गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

वो अपने लाल को गेहूं के बदले बेच देते हैं.

वो अपने लाल को गेहूं के बदले बेच देते हैं.
पड़ी हो जान पर तो सारे रिश्ते बेच देते हैं.
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ये कैसी भूख है जो आत्मा को मार देती है,
चुराकर मंदिरों से मूर्ति, कैसे बेच देते हैं.
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हमारे भ्रष्ट होने की कोई सीमा नहीं शायद,
परीक्षा होने से पहले ही परचे बेच देते हैं.
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कहीं कैसी भी हो गंभीर दस्तावेज़, हम में ही,
कई ऐसे हैं, लेकर खूब पैसे, बेच देते हैं.
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हुनर हमने ये अपने राजनेताओं से सीखा है,
वो जनता को सरे-बाज़ार सस्ते बेच देते हैं.
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हमारे गाँव के ये खेत जो पैतृक धरोहर हैं,
हमारे काम क्या आते हैं, चलिये बेच देते हैं.
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3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया, भई

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    चाँद, बादल, और शाम
    http://prajapativinay.blogspot.com/

    गुलाबी कोंपलें
    http://www.vinayprajapati.co.cc

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  2. बहुत खूब उम्दा रचना है . धन्यवाद.

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