रह गयीं बिछी आँखें, और तुम नहीं आये.
मुज़महिल हुईं यादें, और तुम नहीं आये.
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उसके मांग की अफ़्शां, चाँद की हथेली पर,
रख के सो गयीं किरनें, और तुम नहीं आये.
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ख़त तुम्हारे पढ़-पढ़ कर, चाँदनी भी रोई थी,
नम थीं रात की पलकें, और तुम नहीं आये.
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धूप हो के आँगन से छत पे जाके बैठी थी,
कोई भी न था घर में, और तुम नहीं आये.
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टुकड़े-टुकड़े हो-हो कर, चुभ रही थीं सीने में,
इंतज़ार की किरचें, और तुम नहीं आये.
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नीम पर लटकते हैं, अब भी सावनी झूले,
जा रही हैं बरसातें, और तुम नहीं आये.
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युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
नीम पर लटकते हैं, अब भी सावनी झूले,
जवाब देंहटाएंजा रही हैं बरसातें, और तुम नहीं आये.
bahot khub sahab kitni komalta se aape aapni shikayat samane rakhi hai ,bahot pasand aai ye ghazal .. dhero sadhuwad aapko...
धूप हो के आँगन से छत पे जाके बैठी थी,
जवाब देंहटाएंकोई भी न था घर में, और तुम नहीं आये.
नीम पर लटकते हैं, अब भी सावनी झूले,
जा रही हैं बरसातें, और तुम नहीं आये.
लाजवाब शायरी...वाह...जिंदाबाद...जिंदाबाद...
नीरज
'नम थीं रात की पलकें…'
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।