बुधवार, 14 अप्रैल 2010

फ़िज़ा में आइनों के अक्स जब दम तोड़ देते हैं

फ़िज़ा में आइनों के अक्स जब दम तोड़ देते हैं।
रुपहले ख़्वाब सब थक हार कर हम तोड़ देते हैं॥

लिए मजबूरियाँ हम दर-ब-दर फिरते हैं बस्ती में,
कभी ज़ख़्मों की सौग़ातें कभी ग़म तोड़ देते हैं॥

लबालब मय न हो तो लुत्फ़ पीने का नहीं आता,
वो साग़र जिसमें हो मेक़दार कुछ कम तोड़ देते हैं॥

रुलाया है बहोत उसने तुझे अफ़सुरदा लमहों में,
तअल्लुक़ उस से अब ऐ चश्मे पुरनम तोड़ देते हैं॥

जुनूं में होश अपनी ज़िन्दगी का कुछ नहीं होता,
बनाते हैं जिसे हम ख़ुद वो आलम तोड़ देते हैं॥
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मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

अल्ताफ़ हुसैन हाली और हयाते-जावेद / प्रो0 शैलेश ज़ैदी

अल्ताफ़ हुसैन हाली और हयाते-जावेद [हिन्दी अनुवाद]

अल्ताफ़ हुसैन हाली [1837-1914] उर्दू के उन प्रख्यात साहित्यकारों में हैं जिन्होंने कविता और आलोचना को नए आयामों से परिचित कराया. मिरज़ा गालिब के शिष्य होने का दायित्व उनकी वैचारिकता में झलकता भी है और उनके लेखन में मुखर भी दिखायी देता है. प्रारंभिक शिक्षा अपने पैतृक वतन पानीपत से प्राप्त करने के बाद दिल्ली आये. मिरज़ा ग़ालिब की काव्य-कला और उनके ज्ञान से लाभान्वित हुए और इस क़र्ज़ को चुकाने में भी कोई कमी नहीं की ग़ालिब के जीवन और उनके काव्य-सौष्ठव को एक नए कोण से व्याख्यायित किया, नौकरी भी की किंतु 1857 की महाक्रान्ति ने पानीपत लौटने पर विवश कर दिया.

महाक्रान्ति की असफलता के बाद एक बार फिर 1860 ई0 के प्रारंभिक महीनों में हाली को दिल्ली आने का अवसर प्राप्त हुआ. इन्हीं दिनों में नवाब मुस्तफा खान शेफ्ता के माध्यम से हाली की सर सैयद अहमद खान से भेंट हुई थी. वे उनके व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित हुए. दिल्ली पूरी तरह उजड़ चुकी थी और उर्दू के चर्चित कवियों में से कई एक अंग्रेजों के आक्रोश की लपेट में अपनी जानें गँवा बैठे थे. शेख इमाम बख्श सहबाई कूचा चेलान के अन्य बाशिंदों के साथ ग़दर के दोषी ठहराए गए थे और उन्हें उनके परिवार के इक्कीस सदस्यों के साथ क़त्ल कर दिया गया था. मुंशी सदरुद्दीन 'आजुर्दा' बागियों के साथ सहयोग के दोषी घोषित किए जा चुके थे और नोकरी,माल-जायदाद इत्यादि से वंचित होकर एक कड़वा जीवन व्यतीत कर रहे थे. उर्दू के अन्य साहित्यकारों की स्थिति भी दयनीय हो चुकी थी.

संकल्प की दृढ़ता ने, कई वर्षों तक एक के बाद एक कई नोकारियों की ख़ाक छानने के बावजूद, हाली को लाहौर में थोड़ा स्थैर्य प्रदान किया. सर सैयद अहमद खान का सुझाव उनके मन में पूरी तरह बैठ गया और उन्होंने 1870 में अपने महाकाव्य 'मुसद्दसे-मद्दों-जज्रे-इस्लाम' की रचना प्रारंभ की जो आगे चलकर 'मुसद्दसे-हाली' के नाम से प्रसिद्ध हुआ. 1879 में इस महाकाव्य के प्रकाशन ने हाली की प्रतिभा का न केवल लोहा मनवा लिया, उन्हें उर्दू के आधुनिक साहित्य का जनक भी स्वीकार किया गया. और फिर हाली की महत्त्वपूर्ण कृति 'मुक़द्दमए-शेरो-शायरी' के प्रकाशन से आधुनिक उर्दू आलोचना को एक नई दिशा ही नहीं मिली, वैचारिकता के धरातल और चिंतन के प्रतिमान भी बदलते दिखाई दिए.

उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे-चौथे दशक से ही अंग्रेजों के निरंतर बढ़ते हौसलों से भारतीय जनमानस तंग आ चुका था. रियासतें एक-एक कर के विनष्ट की जा चुकी थीं और साम्राज्य की सीमाएं फैलाने के उद्देश्य से बहाने तलाश कर-कर के देशी राजाओं को पदच्युत किया जा रहा था. 1849 तक पंजाब भी अंग्रेजों के अधीन हो चुका था. भारत की दौलत खुले आम लुट रही थी और व्यापार तथा शिल्प दम तोड़ रहे थे. सामजिक स्तर पर मिशनरी क्रिया-कलापों ने इस संदेह को दृढ़ बना दिया था कि अंग्रेजों की नीयत हिन्दुस्तानियों को ईसाई बनाने की है. महाक्रान्ति के बाद बुरी तरह कुचले जाने के कारण उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध मुसलामानों के लिए चुनौतियों से भरा हुआ था. सर सैयद अहमद खान ने इस स्थिति को यदि धैर्य-पूर्वक न संभाला होता तो स्थिति कुछ भी हो सकती थी.

सर सैयद [1817-1898] का व्यक्तित्व उनकी अदभुत दूरदर्शिता, विवेकधर्मिता, संवेदनशीलता और स्वदेश-भक्ति के तानों बानों से निर्मित था. इस व्यक्तित्व के मूल में तत्कालीन मुस्लिम समाज की आर्थिक-विपन्नता, शैक्षिक पिछडेपन और विवेक-शून्य भावुकता के प्रति अपूर्व पीड़ा थी. धैर्य और सहनशीलता की मूर्ति सर सैयद अहमद खान ने अपनी गंभीर सूझ-बूझ के आधार पर ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया की चिंता किए बिना जनक्रांति के कारणों पर 1859 ई० में असबाबे-बगावते-हिंद शीर्षक एक महत्वपूर्ण पुस्तिका लिखी और उसका अंग्रेज़ी अनुवाद ब्रिटिश पार्लियामेंट को भेज दिया. सर सैयद के मित्र राय शंकर दास ने जो उन दिनों मुरादाबाद में मुंसिफ थे सर सैयद को समझाया भी कि वे पुस्तकों को जला दें और अपनी जान खतरे में न डालें. किंतु सर सैयद ने उनसे स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि उनका यह कार्य देशवासियों और सरकार की भी भलाई के लिए आवश्यक है. इसके लिए जान-माल का नुकसान उठाने का खौफ उनके मार्ग में अवरोधक नहीं बन सका. क्रांति के जोखिम भरे विषय पर कुछ लिखने वाले सर सैयद प्रथम भारतीय हैं.

सर सैयद अहमद खान जानते थे कि पंजाब से लेकर बिहार तक का क्षेत्र आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अंग्रेज़ी शिक्षा में बंगाल और महाराष्ट्र की तुलना में बहुत पीछे है. उसे राजनीति से कहीं अधिक शिक्षा की आवश्यकता है. उस शिक्षा की जो मनुष्य में भावुकता के स्थान पर विवेक को जन्म देती है, संकीर्णता और धर्मान्धता की जगह संतुलित और संवेदनशील जीवनदृष्टि प्रदान करती है और स्वदेशवासियों के प्रति दायित्व के एहसास से आत्मा का परिष्कार करती है. उन्होंने 1864 में इसी उद्देश्य से साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश को आम पढ़े-लिखे शहरी तक पहुंचाने का प्रयास किया. शिक्षा-संस्था खोलने का विचार हुआ तो अपनी सारी जमा-पूँजी यहांतक कि मकान भी गिरवी रख कर यूरोपीय शिक्षा-पद्धति का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से इंगलिस्तान की यात्रा की. लौटकर आए तो कुछ वर्षों के भीतर ही मई 1875 ई0 में अलीगढ़ में मदरसतुलउलूम की स्थापना की जो दो वर्षों बाद 1877 में एम.ए.ओ. कालेज के नाम से जाना गया और 1920 में जिसे विश्वविद्यालय के रूप में प्रतिष्ठित किया गया.

