शनिवार, 17 जनवरी 2009

संवारते थे मेरे स्वप्न मशवरे देकर.

संवारते थे मेरे स्वप्न मशवरे देकर.
चले गए वो सभी मित्र हौसले देकर.
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ये बात सच है कि मैं दो क़दम बढ़ा न सका,
खुशी मिली मुझे औरों को रास्ते देकर.
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दुखों का काफ्ला ठहरा था मेरे घर आकर,
बिदा हुआ तो गया मुझको रतजगे देकर.
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ये सरहदों का तिलिस्मी स्वभाव कैसा है,
ये हँसता रहता है मुद्दे नये-नये देकर.
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वो लेके आया बसंती हवाओं की खुशबू,
जुदा हुआ वो मुझे ज़ख्म कुछ हरे देकर.
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खुली है खिड़कियाँ उतरेगा चाँद कमरे में,
मैं उसको रोकूंगा कुछ ख्वाब चुलबुले देकर.
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4 टिप्‍पणियां:

  1. 'ये बात सच है कि मैं दो क़दम बढ़ा न सका,
    खुशी मिली मुझे औरों को रास्ते देकर.'
    - सकारात्मक सोच. साधुवाद.

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  2. मतला तो कमाल का है साथ में शे'र तो चर्चंद लगा रहे है...बहोत बढ़िया लिखा है आपने...ढेरो बधाई कुबूल करें...

    अर्श

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