मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

दीप से दीप जलने की संभावना अब नहीं रह गई.

दीप से दीप जलने की संभावना अब नहीं रह गई.
चित्त में प्रज्ज्वलित थी जो संवेदना अब नहीं रह गई.
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आरती के सभी शब्द अधरों पे ही नृत्य करते रहे,
चीर कर मन निकलती थी जो प्रार्थना, अब नहीं रह गई.
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अब नहीं होतीं तेजस्वियों की सभाएं किसी मोड़ पर,
जिसमें चिंतन-मनन हो वो उदभावना अब नहीं रह गई.
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बाप बेटे, बहेन भाई माँ और बाबा सभी बँट गए,
एक जुट स्वस्थ परिवार की कल्पना अब नहीं रह गई,
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सबकी काया में आतंकवादी शरण ले रहे हैं कहीं,
एक की दूसरे के लिए सांत्वना अब नहीं रह गई.
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जिसको जो चाहिए बेझिझक आपसे छीन लेता है वो,
कोई बिनती-सुफारिश, कोई याचना अब नहीं रह गई.
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लक्ष्य पर दृष्टि पहले की सूरत ही सबकी है अब भी मगर,
लक्ष्य की प्राप्ति में अनवरत साधना अब नहीं रह गई.
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हमें अपने पड़ोसी से शिकायत बेसबब क्यों हो.

हमें अपने पड़ोसी से शिकायत बेसबब क्यों हो.
मिले वो प्यार से तो दिल में नफ़रत बेसबब क्यों हो.
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ये दहशत-गर्दियाँ उसके अगर क़ाबू से बाहर हैं,
तो उसके साथ कोई भी मुरौवत बेसबब क्यों हो.
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हमें तक़सीम जो कर दें वो रहबर हो नहीं सकते,
हमें उन रहबरों से फिर अकीदत बेसबब क्यों हो.
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न काम आयीं किसी लमहा करिश्मा-साज़ियाँ उसकी,
वो ऐसा हो न गर, उससे बगावत बेसबब क्यों हो.
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न हो कुछ भी अगर उस दिलरुबा, गुंचा-दहन बुत में,
सभी की उसपे यूँ मायल तबीयत बेसबब क्यों हो.
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नवाजिश बे-गरज करता नहीं इस दौर में कोई,
तो फिर ये आपकी चश्मे-इनायत बेसबब क्यों हो.
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सोमवार, 8 दिसंबर 2008

ज़मीन गुम थी कहीं, आसमान गायब था.

ज़मीन गुम थी कहीं, आसमान गायब था.
वुजूद होके मेरा बेनिशान, गायब था.
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हमें अज़ीज़ थीं फिरका-परस्तियाँ इतनी,
हमारे नक्शे से हिन्दोस्तान गायब था.
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सुबह मैं निकला था तो घर भी था मकान भी था,
जो लौटा शाम को घर था मकान गायब था.
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कहा था उसने कि नफ़रत को यूँ फ़रोग न दो,
ख़बर छपी तो ये सारा बयान गायब था.
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कबूतरों का था जमघट अभी यहाँ कल तक,
चलीं जो गोलोयाँ, भरकर उड़ान, गायब था.
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बनाया था जिसे उसने बहोत मुहब्बत से,
खुली जो आँख तो उसका जहान गायब था.
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चला था लेके मैं उस कारवान को हमराह,
अकेला रह गया मैं, कारवान गायब था.
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हम एक होके शगुफ़्ता-मिज़ाज लगते थे,
हमारे चेहरों से वहमो-गुमान गायब था.
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मयस्सर आज मुझे कूवते-बयान नहीं.


मयस्सर आज मुझे कूवते-बयान नहीं.
मैं कुछ कहूँ भी तो कहने को वो ज़बान नहीं.
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बलंदियाँ न कभी छू सकेंगे ख्वाब उनके,
घरों से जिनके नज़र आता आसमान नहीं.
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ज़मीन पाँव तले से खिसकती जाती है,
सरों पे साया जो दे ऐसा सायबान नहीं.
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लहू में कोई हरारत रही नहीं बाक़ी,
मेरे खुदा मेरा अब और इम्तेहान नहीं.
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यहाँ न आओ यहाँ नफ़रतें मिलेंगी तुम्हें,
मुहब्बतों के यहाँ आज क़द्रदान नहीं.
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गुलाब-रंग हों सुबहें धुली-धुली शामें,
हमारे शह्र को ऐसा कोई गुमान नहीं.
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बरतना उसको ज़रा इह्तियात से ‘जाफ़र’,
बगैर वज्ह के होता वो मेह्रबान नहीं.
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रविवार, 7 दिसंबर 2008

इस्लाम की समझ [क्रमशः 1.8]