सर सैयद के एम.ए.ओ. कालेज के द्वार सभी धर्मावलम्बियों के लिए खुले थे. पहले दिन से ही अरबी फ़ारसी भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा की शिक्षा की भी व्यवस्था की गई. स्कूल के स्तर तक हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन को भी अपेक्षित समझा गया और इसके लिए पं. केदारनाथ अध्यापक नियुक्त हुए.सकूल तथा कालेज दोनों ही स्तरों पर हिन्दू अध्यापकों की नियुक्ति में कोई संकोच नहीं किया गया. कालेज के गणित के प्रोफेसर जादव चन्द्र चक्रवर्ती को अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई. एक लंबे समय तक चक्रवर्ती गणित के अध्ययन के बिना गणित का ज्ञान अधूरा समझा जाता था.

उन्नीसवीं शताब्दी में सर सैयद अहमद खान इस दृष्टि से अद्वितीय हैं कि उन्होंने कभी अकेले मुसलमानों को संबोधित नहीं किया. उनके भाषणों में हिन्दू मुसलमान बराबर से शरीक होते थे. यह सौभाग्य राजा राम मोहन राय को भी प्राप्त नहीं हुआ। सर सैयद ने मुसलमानों की दशा सुधरने के लिए यदि कुछ किया या करना चाहा तो अपने हिन्दू मित्रों के सुझाव और सहयोग को नज़रंदाज़ नहीं किया. उन्होंने हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के पिछडेपन के प्रति गहरी सहानुभूति जगाई. परिणाम यह हुआ कि जहाँ एक ओर कालेज के लिए मुसलमानों ने चंदा दिया वहीं हिन्दुओं का सहयोग भी कम नहीं मिला.

सर सैयद का व्यक्तित्व बहुआयमी था। वे एक अच्छे गद्यकार थे, चिन्तक और विचरक थे,समय की नाड़ी और उसकी गति पर उनकी दृष्टि थी,धर्म, इतिहास, रजनीति, शिक्षा शास्त्र, विज्ञान और पुरातत्व की बरीकियों को सम्झते थे और स्वस्थ पत्रकारित के माधयम से सामान्य शिक्षित वर्ग में जागरूकता फूंकने के पक्षधर थे।

सर सैयद के निधनोपरान्त उनके मित्र और सहयोगी मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली ने उनकी जीवनी हयाते-जावेद लिखने क निश्चय किया जिसके लिए वे पहले से सामग्री जुटा रहे थे। सर सैयद को अच्छी-बुरी सभी परिस्थितियों में हाली ने बहुत निकट से देखा था, इस दृष्टि से उन्हें यह जीवनी लिखने का अधिकार भी था। इस जीवनी को वैज्ञनिक कोण से विवेचित करने पर इसमें कुछ कमियाँ खोजी जा सकती हैं, किन्तु बीसवीं शती के प्रारंभिक दशक की यह सर्वश्रेष्ठ जीवनी कही जा सकती है जो उर्दू भाषा में लिखी गयी। अंग्रेज़ी भाषा में इसका अनुवाद के0 एच0 क़ादिरी तथा जे0 मेथ्यूज़ के प्रयास से 1979 ई0 में ही हो गया था, किन्तु हिन्दी भाषी जनता इस से लगभग अनभिज्ञ सी थी। राजीवलोचन नाथ शुक्ल और पर्वेज़ फ़ातिमा के प्रयास से इस कार्य को सपन्न होते देख कर मैं सन्तोष का अनुभव कर रहा हूं। चूंकि यह कार्य मेरी देख-रेख में हुआ है, मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि जो कमियाँ अंग्रेज़ी अनुवादकों से रह गयी थीं, इस अनुवाद में नहीं हैं। राजीवलोचन नाथ शुक्ल तो अनुवाद विशेषज्ञ के रूप में विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में रीडर के पद पर कार्यरत हैं और पर्वेज़ फ़तिमा हिन्दी के साथ-साथ उर्दू भाषा और साहित्य का अच्छा ज्ञान रखती हैं और इस से पूर्व भी उर्दू से हिन्दी में कैई सफल अनुवाद कर चुकी हैं। मुझे विश्वास है कि हिन्दी जगत में इस बहुमूल्य पुस्तक का स्वागत होगा।

हो चुकी हैं राख जलकर बस्तियाँ ऐसी भी हैं

हो चुकी हैं राख जलकर, बस्तियाँ ऐसी भी हैं।
आँख हो जाती हैं नम महरूमियाँ ऐसी भी हैं॥

झीने आँचल में समेटें धूप ये मुम्किन नहीं,
बर्फ़ सी चुभती हैं दिल में बदलियाँ ऐसी भी हैं॥

