शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

दहशतगर्दों के ख़त के जवाब में

अखबार में यह ख़बर पढ़कर कि दहशतगर्दों ने डेकन मुजाहिदीन के फर्जी नाम से मीडिया को एक ख़त भेजा था जिसमें अपना अभीष्ट स्पष्ट किया था यह नज़्म वुजूद में आई जिसे पेश किया जा रहा है.
तुमने ख़त भेजा है ईमेल के ज़रिए कि तुम्हें,
इन्तेक़मात मेरे मुल्क से लेने हैं,
बताना है कि इस्लाम को कमज़ोर न समझे कोई।
तुम नहीं जानते इस्लाम के मानी शायद,
तुमको तालीम मिली है किसी शैताँ की ज़बानी शायद।
तुमने जिन लोगों के हैं नाम लिए ख़त में वो सब
मेरी नज़रों में सियासतदां थे,
उनपे तालीमे-नबूवत का असर कुछ भी न था,
उनके इस्लाम में दहशत थी,
मुहब्बत का समर कुछ भी न था,
उनको ताक़त पे भरोसा था
जो आती है चली जाती है,
सल्तनत उनको थी हर लह्ज़ा अज़ीज़।
उनमें अखलाक की मामूली सी खुशबू भी न थी,
उनमें ईसार के जज्बे की कोई खू भी न थी।
ऐसे लोगों को है तहरीक कीबुनियाद बनाया तुमने,
अपना घर ख़ुद है जलाया तुमने।
तुमने हिन्दोस्तां को ठीक से समझा ही नहीं,
अज़मतें दर्ज किताबों में हैं इसकी
उन्हें देखा ही नहीं,
हम हैं क्या, तुमने ये जाना ही नहीं,
एक शायर ने कहा है क्या खूब-
"हिंद अस्त की नेमुल-बदले-फिरदौस अस्त,
आदम जे-बहिश्त बीं कि उफ़्ताद बे हिंद।"*
हिंद वो मुल्क है अल्लाह की खुशबू है जहाँ
बात ये मैं नहीं कहता, ये नबी का है कलाम
जिसको इकबाल ने तस्लीम किया और कहा-
"मीरे अरब को आई ठंडी हवा जहाँ से,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है"
इसलिए कहता हूँ मैं तुमसे कि बाज़ आ जाओ,
ये गुरूर अपना किसी और को जाकर दिखलाओ,
तुमने दहशत की मचा रक्खी थी धूम.
क्या हुआ हश्र तुम्हारा ये तुम्हें है मालूम.
हम नहीं जानते इस्लाम तुम्हारा क्या है,
हम जिस इस्लाम को हैं मानते,
देता है अमन का पैगाम।
और ये रोजे-अज़ल से है,
हमारे भी वतन का पैगाम।
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*भारत स्वर्ग का स्थानापन्न है. हज़रत आदम स्वर्ग से जिस पवित्र धरती पर उतारे गए वह भारत की ही धरती थी.

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

ऐसे जांबाजों को करता हूँ सलाम.

वो सही मानों में जांबाज़ थे
जाँ अपनी गँवा बैठे फ़राइज़ के लिए,
ज़िन्दगी ने किया झुक-झुक के सलाम
मौत ने उनकी जवांमर्दी के क़दमों पे
गिराया ख़ुद को
और पाकीज़ा फ़राइज़ के कई बोसे लिए.
कूवतें देती रही मुल्क की तहज़ीब उन्हें,
नापसंदीदा हमेशा से थी तखरीब उन्हें,
उनमें था हौसला,
वो जानते थे क्या है वतन की इज़्ज़त.
खूँ में थी उनके रवां गंगो-जमन की इज़्ज़त.
उनको मालूम था
इक खेल सियासत का है दहशत-गर्दी.
लाज़मी है कि कुचल दें उसको,
मौत से अपनी मसल दें उसको.
बस यही सोच के वो
आसमाँ छूती हुई आग में भी कूद पड़े,
साँस जबतक थी लड़े, खूब लड़े.
ऐसे जांबाजों को करता हूँ सलाम.
इनसे रौशन है मेरे मुल्क का नाम.
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नुक्ताचीनियाँ करना, सिर्फ़ हमने सीखा है.



नुक्ताचीनियाँ करना, सिर्फ़ हमने सीखा है.
मुल्क की हिफ़ाज़त की, कब किसी को पर्वा है.
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चन्द सरफिरे आकर, दहशतें हैं फैलाते,
बेखबर से रहते हैं, हम ये माजरा क्या है.
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मुत्तहिद अगर अब भी, हम हुए न आपस में,
ख्वाब फिर तरक्की का, देखना भी धोका है.
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अपने-अपने मज़हब के, गीत गाइए लेकिन,
इसको मान कर चलिए, मुल्क ये सभी का है.
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आज ये सियासतदाँ, करते हैं जो तकरीरें,
हमको मुश्तइल करना, ही तो इनका पेशा है.
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सोचते है हम आख़िर, जाएँ तो कहाँ जाएँ,
पीछे एक खायीं है, आगे एक दरया है.
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मुम्बई हो या देहली, सब जिगर के टुकड़े हैं,
इनपे आंच गर आए, दिल ही टूट जाता है.
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क्या हकीक़तें अपनी, हम समझ भी पायेंगे,
इस वतन का हर चप्पा, अपना एक कुनबा है.
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जाने कैसी ताक़तें हैं जो नचाती हैं हमें.