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं

सुन्नी शरीयताचर्य अल- जुवायनी ने प्रबुद्ध मुस्लिम उलेमा पर पड़ने वाले जिस राजनीतिक दबाव का संकेत किया है उसे आसानी से नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता. उमैया वंश के खलीफाओं या शासकों को हाशमी वंश के प्रति सामान्य रूप से और नबीश्री की सुयोग्य संतानों के प्रति विशेष रूप से जो घृणा थी वह ढकी-छुपी नहीं थी. अपवाद स्वरुप दो एक को छोड़कर किसी भी सुन्नी आलिम में इतना साहस नहीं था कि वह शासकों की इच्छा के विरुद्ध कुछ लिख सके. फलस्वरूप इस्लामी चिंतन में निरंतर ऐसी रिवायतों का समावेश होता रहा जिससे नबीश्री युगीन इस्लाम के चेहरे में तब्दीली आती चली गई.
नबीश्री के बाद इस्लाम के बारह पथ-प्रदर्शक, अमीर या खलीफा होंगे, इस हदीस से इनकार इस लिए नहीं किया जा सका क्योंकि यह सभी प्रामाणिक ग्रंथों में मौजूद थी. किंतु खलीफा शब्द का अर्थ शासक या हुक्मराँ करके ऐसे-ऐसे गुल खिलाये गए जिन्हें देख कर इन आचार्यों की समझ पर तरस आता है. शासकों की दृष्टि में अपना सम्मान अक्षुण रखने के उद्देश्य से इन आचार्यों ने इस्लाम की पूरी इमारत ही जर्जर कर दी. इनके वक्तव्यों में इतना अधिक विरोधाभास और उलझाव है कि उसे सहज ही देखा जा सकता है.
क़ाज़ी इयाज़ [मृ0 544 हिजरी / 1149 ई0] ने हदीस के शब्दों को लेकर अटकलें लगाई हैं कि नबीश्री ने यह नहीं कहा है कि उनके बाद केवल बारह अमीर या खलीफा होंगे. यह संख्या बारह से अधिक भी हो सकती है.बारह की संख्या का संकेत उन खलीफाओं के लिए हो सकता है जिनके समय में इस्लाम को अन्य धर्मों कि तुलना में वर्चस्व प्राप्त था. अल-नवावी [1234-1278] ने भी इसी आशय की बहस की है और खलीफाओं या अमीरों का एक क्रम में होना स्वीकार नहीं किया है. [यहया इब्ने-अशरफ़ अल-नवावी, शरह सहीह मुस्लिम,12:201-202]
इब्ने अरबी [1165-1240 ई0] इन विचारों से सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि नबीश्री के निधनोपरांत हम जिस प्रकार बारह अमीरों की गणना करते हैं वह पर्याप्त भ्रामक है. हमारी गणना में अबूबकर, उमर, उस्मान, अली, हसन, मुआविया, यजीद, मुआविया आत्मज यजीद, मर्वान, अब्द-अल-मलिक आत्मज मर्वान, यजीद आत्मज अब्द-अल-मलिक, मर्वान आत्मज मुहम्मद आत्मज मर्वान, के नाम आते हैं. इसके बाद बनी अब्बास के बीस खलीफा और हैं. इसलिए मेरी समझ में इस हदीस का अर्थ नहीं आता. [शरह सुनान तिरमिजी, 9;68-69].
मिसरी लेखक जलालुद्दीन सुयूती [1445-1505 ई0] की अवधारणाएं और भी रोचक हैं. उनका विचार है कि नबीश्री की हदीस में जो बारह की संख्या है वह घटाई या बढाई नहीं जा सकती. किंतु उनका क्रम में होना अनिवार्य नहीं है. इन बारह में चार तो वही हैं जिन्हें हम राशिदीन [दीक्षा-प्राप्त] मानते हैं. इसके बाद हसन आत्मज अली, मुआविया आत्मज अबू सुफ़ियान और फिर इब्ने-जुबैर तथा उमर आत्मज अब्द-अल-अज़ीज़. इस प्रकार यह गिनती आठ हो जाती है. बाक़ी जो चार बचते हैं उनमें दो अब्बासी खलीफाओं को भी शामिल किया जा सकता है. बाक़ी दो में तो एक निश्चित रूप से इमाम मेहदी हैं जो नबीश्री के अहले-बेत में हैं और उनके प्रपौत्र हैं.[तारीख अल्खुलफा,खंड 12]
शरहे-फिक़हे-अकबर के लेखक मुल्ला अली अल-क़ारी अल-हनफ़ी [मृ0 1605 ई0] ने बारह पथप्रदर्शकों या खलीफाओं की हदीस के इस पक्ष को विशेष रूप से रेखांकित करते हुए कि जबतक यह बारह होंगे इस्लाम की छवि धूमिल नहीं होगी इनके नामों कि गणना इस प्रकार की है-अबूबकर, उमर, उस्मान, अली, मुआविया आत्मज अबू सुफियान, यजीद आत्मज मुआविया,अब्द-अल-मलिक आत्मज मर्वान, वलीद आत्मज अब्द-अल-मलिक,सुलेमान आत्मज अब्द-अल-मलिक,उमर आत्मज अब्द-अल-अज़ीज़, यजीद आत्मज अब्द-अल-मलिक आत्मज मर्वान तथा हशाम आत्मज अब्द-अल-मलिक आत्मज मर्वान.[जिक्र-फ़ज़ाइले-उन्स बाद-अन-नबी,पृ070] द्रष्टव्य है कि मुल्ला अली अल-क़ारी ने इस सूची में इमाम मेहदी का नाम नहीं दिया है जिन्हें सुन्नी शीआ दोनों ही निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं.
