मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

सच मानिए, ये बात, अजूबे से कम नहीं.

सच मानिए, ये बात, अजूबे से कम नहीं.
वो अजनबी, मेरे किसी अपने से कम नहीं.
आता है ज़ह्न में वो समंदर के पार से,
लह्जा भी उसका एक फ़रिश्ते से कम नहीं.
नापैद हो रहे हों जब आदाबे-ज़िन्दगी,
इस दौर में खुलूस भी तोह्फ़े से कम नहीं.
दो जानू बैठता है वो आलिम के सामने,
ये खुद्सुपुर्दगी किसी सजदे से कम नहीं.
सरकार ने किया है जो वादा अवाम से,
महबूब के, किये गये वादे से, कम नहीं.
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दिल्ली तबाह क्या हुई, बस इन्तेहा हुई.

दिल्ली तबाह क्या हुई, बस इन्तेहा हुई.
गालिब को भी ज़रूरते-हाजत-रवा हुई.
काबे को पीछे छोड़ गया वक़्त का ज़मीर,
राहे-कलीसा अपनी कशिश में सिवा हुई.
रखते हैं क्यों गुलामी के तमगे अज़ीज़ हम,
कैसे तबीअतों को ये पस्ती अता हुई.
इंसान को मआश की फिकरें निगल गयीं,
मजबूरियों की बस यही क़ीमत अदा हुई.
दहशतगारी को हाकिमों ने ही दिया उरूज,
जितने थे बे-कुसूर उन्हीं को सज़ा हुई.
क्यों जीना चाहते हैं रिआया की तर्ह लोग,
सरकार के ही हक़ में हमेशा दुआ हुई.
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विशेष : 1857 की महाक्रान्ति की विफलता के बाद की स्थिति से प्रभावित, मिर्जा गालिब की कुछ ग़ज़लों को केन्द्र में रखकर यह ग़ज़ल कही गई है.

तबाह=विनष्ट, ग़ालिब=उर्दू तथा फ़ारसी के प्रख्यात भारतीय कवि मिर्जा असदुल्लाह खाँ ग़ालिब [दिस.27, 1796-फ़र.15, 1869], ज़रूरते-हाजत-रवा=कामनाएं पूरी करने वाले की आवश्यकता, ज़मीर=अंतरात्मा, राहे-कलीसा= चर्च का मार्ग, ईसाईयत, तम्गे=पदक, अज़ीज़-प्रिय, पस्ती=गिरावट, अता=प्रदान, उरूज=ऊंचाई.

आराइशे-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो. / नासिर काज्मी

आराइशे-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो.
वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो.
ये क्या कि रोज़ एक सा गम एक सी उमीद,
इस रंजे बे-खुमार की अब इन्तेहा भी हो.
ये क्या कि एक तौर से गुज़रे तमाम उम्र,
जी चाहता है अब कोई तेरे सिवा भी हो.
टूटे कभी तो ख्वाबे-शबो-रोज़ का तिलिस्म,
इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो.
दीवानागीए-इश्क को क्या धुन है इन दिनों,
घर भी हो और बे-दरो-दीवार सा भी हो.
जुज़ दी, कोई माकन नहीं देहर में जहाँ,
रहज़न का खौफ भी न रहे, दर खुला भी हो.
हर ज़र्रा एक मह्मिले-इबरत है दश्त का,
लेकिन किसे दिखाऊं, कोई देखता भी हो.
हर शय पुकारती है पसे-परदए-सुकूत,
लेकिन किसे सुनाऊं कोई हमनवा भी हो.
फुर्सत में सुन शगुफ़्तगिए-गुंचा की सदा,
ये वो सुखन नहीं जो किसी ने कहा भी हो.
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चयन एवं प्रस्तुति : डॉ. परवेज़ फ़ातिमा

काटा गया दरख्त, कलेजा सिमट गया.

