खून के धब्बे नज़र आए मुझे अखबार पर.
कुछ खरोचें भी पड़ी थीं सुब्ह के रुखसार पर.
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घर के बीचों-बीच मेरी लाश थी रक्खी हुई,
एक सन्नाटा सा तारी था दरो-दीवार पर.
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अम्न के उजले कबूतर आये आँगन में मेरे,
उड़ गये, दामन में मेरे छोड़ कर दो-चार पर.
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वो मुहब्बत का था सौदाई, खता इतनी थी बस,
दुश्मनों ने प्यार के, उसको चढाया दार पर.
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दानए-तस्बीह पर वो नक़्श कर देता था ओम,
आयतें कुरआन की लिखता था वो ज़ुन्नार पर,
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हमसे वाबस्ता किए जाते हैं सारे ही गुनाह,
जुर्म कुछ आयद नहीं होता कभी सरकार पर.
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लोग अपने ही ख़यालों में रहा करते हैं गुम,
क्यों तरस खाएं किसी बन्दे के हाले-ज़ार पर.
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युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
'अम्न के उजले कबूतर…'
जवाब देंहटाएंबेहद ख़ूबसूरत!