अबूबकर अहमद इब्ने-हुसैन अल-बैहकी [994-1055 ई0] का मत है कि बारह की संख्या वलीद आत्मज अब्द-अल-मलिक तक समाप्त हो जाती है. उसके बाद का समय उथल-पुथल का है.स्थिति के सामान्य होने पर अब्बासियों का दौर आता है. यदि उन्हें शामिल कर लिया जाय तो इमामों [खलीफाओं] की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है. बैहकी के इस विचार को इब्ने-कसीर [ तारीख, 6:249], सुयूती [तारीख अल-खुलफा, खंड 11], इब्ने-हजर अल-मक्की, [सवाइक़ अल-मुहरिका, खंड 19] तथा इब्ने-हजर अस्क़लानी [फ़तह अल-बारी, 16:34] ने उद्धृत किया है और इसपर बहसें की हैं. इब्ने कसीर ने बैहकी की अवधारणा मानने वालों को विवादस्पद सम्प्रदाय के रूप में देखा है. वे प्रथम चार खलीफाओं के बाद हसन इब्ने अली, मुआविया, यजीद इब्ने मुआविया,मुआविया इब्ने यजीद,मर्वान इब्ने अल-हकम, अब्द-अल-मलिक इब्ने मरवान, वलीद इब्ने-अब्द-अ-मलिक, सुलेमान इब्ने अब्द-अल-मलिक, उमर इब्ने-अब्द-अल-अज़ीज़, यजीद इब्ने-अब्द-अल-मलिक और अंत में हिशाम इब्ने अब्द- अल -मलिक का उल्लेख करते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि इनकी संख्या पन्द्रह हो जाती है और यदि इब्ने जुबेर को भी स्वीकार कर लिया जाय तो यह संख्या सोलह हो जायेगी.
उपर्युक्त बहस में उलझ कर इब्ने कसीर एक दूर की कौडी लाते हैं. वे कहते हैं कि यदि यह मान लिया जाय कि मुसलमानों का खलीफा वह है जिसे सम्पूर्ण उम्मत का विश्वास मत प्राप्त हो, तो अली इब्ने-अबीतालिब और हसन इब्ने अली को उनमें शामिल नहीं किया जा सकता क्योंकि उन्हें सम्पूर्ण उम्मत का सहयोग प्राप्त नहीं था. सीरिया के धर्माचार्यों ने कदाचित इसी लिए उनका वर्चस्व तो स्वीकार किया है किंतु उनका खलीफा होना स्वीकार नहीं किया. इब्ने कसीर की यह अवधारणाएँ हास्यास्पद सी होकर रह जाती हैं और इनमें हाशमी वंश विरोधी और नबीश्री की अनेक हदीसों को, जिनपर आम सुन्नियों का विशवास है, नज़र-अंदाज़ करने की गंध साफ़-साफ़ देखी जा सकती है. इब्न-अल-जौज़ी [मृ0597 हि0] ने कशफ़-अल-मुश्किल में इसी प्रकार की और भी अटकलें लगाई हैं. किंतु इब्ने-हजर अस्क़लानी ने फतहल्बारी में उनके सभी तर्कों को खंडित कर दिया है. यह और बात है कि वे भी किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंचे हैं और अंत में उन्हें स्वीकार करना पड़ा है कि ‘सच्चाई तो यह है कि सहीह बुखारी की बारह पथ-प्रदर्शकों, अमीरों या खलीफाओं वाली हदीस के सम्बन्ध में किसी का ज्ञान अपने आप में पूर्ण नहीं है.’
भारतीय हनफी मुस्लिम धर्माचार्य शाह वलीउल्लाह [1703-1762 ई0] जिनकी ख्याति सुन्नी मुस्लिम जगत में पर्याप्त अधिक है, नबीश्री की संतानों में जो बारह इमामों की परम्परा है, उसे सहीह बुखारी की बारह अमीरों या खलीफाओं वाली हदीस से जोड़कर देखने के पक्ष में नहीं हैं. उनका मानना है कि खलीफा शब्द में शासक होने का जो भाव है, उसे वे पूरा नहीं करते. वैसे भी उन्हें इमाम कहा जाता है, खलीफा नहीं. वे प्रथम चार खलीफाओं के बाद मुआविया, अब्द-अल-मलिक, उसके चार पुत्र, उमर इब्न अब्द-अल-अज़ीज़ तथा वलीद इब्न अब्द-अल-मलिक की गणना उन बारह खलीफाओं के रूप में करते हैं जिनका नबीश्री की हदीस में संकेत है. स्पष्ट है कि नबीश्री के प्रपौत्र इमाम महदी को जिन्हें लगभग सभी उच्च कोटि के सुन्नी शीआ धर्माचार्य अन्तिम अमीर, पथ-प्रदर्शक, इमाम, या खलीफा स्वीकार करते हैं, शाह वलीउल्लाह अपनी सूची में सम्मिलित नहीं करते.
इमाम अल-महदी के अन्तिम खलीफा या अमीर होने से सम्बद्ध विश्वसनीयता इतनी अधिक थी कि अल-जौजी ने बारह खलीफाओं की बुखारी की हदीस को इमाम-अल-महदी को केन्द्र में रखते हुए इसकी व्याख्या की कुछ नई संभावनाएं भी तलाश कीं. उन्होंने लिखा कि इमाम महदी का आविर्भाव उस समय होगा जब इस संसार का अंत होने वाला होगा.उनके निधन पर बड़े बेटे के पाँच और छोटे बेटे के पाँच पुत्र उत्तराधिकारी होंगे. अंत में अन्तिम उत्तराधिकारी बड़े बेटे के वारिसों में से एक के पक्ष में वसीयत करेगा कि वह शासक होगा. इस प्रकार नबीश्री की हदीस में संदर्भित बारह इमाम होंगे. सभी को अल-महदी कहा जायेगा. इस प्रकार यही वह बारह विभूतियाँ होंगी जो विश्व में शान्ति स्थापित करेंगी. इनमें से छे हसन कि संतानों में से और पाँच हुसैन की संतानों में से होंगे. अन्तिम कोई और होगा.इब्ने हजर अस्क़लानी और इब्ने हजर मक्की ने इस संभावना को निराधार बताया है. उनकी धारण है कि इस प्रकार की हदीस मात्र अपवाद है. इसकी कोई परम्परा नहीं मिलती. [फतह-अल-बारी, 16:341 तथा सवाइक़ अल-मुहरिका, खंड 19 ]
