सोमवार, 13 अक्टूबर 2008

तुम्हारी मान्यताएं मेरे काम आ ही नहीं सकतीं।

तुम्हारी मान्यताएं मेरे काम आ ही नहीं सकतीं।

लवें दीपक की लोहे को तो पिघला ही नहीं सकतीं।

थकी हारी ये किरनें सूर्य की वीरान रातों से,

भुजाएं बढ़के आलिंगन को फैला ही नहीं सकतीं।

हमारे बीच ये संसद भवन की तुच्छ लीलाएं,

वितंडावाद से जनता को भरमा ही नहीं सकतीं।

मुलायम कितना भी चारा हो माया-लिप्त सी गायें,

झुका कर शीश अपना चैन से खा ही नहीं सकतीं।

इसी सूरत हमें रहना है बँटकर सम्प्रदायों में,

ये बातें एकता की तो हमें भा ही नहीं सकतीं।

तमिल, उड़िया, मराठी जातियों को हठ ये कैसी है,

कभी क्या राष्ट्र भाषा को ये अपना ही नहीं सकतीं।

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4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह,बहुत ही सुंदर .बात कही आपने.काश लोग ये सोच ,मान पायें............

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  2. बहुत बढिया!! बहुत सही कहा है आपने-


    इसी सूरत हमें रहना है बँटकर सम्प्रदायों में,

    ये बातें एकता की तो हमें भा ही नहीं सकतीं।

    तमिल, उड़िया, मराठी जातियों को हठ ये कैसी है,

    कभी क्या राष्ट्र भाषा को ये अपना ही नहीं सकतीं।

    जवाब देंहटाएं
  3. हमारे बीच ये संसद भवन की तुच्छ लीलाएं,

    वितंडावाद से जनता को भरमा ही नहीं सकतीं।
    "great expressions'
    Regards

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  4. बहुत ही बढ़िया। क्या बात है।

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