जाने कैसी ताक़तें हैं जो नचाती हैं हमें.
मौत की सौदागरी करना सिखाती हैं हमें.
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सिर्फ़ इंसानों पे क़ानूनों का होता है निफ़ाज़,
हरकतें वहशी दरिंदों की चिढ़ाती हैं हमें.
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अपना घर महफूज़ रखना हमने गर सीखा नहीं,
अपनी ही कमजोरियां ख़ुद तोड़ जाती हैं हमें.
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हम वो थे जिनसे मिली सारे जहाँ को रोशनी,
आज बद-आमालियाँ दर्पन दिखाती हैं हमें.
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मसअलों का हल कभी जज़बातियत होती नहीं,
कूवतें इदराक की पैहम बुलाती हैं हमें.
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शिकवा हमसाये से करते-करते हम तो थक गए,
उसकी लापर्वाइयां गैरत दिलाती हैं हमें.
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मुत्तहिद हो जाएँ हम ये वक़्त की आवाज़ है,
फ़र्ज़ की ललकारें ख़्वाबों से जगाती हैं हमें.
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बुधवार, 26 नवंबर 2008

इन्तक़ामोँ के ये खूनी हादसे थमते नहीं.

इन्तक़ामोँ के ये खूनी हादसे थमते नहीं.
इनके पीछे और कुछ है, ये महज़ हमले नहीं.
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पस्तियों के इस सफ़र का ख़ात्मा होगा कहाँ,
इस तरह के तो दरिन्दे भी कभी देखे नहीं.
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इस फ़िज़ा में भी हैं टी-वी चैनलों पर क़हक़हे,
ताजिरों पर हादसे कुछ भी असर करते नहीं.
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क्या बना सकते नहीं हम ऐसे बुनियादी उसूल,
जिनमें फ़ौरी फैसले हों, मनगढ़त क़िस्से नहीं.
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क्यों ये खुफ़िया ताक़तें ख्वाबीदगी में म्ह्व हैं,
इनके मालूमात अब तक के तो कुछ अच्छे नहीं.
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नफ़रतें यूँ ही अगर बढती रहीं तो एक दिन,
ये भी मुमकिन है हमें इन्सां कोई माने नहीं।

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कुछ कमी होगी यक़ीनन इस सियासी दौर की,
जितने नादाँ आज हैं हम, उतने नादाँ थे नहीं.
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शेख ने रक्खी है तस्बीह जो ज़ुन्नार के पास.

शेख ने रक्खी है तस्बीह जो ज़ुन्नार के पास.
एक दीवार खड़ी हो गई दीवार के पास.
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आबले, तश्ना-लबी, सोज़िशें, हिम्मत-शिकनी,
यही सरमाया बचा है रहे-पुर-ख़ार के पास.
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जीत लेते हैं मुहब्बत से जो गैरों का भी दिल,
ये हुनर आज मिलेगा भी तो दो-चार के पास.
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सिर्फ़ पैसों की फ़रावानी नहीं है सब कुछ,
हौसला होना ज़रूरी है खरीदार के पास.
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उसके आजाने से होता है ये महसूस मुझे,
नेमतें दुनिया की हैं इस दिले-सरशार के पास.
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ख़ुद-ब-ख़ुद आँखें खिंची जाती हैं उसकी जानिब,
एक नन्हा सा जो तिल है लबो-रुखसार के पास.
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सब हैं मसरूफ़, ये तनहाई है जाँ-सोज़ बहोत,
कोई दो लमहा तो बैठे कभी बीमार के पास.
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राह मुमकिन है निकल आये सुकूँ-बख्श कोई,
चल के देखें तो सही अब किसी गम-ख्वार के पास.
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काम भी आन पड़े गर कोई, जाना न वहाँ,
कभी हमदर्दियाँ होतीं नहीं ज़रदार के पास।

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कितने बुजदिल हैं जिन्हें कहते सुना है हमने,

कश्तियाँ लेके न जाओ कभी मझधार के पास.
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तस्बीह=मुसलामानों की जापमाला, जुन्नर=जनेऊ, आबले=छाले,तशनालबी=प्यास, सोजिशें=जलन, हिम्मत-शिकनी=उत्साह तोड़ना, सरमाया=संपत्ति, रहे-पुर-खार=काँटों भरा रास्ता, फ़रावानी=आधिक्य, नेमतें=ईश्वर की कृपाशीलता से प्राप्त सुख-सामग्री, दिले-सरशार=प्रसन्न ह्रदय, जाँ-सोज़=ह्रदय जलाने वाला, सुकूँ-बख्श=शान्तिदायक, गम-ख्वार=दुःख बांटने वाला, ज़रदार=धनाढ्य .