सुन्नी शीआ दोनों ही समुदाय के कुछ आचार्य नबीश्री के निधनोपरांत इस्लाम के बारह पथ-प्रदर्शकों, अमीरों या खलीफाओं के सन्दर्भ इंजील [बाइबिल] और तौरात [ओल्ड टेस्टामेंट] में भी देखने के पक्षधर हैं. बाइबिल के जेनेसिस की कुछ पंक्तियाँ इस प्रसंग में इस प्रकार हैं-"इब्राहिम उदासीन थे और भीतर ही भीतर हंसकर वे अपने आप से कह रहे थे 'क्या एक सौ वर्ष के वृद्ध को भी संतान लाभ हो सकता है ? क्या सारा नव्वे वर्ष की अवस्था में गर्भ धारण कर सकती है ?' फिर इब्राहीम ने ईश्वर से कहा- 'क्या यह नहीं हो सकता [कि मेरा बेटा] इस्माईल ही तुम्हारा आशीर्वाद प्राप्त करता रहे ? ईश्वर ने उत्तर दिया-"क्यों नहीं, किंतु तुम्हारी पत्नी सारा तुम्हें एक पुत्र-आभ देगी और तुम उसे इसहाक़ पुकारोगे. मैं उसके और उसके वारिसों के साथ कभी न समाप्त होने वाली कृपा रखूँगा.और जहांतक इस्माईल का सम्बन्ध है, मैं निश्चित रूप से उसे अपना आशीर्वाद दूंगा.मैं उसे फलदायक बनाऊंगा और उसकी संख्या में विस्तार करूँगा. वह बारह शासकों का पिता होगा और मैं उसे एक बड़ी क़ौम के रूप में प्रतिष्ठित करूंगा."[जेनेसिस 17:17:21].
सामान्य रूप से बाइबिल में संदर्भित बारह शासकों को हज़रत इस्माईल [अ.] की बारह संतानें माना जाता है किंतु मुस्लिम समुदाय इन्हें धर्म-निरपेक्ष शासक न मानकर धर्म विशेष से जोड़ता है और बाइबिल में संदर्भित इस्माईल की संतानों के नामों को बाद में जोड़ा गया समझता है. शीआ समुदाय की निश्चित अवधारणा है कि यहाँ शासकों से अभिप्राय नबी और इमाम से है. अंग्रेज़ी भाषा में जिस 'ग्रेट नेशन' शब्द का प्रयोग किया गया है उसका अनुवाद मुस्लिम आचार्य 'महान साम्राज्य' न करके 'बड़ी क़ौम' अर्थात मुसलमान करने के पक्ष में हैं. शीआ धर्माचार्य बारह इमामों को केवल धार्मिक पथ-प्रदर्शक ही नहीं मानते उन्हें सम्पूर्ण मानव जाति का उद्धारक और शासक भी मानते हैं. तारीख-इब्ने कसीर में श्रीप्रद कुरआन के प्रसिद्द व्याख्याता हाफिज़ इब्ने कसीर ने लिखा है कि तौरात में जो यहूदियों के कब्जे में है और इंजील में भी अल्लाह ने बारह सशक्त विभूतियों की भविष्यवाणी की है जिन्हें हज़रत इस्माईल [अ.] की संतानों में आगे चलकर जन्म लेना है. इब्ने तैमिया ने इन्हें वही बारह विभूतियाँ बताया है जिनका सन्दर्भ जाबिर बिन समूरा द्वारा प्रस्तु नबीश्री की हदीस में वर्णित उस संख्या से है जो बारह इमामों से सम्बद्ध है. [तारीख इब्ने कसीर : 250]
उपर्युक्त अवधारणाओं के प्रकाश में यह तथ्य बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि अन्तिम नबीश्री [स.] के जीवन काल में कुरेश के विभिन्न क़बीलों में सामान्य रूप से और उमैय्या वंश में विशेष रूप से कबीला बनी हाशिम के विरुद्ध विद्वेष की जो चिंगारी सुलग रही थी वह प्रथम खलीफा के निर्वाचन के बाद से समय और परिस्थितियों के अनुकूल सत्ता की राजनीति का सहारा पाकर निरंतर ज़ोर पकड़ती गई. उमैया वंश को इस्लाम के विरोध में लड़ी जाने वाली लड़ाईयों में अपने अनेक महत्वपूर्ण योद्धा खोने पड़े थे जिसकी पीड़ा वे इस्लाम स्वीकार कर लेने के बाद भी कभी नहीं भुला पाये. और सत्ता में आने के बाद यह पीड़ा और भी गहरा गई थी. उन्होंने इस्लाम को अपनी खुशी से स्वीकार नहीं किया था. नबीश्री की [स.] मक्का विजय के पश्चात् उनके समक्ष कोई और विकल्प नहीं रह गया था. इस्लाम के सबसे सशक्त विरोधी अबूसुफियान का बेटा मुआविया प्रारम्भिक इस्लामी खलीफाओं का कृपा-पात्र बना रहा और द्वितीय तथा तृतीय खलीफा के दौर में शाम के गवर्नर के रूप में उसने अपनी जड़ें पूरी तरह जमा ली थीं. फलस्वरूप बनी हाशिम के प्रतिनिधि हज़रत अली [र.] जब खलीफा बनाए गए, मुआविया ने अपनी पूर्ण सत्तात्मक शक्ति उनके विरोध में झोंक दी और उन्हें एक पल भी चैन से नहीं बैठने दिया. साम, दाम, दंड, भेद की जो शुरूआत प्रथम खलीफा हज़रत अबूबक्र [र.] के समय में हुई थी, मुआविया ने उसे चरम शिखर पर पहुँचा दिया. इस वातावरण की पृष्ठभूमि में मुस्लिम धर्माचार्यों कि मानसिकता इस्लाम की आत्मा से जुड़ने की उतनी नहीं रह गई थी, जितनी सत्ता का कृपा-पात्र बनने की थी. सुन्नी शरीयताचार्य अल-जुवायानी ने इस तथ्य को गहराई से महसूस किया था जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है. बारह खलीफाओं से सम्बद्ध हदीस की व्याख्या में बनी-हाशिम विरोधी और नबीश्री [स.] की सुयोग्य [अह्ल] तथा छोटे बड़े गुनाहों से मुक्त [मुत्तकी] संतति के प्रति विद्वेष के स्वर आसानी से देखे और पढ़े जा सकते हैं.