अब तो बाग़ीचे में कोई फूल खिलता ही नहीं,
नाउमीदी की ख़िज़ाँ-अँगड़ाइयाँ ऐसी भी हैं॥

चान्दनी के फ़र्श पर होता है जब ख़्वाबों का रक़्स,
छेड़ देती हैं ग़ज़ल अँगनाइयाँ ऐसी भी हैं॥

जिस्म को छू कर ठहर जाती हैं दिल के पास ही,
नर्मो-नाज़ुक, सीम-तन पुर्वाइयाँ ऐसी भी हैं॥

कोई भी मौसम हो आहिस्ता से आकर बज़्म में,
कौन्द सी जाती हैं दिल में बिजलियाँ ऐसी भी हैं॥
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उम्र के इस मोड़ पर तुझ से तमन्ना क्या करें

उम्र के इस मोड़ पर तुझ से तमन्ना क्या करें।
सामने आँखों के हो तू और बस देखा करें॥

परवरिश करते रहे अपनों की हासिल क्या हुआ,
अब यही बेहतर है थोड़े जानवर पालाकरें॥

ऐन मुम्किन है के हम हो जायें ख़ुद भी मह्वे-रक़्स,
बाँसुरी रख कर लबों पर सुर नये पैदा करें॥

वैसे तो शायद कभी छू भी न पाओ तुम हमें,
हाँ उड़ा सकते हो गर्दन जब भी हम सज्दा करें॥

मुद्दतों से है ख़लाओं में हमारी बूदो-बाश,
छोड़ कर उसको ज़मीं पर किस लिए उतरा करें॥
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सोमवार, 12 अप्रैल 2010

ब्लाग की दुनिया है कितनी ख़ुश-नसीब

ब्लाग की दुनिया है कितनी ख़ुश-नसीब।
हो गये यकजा सभी लेखक-अदीब्॥
आ गये इस में सियासत दान भी।
हो गये जारी नये फ़र्मान भी॥
फ़िल्म वाले कैसे रह जाते ख़मोश्।
आ गये वो भी उड़ाने सबके होश्॥
रक़्सो-मौसीक़ी ने बदलीं कर्वटें।
सब ने कीं महसूस उनकी आहटें॥
सोते मुल्ला और पन्डित क्यों भला।
धर्म का बाज़ार ठण्डा था पड़ा।
फ़िर्क़ा-वारीयत की भर लाये शराब्।
ख़ून की गर्मी थी उनमें लाजवाब्।
हो गयीं मक़बूल दहशत-गर्दियाँ।
बन गयीं मामूल दहशत-गर्दियाँ॥
मुल्क में राइज ज़बानें हैं कई।
आ गयीं सब ज़िन्दगी भर कर नई॥
सबके अपने-अपने कितने ब्लाग हैं।
अपना है संगीत अपने राग हैं॥
ब्लाग की दुनिया को देता हूं दुआ।
इसके फलने-फूलने में है भला॥
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कल्पना माँ की मैं कर लेता हूं

कल्पना माँ की मैं कर लेता हूं।
ज़िन्दगी फूलों से भर लेता हूं॥

कैसी चिन्ताएं हैं कैसा दुख है,
कुछ ज़रा दिल की ख़बर लेता हूं॥

जब घनी धूप से घबराता हूं,
किसी साये में ठहर लेता हूं॥

जिसमें बस मेरा अकेलापन हो,
चुन के मैं ऐसी डगर लेता हूं॥

उम्र के साथ ढलानों की तरफ़,
मैं भी चुप-चाप उतर लेता हूं॥

कितनी अच्छी है ग़ज़ल की दुनिया,
वो सँवारे तो सँवर लेता हूं॥
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उल्झनें मन में अगर हैं तो समस्याएं हैं।

उल्झनें मन में अगर हैं तो समस्याएं हैं।
अन्यथा जीने में सौ तर्ह की सुविधाएं हैं॥

आस्थाओं में भी शायद कहीं स्थैर्य नहीं,
कभी विश्वास है मन में कभी दुविधाएं हैं॥

मार्ग दर्शक उन्हें स्वीकार करें हम कैसे,
ज़िन्दगी में जो कभी दाएं कभी बाएं हैं॥

जन्म लेती हैं वो चिन्ताओं के भीतर से कहीं,
हम समझते हैं जिन्हें राह की बाधाएं हैं॥

एक उद्देश्य है जिसके लिए गतिशील हैं हम,
मन में कुछ स्वप्न हैं,संकल्प है, आशाएं हैं॥
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रविवार, 11 अप्रैल 2010

