शनिवार, 31 जनवरी 2009

जड़ें ग़मों की दिलों से उखाड़ फेंकते हैं.

जड़ें ग़मों की दिलों से उखाड़ फेंकते हैं.
गुलों की मस्ती के मौसम को यूँ भी देखते हैं.
हमारे दिल की सदाक़त है साफ़ पानी सी,
हम इसको चेहरए-रब का मकीं समझते हैं.
सबा ने जाने कहा क्या चमन में गुंचों से,
जुनूँ में गुन्चे क़बा चाक-चाक करते हैं.
हवा ने जुल्फें जो लहरा दीं उस परीवश की,
सरापा हुस्न को हैरत से लोग तकते हैं.
कली दुल्हन है, तबस्सुम के जेवरात में है,
सब उसके हुस्न पे ईमान अपना बेचते हैं.
जगह-जगह से छिदा है जो बांसुरी का जिगर,
तड़प है वस्ल की, हर धुन में, लोग कहते हैं.
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विशेष : प्रख्यात फारसी कवि हाफिज़ शीराजी की एक ग़ज़ल " बहारे-गुल तरब-अंगेज़ गश्तों-तौबा-शिकन" से प्रेरणा लेकर यह ग़ज़ल कही गई है.

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही उदात्त भाव-पक्ष। पर ग़ज़ल के शिल्पगत मापदण्डों पर इसे एक बार फिर से कसने की आवश्यकता सी लगती है।

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  2. हर शे'र मुकम्मल बहोत ही उम्दा लिखा है आपने ,आखिरी शे'र तो गजब की बन पड़ी है ढेरो बधाई कुबूल करें...


    अर्श

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