वस्तुतः देखा जाय तो अधिकाँश सुन्नी धर्माचार्यों की मानसिकता के पीछे कुरेश की वही अवधारणा कार्य कर रही है जिसकी अभिव्यक्ति हज़रत उमर [र.] ने अपने खिलाफतकाल में इब्ने अब्बास से कर दी थी कि कुरेश यह निर्णय ले चुके हैं कि नबूवत और खिलाफत दोनों बनी हाशिम में नहीं जाने देंगे. नबूवत के मामले में तो वे कुछ नहीं कर पाये हाँ यह अवश्य है कि उन्होंने उसके आध्यात्मिक पहलू को कभी महत्त्व नहीं दिया. किंतु खिलाफत उनकी दृष्टि में ईश्वरप्रदत्त नहीं थी इसलिए इस संस्था को अपनी इच्छानुरूप मज़बूत करने के भरपूर प्रयास किए. अब चूँकि सहाहि-सित्ता [सुन्नी धर्माचार्यों द्बारा स्वीकार किए गए छे प्रामाणिक ग्रन्थ] में बारह अमीरों या खलीफाओं वाली हदीस समान रूप से पाई जाती थी, इसलिए उनके समक्ष विचित्र धर्म-संकट था. हदीस से इनकार कर नहीं सकते थे. और नबीश्री की संतति में जिन बारह सुयोग्य सात्विक इमामों की चर्चा की जाती है, राजनीति-प्रेरित प्रारम्भ से चले आ रहे द्वेष के कारण, उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते थे. फलस्वरूप मुआविया के बेटे यजीद तक को, जिसे सुन्नी समुदाय का लगभग हर व्यक्ति, नबीश्री के नवासे हज़रत इमाम हुसैन [र.], उनके परिजनों और सहयोगियों को कर्बला में शहीद कर देने और शराबी तथा दुष्कर्मी होने के कारण घृणा के योग्य समझता है, सुन्नी धर्माचार्यों ने बारह खलीफाओं की सूची में सम्मिलित कर लिया.
यह स्थिति श्रीप्रद कुरआन की कुछ महत्वपूर्ण आयतों और विशिष्ट सम्मानित हदीसों को सिरे से नज़रंदाज़ कर देने के कारण पैदा हुई. हज़रत इब्राहीम [अ.] से पूर्व जितने भी सम्मानित नबी हुए उनमें से कुछ एक रसूल भी थे. किंतु हज़रत इब्राहीम [अ.] को यह श्रेय प्राप्त था कि वे नबी और रसूल होने के साथ-साथ पेशवा, मार्ग-दर्शक और इमाम भी थे. इमाम का यह महत्वपूर्ण पद नबीश्री हज़रत इब्राहीम [अ.] को श्रीप्रद कुरआन के प्रकाश में एक कड़ी परीक्षा से गुजरने के बाद प्राप्त हुआ. श्रीप्रद कुरआन के शब्दों में-"व इज़िब्तला इब्राहीम रब्बुहू बिकलिमातिन फ़अतम्महुन्न. क़ाल इन्नी जाइलुक लिन्नासि इमामन.[श्रीप्रद कुरआन 2/124]" अर्थात 'जब परवरदिगार ने हज़रत इब्राहीम की परीक्षा ली तो वे उसमें खरे उतरे. [परवरदिगार ने] कहा मैं तुमको मानव जाति का पेशवा [इमाम / मार्ग-दर्शक] बनाऊँगा.' स्पष्ट है कि इमाम एक ऐसा पद है जिसे परवरदिगार बिना परीक्षा से गुज़ारे किसी को प्रदान नहीं करता. हज़रत इब्राहीम ने जब इस पद के महत्त्व को पहचाना तो उनके मन में इच्छा जागी कि उनकी संतति में भी इस पद को होना चाहिए. उन्होंने अपने परवरदिगार से जिज्ञासावश पूछा "व मिन ज़ुर्रीयती" अर्थात 'और मेरी संतति में?' उत्तर मिला 'यह पद मिलेगा तो, किंतु उन्हें नहीं जो अत्याचारी हैं-"क़ाल लायनालु अहदिज्ज़लिमीन"[श्रीप्रद कुरआन, 2/124]. गोया सचेत कर दिया गया कि अल्लाह अपने सम्मानित और दायित्वपूर्ण पद नबी की संतति में भी केवल उन्हीं को प्रदान करता है जो चारित्रिक दृष्टि से सुयोग्य [अह्ल] होते हैं.
मुसलमानों का कोई मसलक ऐसा नहीं है जो नबीश्री हज़रत मुहम्मद [स.] को अन्तिम नबी और अन्तिम रसूल न मनाता हो. किंतु कुछ सुन्नी धर्माचार्य यह भूल जाते हैं कि नबीश्री हज़रत मुहम्मद [स.] अल्लाह द्वारा चयनित इमाम भी थे. और यह पद उनके निधनोपरांत समाप्त नहीं हुआ था. नबीश्री ने अपने बाद जिन बारह अमीरों के होने की बात की थी उसे हज़रत इब्राहीम की प्रार्थना के प्रकाश में देखा जाना चाहिए. जहाँ उनकी संतति में अल्लाह ने उनकी प्रार्थना के अनुरूप हज़रत मुहम्मद [स.] जैसा नबी पैदा किया वहीं उनकी संतति में अन्तिम नबी के निधनोपरांत बारह इमाम या अमीर अथवा पेशवा भी पैदा किए जो चारित्रिक दृष्टि से नबीश्री [स.] की ही तरह सात्विक और छोटे-बड़े गुनाहों से पाक थे और जिनके नामों की घोषणा सुन्नी धर्माचार्य अल-जुवायनी के अनुसार नबीश्री [स.] ने स्पष्ट शब्दों में कर दी थी. ईमान वालों के इन अमीरों के नाम इस प्रकार हैं.1.अमीरुल्मोमिनीन अली इब्ने अबी तालिब अल-मुर्तज़ा 2. अमीरुल्मोमिनीन हसन इब्ने अली अल-मुजतबा 3. अमीरुल्मोमिनीन हुसैन इब्ने-अली अल-शहीद 4.अमीरुल्मोमिनीन अली इब्ने हुसैन जैनुलाबिदीन अल-सज्जाद 5. अमीरुल्मोमिनीन मुहम्मद इब्ने अली अल-बाक़र 6. अमीरुल्मोमिनीन जाफर इब्ने मुहम्मद अल-सादिक 7. अमीरुल्मोमिनीन मूसा इब्ने जाफर अल-काजिम 8. अमीरुल्मोमिनीन अली इब्ने मूसा अल-रिज़ा 9. अमीरुल्मोमिनीन मुहम्मद इब्ने अली तकी अल-जव्वाद 10. अमीरुल्मोमिनीन अली इब्ने मुहम्मद नकी अल-हादी 11. अमीरुल्मोमिनीन हसन इब्ने अली अल-अस्करी 12. अमीरुल्मोमिनीन मुहम्मद इब्ने हसन अल-महदी. अन्तिम अमीर अल-महदी के सम्बन्ध में सुन्नी धर्माचार्यों की अवधारणा यह है कि वे क़यामत से पहले जन्म लेंगे. शीअया धर्माचार्य मानते हैं कि वे जन्म ले चुके हैं और अल्लाह ने उन्हें अदृश्य कर दिया है. वे क़यामत से पूर्व प्रकट होंगे.
*************** क्रमशः

