे से अग़राज की बू आती हो,
होश वालों को वो तोहफे नहीं अच्छे लगते.
आज की तर्ह कभी उनकी नवाजिश न हुई,
साफ़ ज़ाहिर है, इरादे नहीं अच्छे लगते.
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युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
बहुत सुन्दर रचना है
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