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

करते हो प्यार की शमओं को जलाने से गुरेज़.

करते हो प्यार की शमओं को जलाने से गुरेज़.
रोशनी बांटो, करो यूँ न ज़माने से गुरेज़.
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मेरा घर ऊंचे मकानों ने दबा रक्खा है,
धूप को भी मेरे आँगन में है आने से गुरेज़.
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ज़ुल्मतें तंग-नज़र भी हैं, फ़रेबी भी है,
भूल कर भी न करो सुबहें सजाने से गुरेज़.
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वो शफ़क़-रंग है, उसमें है गुलाबों की महक,
रूठ भी जाये तो करना न मनाने से गुरेज़.
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मुझसे रखते हैं तअल्लुक़ भी, खफ़ा भी हैं बहोत,
जाने क्यों लोगों को है मेरे फ़साने से गुरेज़.
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ज़ख्म-खुर्दा हूँ मैं किस दर्जा ये सब जानते हैं,
फिर भी है ज़ख्म मुझे अपने दिखाने से गुरेज़.
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दिल के मयखाने में जाहिद! कभी आकर देखो,
तुमको होगा न यहाँ पीने-पिलाने से गुरेज़.
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आग लगती है तो जल जाते हैं सब गर्दो-गुबार.

आग लगती है तो जल जाते हैं सब गर्दो-गुबार.
जिस्म की आग जला पाती है कब गर्दो-गुबार.
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आजकल कैसी फ़िज़ा है कि सभी की बातें,
इस तरह की हैं कि है उनके सबब गर्दो-गुबार.
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कोई चेहरा नहीं ऐसा जो नज़र आता हो साफ़,
सब पे है एक अजब गौर-तलब गर्दो-गुबार.
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मैं अभी कुछ न कहूँगा कि सभी हैं गुमराह,
पास आना मेरे छंट जाए ये जब गर्दो-गुबार.
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कूचे-कूचे में है अब शेरो-सुखन की महफ़िल,
हर तरफ़ आज उडाता है अदब गर्दो-गुबार.
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कूड़े-करकट पे खड़ी है ये तअस्सुब-नज़री,
ले के जायेंगे कहाँ लोग ये सब गर्दो-गुबार.
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कोई तदबीर करो, कुछ तो हवा ताज़ा मिले,
रोक लो, फैलने दो और न अब गर्दो-गुबार.
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सोमवार, 24 नवंबर 2008

आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मेरा जिस्म / तनवीर सप्रा

आज इतना जलाओ कि पिघल जाए मेरा जिस्म.
शायद इसी सूरत में सुकूँ पाये मेरा जिस्म.
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आगोश में लेकर मुझे इस ज़ोर से भींचो,
शीशे की तरह छान से चिटख जाए मेरा जिस्म.
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किस शहरे-तिलिस्मात में ले आया तखैयुल,
जिस सिम्त नज़र जाए, नज़र आए मेरा जिस्म.
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या दावए-महताबे-तजल्ली न करे वो,
या नूर की किरनों से वो नहलाये मेरा जिस्म.
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आईने की सूरत हैं मेरी ज़ात के दो रूख़,
जाँ महवे-फुगाँ है तो ग़ज़ल गाये मेरा जिस्म.
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ये वह्म है मुझको कि बालाओं में घिरा हूँ,
हर गाम जकड लेते हैं कुछ साए मेरा जिस्म.
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हरफ़े-मादूम

मैं कोई नगमा कोई साज़ नहीं,
एक खामोशी हूँ, आवाज़ नहीं,
अपने पिंजरे में लिए जागती साँसों का हुजूम
क़ैद मुद्दत से हूँ मैं.
क्योंकि अब मुझ में बची कूवते-परवाज़ नहीं.
दर्द अपना मैं कहूँ किस से
सुनाऊं किसे अफ़्सानए-दिल,
कोई हमराज़ नहीं.
ये वो अफसाना है
जिसका कोई अंजाम या आगाज़ नहीं.
बात फैलेगी
उडायेंगे सभी मेरा मजाक.
क्योंकि अफसाना मेरा सबकी कहानी होगा,
रंग अफ़साने का धानी होगा,
ज़ह्र-ही-ज़ह्र भरा होगा रवां इसमे जो पानी होगा,
सबकी नज़रों में ये अफ़साना
फ़क़त दुश्मने-जानी होगा.
सबके हक में यही बेहतर है मैं खामोश रहूँ,
पिंजरे में क़ैद रहे साथ मेरे
मेरी साँसों का हुजूम.
लोग समझें मुझे हरफ़े-मादूम.
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हरफ़े-मादूम=विनष्ट अक्षर