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

लू के झक्कड़ सर्दियों में रात भर चलते रहे.

लू के झक्कड़ सर्दियों में रात भर चलते रहे.
गंध से बारूद की डर कर सभी दुबके रहे.
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धूएँ के बादल घुसे शयनायनों में बदहवास,
धड़कनों को मौत की चुप-चाप हम सुनते रहे.
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खून में लथ-पथ हवाएं बांचने आयीं कथा,
शब्द साँसों में पिघलकर देर तक रिसते रहे.
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लाल थे वीरांगनाओं के हुए थे जो शहीद,
हर जगह वातावरण में बस यही चर्चे रहे.
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क्या पता होते हैं ये वीभत्स हत्याकांड क्यों,
हम इन्हीं प्रश्नों के भीतर रात-दिन उलझे रहे.
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दैत्य सी छायाएं नेताओं की आयीं सामने,
उनके दुष्कृत्यों से होकर क्षुब्ध हम टूटे रहे.
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शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

देख कर वातावरण पहले तो थर्राई ग़ज़ल.



देख कर वातावरण पहले तो थर्राई ग़ज़ल.
प्रेम की सौगात लेकर फिर निकल आई ग़ज़ल.
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धूप मतला, छाँव मक़ता, शेर सुरभित क्यारियाँ,
गा रही थी आज मेरे घर की अंगनाई ग़ज़ल.
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लोग थे संत्रस्त खोकर शान्ति की पूँजी वहाँ,
कर रही थी हौले-हौले सबकी भरपाई ग़ज़ल.
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आपके, मेरे, सभी के चूम लेती है अधर,
सब विधाओं से अलग दिखती है हरजाई ग़ज़ल.
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जाने क्यों ख़ुद अपनी ही गहराइयों में खो गई,
नापने निकली समुन्दर की जो गहराई ग़ज़ल.
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लखनवी कुरते पहेनकर भी कभी तो देखिये,
सूई धागे की है हर बारीक तुरपाई ग़ज़ल.
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सारा अल्ल्हड़पन अकेले में था दर्पण के समक्ष,
जब मिली मुझसे तो सिमटी और शरमाई ग़ज़ल.
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मुग्ध होकर सुन रहा था मैं कई मित्रों के साथ,
सूर के पद और तुलसी की थी चौपाई ग़ज़ल.
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मुझको अब 'शैलेश' कोई भी लुभा सकता नहीं,
सामने है मेरी आंखों के वो गदराई ग़ज़ल.
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जोश में आकर बहुत कुछ यूँ तो हैं कहते सभी.

जोश में आकर बहुत कुछ यूँ तो हैं कहते सभी.
पर स्वयं को इस तरह देते हैं क्यों धोखे सभी.
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रेलवे स्टेशनों पर अब कुली मिलते नहीं,
अपना-अपना बोझ अच्छा है कि हैं ढोते सभी.
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आजके नेताओं की है सोच कैसी अटपटी,
बूँद भर पानी में खाते रहते हैं गोते सभी.
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राजनीतिक धर्म हो या धार्मिक हो राजनीति,
दोनों स्थितियों में केवल ज़ह्र हैं बोते सभी.
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प्रेम मानवता से हो या देश के भू-भाग से,
प्रेम अमृत है, इसे हैं मुफ़्त में खोते सभी.
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धार्मिकता के नशे में शत्रुता का बोध है,
आयातों, मंत्रों में रख लेते हैं हथगोले सभी.
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एकता की बात सदियों से किया करते हैं हम,
एकता के सूत्र में फिर भी नहीं बंधते सभी.
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अब किसे बनवास दोगे [ राम काव्य / पुष्प : 2 ]

पुष्प 2 : खाईं बहुत गहरी है

[एक]

बातें सभी करते हैं मायावी,
रहते हैं व्यस्त सब जुटाने में हथियार,
चाहते हैं होना एक-दूसरे पर हावी.
अर्थहीन शब्दों का
करते हैं आये दिन व्यापार.
विकसित, विकासशील और अल्पविकसित,
स्थिति सभी देशों की
लगभग है एक सी.