युगीन वातायनों में किसका समय मुखर है / یگین واتا ینون میں کس کا سمے مکھر ہے

युगीन वातायनों में किसका समय मुखर है।
कोई तो है आज जिसकी चर्चा शिखर-शिखर है॥

हरी-हरी पत्तियाँ कहीं उग रही हों जैसे,
विपन्नताओं से मुक्त मन कुछ उठान पर है॥

शिविर में अब कल्पनाओं की राख तक नहीं है,
पड़ाव अन्तिम है ये कि आगे नया सफ़र है॥

मनोदशा पर मेरी मेरे मित्र हँस रहे हैं,
मैँ अपने ही घर को पूछता हूं ये किसका घर है॥

चलो किसी ने तो मुझको बढकर दिया सहारा,
किसी के मन में तो स्नेह मेरे लिए प्रखर है॥
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یگین واتا ینون میں کس کا سمے مکھر ہے
کوئی تو ہے آج جس کی چرچا شکھر شکھر ہے
ہری ہری پتیاں کہیں اگ رہی ہوں جیسے
وپنّتاؤن سے مکت من کچھ اٹھان پر ہے
شور میں اب کلپناؤن کی راکھ تک نہیں ہے
پڑاو انتم ہے یہ کہ آگے نیا سفر ہے
منو دشا پر مری مرے متر ہنس رھے ہیں
میں اپنے ہی گھر کو پوچھتا ہوں یہ کس کا گھر ہے
چلو کسی نے تو مجھ کو بڑھ کر دیا سہارا
کسی کے من میں تو سنیه میرے لیۓ پرکهر ہے
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निशा नीरव भी है निस्पन्द भी है / نشا نیرو بھی ہے نسپند بھی ہے

निशा नीरव भी है निस्पन्द भी है।
कि मन स्थिर भी है निर्द्वन्द भी है॥
वो मनमानी भी कर लेता है अक्सर,
वो मर्यादाओं का पाबन्द भी है॥
समय ठहरा नहीं रहता किसी क्षण,
समय गतिशील भी गतिमन्द भी है॥
न आयें किस तरह फूलों पे भँवरे,
कि अन्तस में छुपा मकरन्द भी है॥
ये पीड़ा कष्टप्रद भी है सुखद भी,
कि इस पीड़ा में कुछ आनन्द भी है॥
हमारी गुमशुदा संपन्नता का,
हमारे वस्त्र में पेवन्द भी है॥
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نشا نیرو بھی ہے نسپند بھی ہے
کہ من استہر بھی ہے نردوند بھی ہے
وہ من مانی بھی کر لیتا ہے اکثر
وہ مریاداؤن کا پابند بھی ہے
سمے ٹھہرا نہیں رہتا کسی چھن
سمے گتی شیل بھی گتی مند بھی ہے
نہ آئیں کس طرح پھولوں پہ بھنورے
کہ انتس میں چھپا مکرند بھی ہے
یہ پیڑا کشٹ پرد بھی ہے سکھد بھی
کہ اس پیڑا میں کچھ آنند بھی ہے
ہماری گم شدہ سمپنتا کا
ہمارے وستر میں پیوند بھی ہے
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खो जाता है मन क्यों बाल कथाओं में

खो जाता है मन क्यों बाल कथाओं में।
जादू सा है कथा सुनाती माओं में॥

परियों की संगत में उड़ता रहता हूं,
पंख से जुड़ जाते हैं मेरे पाओं में॥

उड़न खटोला आँगन में जब उतरेगा,
झूम के नाचूंगा मैं तेज़ हवाओं में॥

माँ का हाथ हो सिर पर तो चिन्ता कैसी,
फूल की ख़ुश्बू सी है माँ विपदाओं में॥

गाँव के पनघट की तस्वीरेंजीवित हैं,
गागर भर कर आती हुई घटाओं में॥
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کھو جاتا ہے من کیوں بال کتھا ؤن میں
جاد وسا ہے کتھا سنا تی ما ؤں میں
پریوں کی سنگت میں اڑتا رہتا ہوں
پنکھ سے جڑ جاتے ہیں میرے پاؤں میں
اڑن کھٹولا آنگن میں جب اترے گا
جھوم کے ناچوں گا میں تیز ہواؤں میں
ماں کا ہاتھ ہو سر پر تو چنتا کسی
پھول کی خوشبو سی ہے ماں وپداؤن میں
گاؤں کے پنگھٹ کی تصویریں جیوت ہیں
گاگر بھر کر آتی ہوئی گھٹاوں میں
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