शोक की मनःस्थिति, मांगती है संवेदन.
आंसुओं की पीड़ा को, समझेंगे न दुह्शासन.
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सब दुखों की गहराई, नापते हैं शब्दों से,
कोई सुन नहीं पाता, चित्त का व्यथित क्रंदन.
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आस्थाओं की झोली, जिसकी रिक्त होती है,
मानती नहीं उसकी, चेतना कोई बंधन.
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दहशतों के हाथों से, सामने निगाहों के,
जल के राख होता है, जीता-जागता मधुवन.
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जब भी याद करता हूँ, मैं वो सारी घटनाएं,
तैरता है आंखों में, होके अवतरित सावन.
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ईंट-पत्थरों ने भी, मेरे दुख को समझा है,
मेरा साथ देते हैं, ये उदास घर-आँगन.
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युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
'आंसुओं की पीड़ा को समझेंगे न दुःशासन।'
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक। दुःशासन तो दण्ड की ही भाषा समझते हैं।
Waah ! bahut bahut sundar abhivyakti..saarthak rachna.
जवाब देंहटाएंबहोत खूब लिखा है आपने वाह ...ढेरो बधाई ...
जवाब देंहटाएंअर्श