रेंगती है आसुरी मनोवृत्ति
सैकड़ों फनों के साथ.
चौड़े विशाल वक्षों के भीतर से
झाँकती हैं, चारों दिशाओं में
दैत्याकार शक्लें.
लम्बी जबानें,
लाल-लाल आँखें,
भूखी, अतृप्त-आत्माएँ.
जनवादी चेहरों से आती है
सुलगते बारुद की महक.
शक्ति-सम्पन्न देश
लम्बी नुकीली उंगलियों पर चलाते हैं
लहू की रेलगाड़ी -
छक-छक-छकाछक!
कांटे ही काँटे हैं,
सूझता नहीं है पथ.
छाया है चारों दिशाओं में अन्धकार.

व्याकुल, निराश, संत्रास-ग्रस्त पृथ्वी,
याचना की मूर्त्ति सी बनी,
सिर धुनती है,
चीखती चिल्लाती है,
काँप-काँप जाती है .
वैज्ञानिक विकास के रेतीले शिखरों पर
खड़े हुए देशों का संवेदन-शून्य मन,
खो चुका है आस्वादन
जीवन का,
उड़ता है आदमी हवा में
जैसे एक तिनका.
धरती और धरती के बीच
खाईं बहुत गहरी है.

[दो]
मैं करता हूँ महसूस
कि शायद मुझमें नहीं है
खाईं पाटने की ताकत.
जुटाना चाहता हूँ मैं अपनी मुटिठ्यों में,
आदमी का हक बाँटने की ताकत.
और जब देखता हूँ अपनी ढीली मुटिठ्यों को,
हथेली की रेखाएँ
रेंग जाती हैं मेरे भीतर.
तराशती हैं याददाश्तों के पत्थर.
उभारती हैं ताकतवर छवियाँ.
मुझे लगता है कि इन छवियों से मिलकर,
हो जाता है आसान,
आदमी को उसका हक बाँटना.
मुझे आता है याद
कि स्थितियाँ उस समय भी
लगभग ऐसी ही थीं,
फैला था इसी तरह आतंक पृथ्वी पर
चारों ओर,
आसुरी शक्तियों से प्रकम्पित थी धरती
इसी तरह.


मायावी घटाएँ,
भूमण्डल को घेरकर
कर रही थीं तारीक.
सुर और असुर शब्दों के बीच
पिस रही थी मानव की संस्कृति
इसी तरह
बारीक!
रेंगती थीं सैकड़ों फनों के साथ
लुंज-पुंज ! विशाक्त ! अपाहिज मान्यताएं.
वैसे तो सुर और असुर होना,
हो सकता है ईश्वरीय वरदान और
अभिशाप का नतीजा.
पर मनुष्य होना है ईश्वर की इच्छा
और ईश्वर की इच्छा
उसके वरदान और अभिशाप से
कहीं अधिक ताकतवर है.
क्योंकि वरदान है उसकी इच्छा के समक्ष
सिर झुकाने का पुरस्कार,
और अभिशाप इसी इच्छा की
अस्वीकृति पर
लगी हुई ठोकर ।
इसलिए वह जो सही अर्थों में मनुष्य है,
पूर्ण मानव है,
ईश्वरीय संस्कृति का उद्गम है,
मर्यादा पुरुषोत्तम है,
मानव का ही नहीं,
स्वयं ईश्वर का प्रियतम है,
उसकी यह पूर्णता ही
ईश्वरीय लीला है.
और यह लीला आदमी को देती है आज़ादी
आदमी की तरह जीने की.
पृथ्वी को करती है सुसंस्कृत.
मैं इसी लीला में देखता हूँ
सौन्दर्यशील ईश्वर के,
अनश्वर, असीम सौन्दर्य की छटा.
मैं इसी में करता हूँ महसूस
आदमी से आदमी के प्यार की घटा.

[तीन]
बांचती हैं यादें एक इतिहास।
सरयू के जल में नहायी अयोध्या की धरती,
होती है जीवन्त आंखों के समक्ष.
गूँजती हैं कानों में सौम्य किल्कारियाँ,
ध्वनियाँ बधावों की,
वेदों के मन्त्रों की,
ग्राम-ग्राम, नगर-नगर.
गूँजते हैं गीतों के मोहक स्वर,
आठ पहर.
आरती उतारती हैं वधुएं रघुनायक की.
हरा भरा दीखती है सारा भूमण्डल.
काँपने लगे हैं खल.
खेतों खलिहानों से उड़ती हैं जीवन की लहरें,
बाँचती हैं यादें एक इतिहास.
देखता हूँ मैं कि एक संवेदनशील मन,
आँखों में झूमता है जिसकी,
स्वस्थ जिन्दगियों का सावन.
बाँटता है राज्य-कोष से अपार धन राशि
जनता में,
वर्ण और जाति के भेदों से उठकर बहुत ऊपर,
भरता है प्रजा में आत्म-विश्वास
और फैला देता है अपने चेहरे का तेज
आम इनसानों के चेहरे पर.

[चार]

चुनता है प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए
कोई न कोई एक व्यवसाय.
मैंने भी चुनी है एक शिक्षक की नियति.
मेरी यह नियति, मुझे गुजारती है,
अध्ययन-अध्यापन के मार्ग से
नित्य प्रति.
कभी कभी लगता है मुझको, कि मेरा ज्ञान
बन्द है उपाधियों के भीतर,
मथकर समुद्र कोई मुक्ता निकालने में
आज तक हूँ असमर्थ.
सागर के तट पर पड़े सीपों को
चुन-चुन कर,
मग्न हो जाता हूँ.
सीपों के भस्म से, मोती बनाता हूँ,
और उस मोती के आबदार होने की चर्चा
करता हूँ जोरदार शब्दों में.