काटा गया दरख्त, कलेजा सिमट गया.
आरे से कट के, सर भी, दो टुकडों में बंट गया [1]
दिखलाई दी शजर की हरी पत्तियों में आग,
जब गुफ्तुगू हुई, तो जो परदा था हट गया.[2]
फेंका गया जो दरिया में, मछली निगल गई,
जिंदा रहा, हयात की जानिब पलट गया. [3]
फ़ौलाद उसकी उँगलियों के सामने था मोम,
मोडा जहाँ से चाहा, जहाँ चाहा कट गया. [4]
कूएँ में फेका उसको, हसद भाइयों को थी,
पायी ख़बर जो बाप ने, सीना ही फट गया. [5]
गायब जो हो चुकी थी, वो बीनाई आ गई,
बेटे का कुरता आंखों से जिसदम लिपट गया. [6]
शोले दहकती आग के सब फूल बन गए,
बातिल परस्त ताक़तों का ज़ोर घट गया. [7]
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विशेष : श्रीप्रद कुरआन में नबियों से सम्बद्ध जो कथाएँ उपलब्ध हैं, उन्हें अलग-अलग शेरों में संदर्भित किया गया है. [1] हज़रत ज़कारिया [2] हज़रत मूसा [3] हज़रत युनुस [4] हज़रत दाऊद [5] तथा [6] हज़रत याकूब और उनके बेटे हज़रत युसूफ [7] हज़रत इब्राहिम [अ.]

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

कितनी मासूम सी आवाज़ है, क्या लह्जा है.

कितनी मासूम सी आवाज़ है, क्या लह्जा है.
आबशारों सा है शफ़्फ़ाफ़, कोई अपना है.
ज़िन्दगी माहिए-बे-आब नहीं है फिर भी,
इस, ज़माने के समंदर में, बहोत खतरा है.
बे-ग़रज़ कोई, किसी से, कहीं, वाबस्ता नहीं,
एक का, दूसरे के साथ, अजब रिश्ता है.
हल इसे कर नहीं सकते हैं मुअम्मे की तरह,
मसअला ज़ीस्त का बे-इन्तेहा पेचीदा है.
चल पड़े जानिबे-मंजिल, तो हो कैसा भी सफर,
रहगुज़ारों में, कहीं बीच में, रुकना क्या है.
इसमें हर शै है तिलिस्मात की चादर ओढे,
गौर से देखिये, बे-मानी सी ये दुनिया है.
कब इस इंसान का हो जाय दरिन्दे का मिजाज,
कब फ़रिशतों सा लगे, किसने कभी सोचा है.
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मासूम=पाप-मुक्त, लह्जा=स्वर, आबशारों= झरनों, शफ़्फ़ाफ़=उज्ज्वल/ धवल/स्वच्छ, माहिए-बे-आब=बिना पानी की मछली, वाबस्ता=जुड़ा हुआ, ज़ीस्त=ज़िन्दगी, पेचीदा=घुमावदार, रहगुज़ारों=रास्तों, तिलिस्मात=मायाजाल, बे-मानी=अर्थहीन, दरिन्दे=फाड़ खाने वाले पशु, मिज़ाज=स्वभाव.

चराग़ बुझने का एहसास कुछ हुआ ही नहीं.


चराग़ बुझने का एहसास कुछ हुआ ही नहीं।
सभी थे नींद में गाफिल, उन्हें पता ही नहीं।
वो ज़र्फ़ जिसमें कि आबे-हयात था लब्रेज़,
लुढ़क के हो गया खाली, हुई सदा ही नहीं।
चहार सिम्त है बस एक आहनी दीवार,
निकलने के लिए कोई भी रास्ता ही नहीं।
उठा के लाये उसे अस्पताल में कुछ लोग,
कहीं भी पास अज़ीज़ और अक़रुबा ही नहीं।
मैं अपनी यादों को आवाज़ अब नहीं दूँगा,
कहेंगी साफ़, कि हमने तो कुछ सुना ही नहीं।
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दोस्तों से राब्ता रखना बहोत मुश्किल हुआ.

दोस्तों से राब्ता रखना बहोत मुश्किल हुआ.
कुछ खुशी, कुछ हौसला रखना बहोत मुश्किल हुआ.
वक़्त का शैतान हावी हो चुका है इस तरह,
दिल के गोशे में खुदा रखना बहोत मुश्किल हुआ.
किस तरफ़ जायेंगे क्या-क्या सूरतें होंगी कहाँ,
ज़ह्न में ये फैसला रखना बहोत मुश्किल हुआ.
हो चुके हैं फ़िक्र के लब खुश्क भी, मजरूह भी,
उन लबों पर अब दुआ रखना बहोत मुश्किल हुआ.
मान लेना चाहिए सारी खताएं हैं मेरी,
आज ख़ुद को बे-खता रखना बहोत मुश्किल हुआ,
कब कोई तूफाँ उठे, कब हो तबाही गामज़न,
मौसमे-गुल को जिला रखना बहोत मुश्किल हुआ.
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रविवार, 1 फ़रवरी 2009

ख़ुद से जो भी किए, रास आये न वादे मुझको.

ख़ुद से जो भी किए, रास आये न वादे मुझको.
दिल है मगमूम, कोई छीन ले, मुझ से, मुझको.
तेरे चहरे से, हुई हैं मेरी आँखें रौशन,
तेरी चौखट से मिले फ़िक्र के सांचे मुझको.
मेरे अश्कों में झलकते हैं लहू-रंग गुहर,
चाक कर दे कोई परदों को तो देखे मुझको.
अब न वो दर्द है सीने में, न अब है वो तबीब,
बोझ समझे न जहाँ, अब तो उठा ले मुझको.
जाने क्यों होता है हर लहज़ा ये एहसास मुझे,
दूर से जैसे कहीं कोई सदा दे मुझको.
देख ! बस नाम को बाक़ी है फ़क़त मेरा वुजूद,
मेरे हालात चुभो देते हैं नैज़े मुझको.
सामने बच्चों के रक्खीं नहीं क़द्रें अपनी,
रह गई दिल में तमन्ना कोई समझे मुझको.
कितने शमशीर-बकफ लम्हों से रहता हूँ घिरा,
क़त्ल कर दें न कहीं वक़्त के गुर्गे मुझको।

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खनक हँसी की न गूंजी, न गुनगुनाया कभी।

खनक हँसी की न गूंजी, न गुनगुनाया कभी।

वो चाँद घर के दरीचों में फिर न आया कभी।

कई शताब्दियाँ आयीं और बीत गयीं,

कृषक न अपना मुक़द्दर संवार पाया कभी।

भरोसा उसपे करूँ भी, तो किस तरह मैं करूँ,

कभी वो लगता है अपना, तो है पराया कभी।

अछूत ज़ात में जन्मा, अछूत बनके जिया,

मुझे किसी ने, गले से नहीं लगाया कभी।

सहारा देती जो, ऐसी न थी कोई दीवार,

किसी दरख्त की मुझको मिली न छाया कभी।

वो पहले मेरे ही घर में था, अब पड़ोसी है,

मैं क्या कहूँ, न मेरा साथ उसको भाया कभी।

ज़मीन छत की बहुत जल रही थी, धूप थी सख्त,

सुनहरा वक़्त वहाँ, हमने था बिताया कभी।

किसी को जाने की उसके, कोई भनक न लगी,

किसी भी आँख ने आंसू नहीं बहाया कभी।

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सुनाओ कोई कहानी कि रात कट जाए.

सुनाओ कोई कहानी कि रात कट जाए.
इसी तरह से है मुमकिन हयात कट जाए.
तुम्हारी बज़्म से उठ जाऊँगा अचानक मैं,
किसी की, बीच में ही जैसे बात कट जाए.
हमारे बच्चों की क़दरें बहोत हैं हमसे जुदा,
वुजूद से न किसी दिन ये ज़ात कट जाए.
पकड़ के रखते हैं मुहरों को लोग इस डर से,
जगह-जगह से न दिल की बिसात कट जाए.
फ़क़त वो ठूंठ सा होगा सभी की नज़रों में,
किसी शजर का अगर पात-पात कट जाए.
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