किन्तु वह शिक्षाविद!
महर्षि विश्वामित्र,
सीप नहीं चुनता था,
मोती निकालता था सागर से,
जानता था मोतियों की पहचान.
सीमित नहीं था ज्ञान उसका मेरी तरह.
शब्दों से खेलता नहीं था वह,
तैरती थी शब्द-शब्द जीवन की सच्चाई
आखों में उसके.
आसुरी शक्तियों से आतंकित धरती को,
चाहता था देना आजादी.
विषाक्त जिन्दगियों में चाहता था भरना,
विश्वास का अमृत.
मिथिला प्रदेश ही नहीं, सम्पूर्ण देश
रखता था आशाएं उससे.
दाश्रथीय सागर के बहुमूल्य मोतियों
को चुनकर, वह
चाहता था, खाई में पड़ी मातृभूमि
को ऊपर उठाना,
राम और लक्ष्मण को पाकर वह
भरने लगा रंग, अपनी चाहों में.
गूँजीं वन खण्डों में
जगीन और काकनासुर की चींखें.
सुबाहु की हिचकियाँ.
असुरों का अस्तित्व हो गया धुआँ.
दूषित हवाओं में घुल गयी पूष्पों की महक.

पर में जब देखता हूँ आज !
महानगरों की दैत्याकार ऊँचाई,
खुले हुए जबड़ों का फैलाव,
फैलाव में ठुंसता जन समूह.
लगता है मुझे कि वन खण्डों से निकल कर
असुरों ने
ली है पनाह महानगरों में,
और धंस गये हैं
लम्बी-चौड़ी चहारदीवारियें से घिरी
इमारतों के भीतर.
मुझे लगता है कि वे जब खींचते हैं साँस,
तो हवा के साथ चली जाती है
पेट के गोदाम में,
ढेर सारी जनता.
और जब वे साँस छोड़ते हैं,
तो लग जाता है उसी जनता की हड्डियों का ढेर.
फिर एक बात ये भी है,
कि मुश्किल है इन असुरों की पहचान.
क्योंकि नहीं है आज हमारे बीच, कोई विश्वामित्र!
जो रखता हो राम और लक्ष्मण की परख,
और सिखा सकता हो उन्हें
बला और अतिबला मन्त्र !

[पांच]

यह ठीक है कि मैं नहीं हूं महर्षि विश्वामित्र,
शिक्षाविद होने का दावा भी नहीं है मुझे,
फिर भी मनोबल एक भरता है मुझ में
भारतीय संस्कृति का धवल पुंज,
राम का चरित्र !
मैं इस चरित्र को देखता हूँ-
दशरथ के आँगन में,
सरयू की धड़कन में,
ऋषियों के आश्रम में,
गंगा के सरगम में,
कुंज और कानन में,
जानकी के मन में,
जग-जग के जीवन में.

राम को परम ब्रह्म मानकर,
चाहता नहीं मैं बिठाना देवालय में.
राम ! मर्यादा पुरुषोत्तम, पूर्ण मानव हैं मेरे लिए,
राम को उतारा है मैंने संस्कारों में.
मुग्ध नहीं होता कभी
वाह्य सौन्दर्य पर मैं.
मोहती है मुझको सुंदरता मन की.
राम के चरित में असुन्दर नहीं है कुछ.
और वह जो सुन्दर है,
वही है प्रगतिशील!
गति सँवारता है वही जीवन की.

जनवादी वैचारिकता-
बन गयी है चर्चा का विषय आज.
सिर पर उठाये फिरता है उसे,
बाम पन्थी युवा समाज.
वैसे तो जनवादी होना शुभ लक्षण है,
पर जो समझता नहीं जनवादिता का अर्थ,
राम नहीं है, वह रावण है.

राम का समूचा व्यक्तित्व है
संस्कृति का रचना बिन्दु,
और यह संस्कृति प्रकृति से जनवादी है.
रचनात्माकता इस संस्कृति की,
जनकसुता सीता हैं.
भरत और लक्ष्मण हैं
जीवन्त छाया चित्र इसके.

परिचित नहीं हैं वाम-पंथी युवा पीढ़ी,
इस संस्कृति के रसायन से.
कट-सी गयी है अपने ही घर आँगन से.
अर्थ की धुरी पर घूमती हैं आज-
भौतिक मान्यताएं.
आर्थिक नियति बन गयी है,
नियति मानव की.
बाँधे नहीं बंधती हैं आर्थिक सीमाएं.
किसको सुनाएं कथाएं आत्मगौरव की.
सुनने-सुनाने के बीच,
खाईं बहुत गहरी है.
********क्रमशः

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

तंग आ चुके हैं लोग इस आतंकवाद से.

तंग आ चुके हैं लोग इस आतंकवाद से.
अब देखना है होते हैं कैसे ये हादसे.
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वो शत्रु हो पड़ोस का या हो वो कोई और,
मिलता है उसका वंश कहीं मेघनाद से.
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साहस न करना इसकी परीक्षा का तुम कभी
लोहा ये आत्मबल का है निखरा खराद से.
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पड़ने न देंगे हम कभी आपस में कोई फूट,
हम मुक्त सम्प्रदायों के हैं हर विवाद से.
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मिटटी चटा दिया है तुम्हें हमने ताज में,
दहशत का नाम लोगे न तुम इसके बाद से.
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इस्लाम के हो नाम पे तुम बदनुमा कलंक,
शायद उपज तुम्हारी है दोज़ख की खाद से.
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वैसे तो हम सशक्त हैं, पर ये भी जान लो,
हम हैं अजेय धरती के आशीर्वाद से.
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