मंगलवार, 4 नवंबर 2008

चाँद ने क्या बात कह दी थी गुलों की बज़्म में.

चाँद ने क्या बात कह दी थी गुलों की बज़्म में.
खलबली पायी गई तशना-लबों की बज़्म में.
*******
रात खिर्मन पर गिरी क्या बर्क़, सब कुछ जल गया,
एक सन्नाटा था तारी, तायरों की बज़्म में.
*******
जुज़ तबाही के कोई उनवाँ नहीं पेशे-नज़र,
क़ौमियत ज़ेरे-बहस है ख़ुद-सरों की बज़्म में.
*******
हलकी-फुल्की गुफ्तुगू का ज़ायका कुछ और है,
कोई अब जाता नहीं दानिश-वरों की बज़्म में.
*******
जान देकर भी शहीदाने-वतन को क्या मिला,
ज़िक्र हो जाता है बस कुछ सर-फिरों की बज़्म में.
*******
खौफ, दहशत, ना-उमीदी, बेकली, बेचारगी,
बस यही पूंजी बची है, अब घरों की बज़्म में.
*******
रात मुझको ले गयीं यादें उड़ाकर अपने साथ,
खुशबुओं से पुर, जवाँ, नाज़ुक खतों की बज़्म में.
*******
गा रहा था कोई आल्हा रस भरी मस्ती के साथ,
थी हरारत भीगे-भीगे मौसमों की बज़्म में.
***************

सोमवार, 3 नवंबर 2008

भगवद गीता : परिचयात्मक परिधियाँ [डायरी के पन्ने / 3]


भगवद गीता महाभारत महाकाव्य के भीष्म पर्व का एक अंश है जिसमें कुल सात सौ श्लोक हैं. महाभारत का रचना काल दो सौ से लेकर पाँच सौ शताब्दी ईसा पूर्व माना जाता है. और इसके लेखक का पता न होने के कारण इसके संकलन करता व्यास को ही इसका लेखक स्वीकार किया जाता है. किंतु एक बात निश्चित है कि इसकी रचना प्रारंभिक उपनिषदों के बाद की. है. कुछ विद्वानों ने उपनिषदों की परम्परा में ही गीता को रखकर इसे गीतोपनिषद और योगोपनिषद भी कहा है. निखिलानंद स्वामी इसे मोक्षशास्त्र मानते हैं.जिनारजदास और राधाकृष्णन जैसे विद्वानों के विचार में महाभारत के भीष्म पर्व में भगवद गीता को बहुत बाद में जोड़ा गया है. किंतु इस मत को विशेष मान्यता नहीं है।


महाभारत की कथा दो सगे भाइयों पांडु और धृतराष्ट्र के राजघरानों में जन्मे चचेरे भाइयों पांडवों और कौरवों के मध्य के कलह की कथा है. धृतराष्ट्र के चक्षुविहीन होने के कारण पांडु को पैतृक साम्राज्य का स्वामी स्वीकार किया गया किंतु शीघ्र ही पांडु का निधन हो जाने से पांडव और कौरव दोनों ही धृतराष्ट्र की देख-रेख में पले. एक ही गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद चारित्रिक दृष्टि से पांडवों और कौरवों की प्रकृति में बहुत बड़ा अन्तर था. भाइयों में बड़े होने के कारण जब युधिष्ठिर के राज्याभिषेक का समय आया, दुर्योधन के षडयंत्र से पांडवों को वनवास भुगतना पड़ा. जब वे वापस लौटे उस समय तक दुर्योधन अपना राज्य मज़बूत कर चुका था. उसने पांडवों को उनका अधिकार देने से इनकार कर दिया. श्री कृष्ण जो पांडवों के मित्र और कौरवों के शुभचिंतक थे, उनके द्वारा किए गए समझौते के सारे प्रयास विफल हो गए और युद्ध को टालना असंभव हो गया. दोनों ही पक्ष युद्ध में कृष्ण को साथ रखना चाहते थे. कृष्ण ने पेशकश की कि वे एक को अपनी विशाल सेना दे सकते हैं और दूसरे के लिए सार्थवाहक और परामर्श दाता होना पसंद करेंगे. दुर्योधन जिसे बाह्य शक्तियों पर भरोसा था उसने विशाल सेना चुनी और अर्जुन के लिए कृष्ण सार्थवाहक और परामर्शदाता बने. यहाँ इस गूढ़ रहस्य को भी उदघाटित कर दिया गया कि बहुसंख्यक होना शक्ति-संपन्न होने का परिचायक नहीं है. सही मार्गदर्शन और आतंरिक ऊर्जा उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. भगवद गीता युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व का दर्शन है जिसकी आधारशिला दो नैतिक तर्कों के टकराव पर रखी गई है।


अर्जुन की नैतिकता उन्हें युद्ध के परिणामों की भयावहता और अपने ही सम्बन्धियों के मारे जाने की कल्पना के नतीजे में युद्ध से रोक रही थी. कृष्ण की नैतिक सोच अर्जुन के विपरीत, परिणाम की चिंता किये बिना कर्म-क्षेत्र में कर्तव्य पालन पर विशेष बल दे रही थी. शरीर मरते हैं, आत्मा नहीं मरती. के दर्शन ने अर्जुन को हथियार उठाने पर विवश कर दिया।


परामर्शदाता और मार्गदर्शक के रूप में कृष्ण ने सत्य को जिस प्रकार परिभाषित किया उसके मुख्य बिन्दु थे सर्व-शक्ति-संपन्न नियंता, जीव की वास्तविकता, प्रकृति का महत्त्व, कर्म की भूमिका और काल की पृष्ठभूमि. कृष्ण ने अर्जुन को जिस धर्म की शिक्षा दी उसे सार्वभौमिक सौहार्द के रूप में स्वीकार किया गया है. अर्जुन की समझ प्रकृति के मूल रहस्य को नहीं समझ पा रही थी. शरीर तो विनाशशील है. आत्मा ही अजर और अमर है.फलस्वरूप कृष्ण ने अर्जुन को योग की शिक्षा दी.भगवद गीता में महाभारत के युद्ध को 'धर्म-युद्ध' कहा गया है जिसका उद्देश्य न्याय स्थापित करना है. स्वामी विवेकानंद ने इस युद्ध को एक रूपक के रूप में व्याख्यायित किया है.उनकी दृष्टि में यह एक लगातार युद्ध है जो हमारे भीतर अच्छाइयों और बुराइयों के बीच चलता रहता है।


भगवद गीता का योग दर्शन बुद्धि, विवेक, कर्म, संकल्प और आत्म गौरव की एकस्वरता पर बल देता है. कृष्ण के मतानुसार मनुष्य के दुःख की जड़ें उसकी स्वार्थ लिप्तता में हैं जिन्हें वह चाहे तो स्वयं को योगानुकूल अनुशासित करके दूर कर सकता है. गीता के अनुसार मानव जीवन का लक्ष्य मन और मस्तिष्क को स्वार्थपूर्ण सांसारिक उलझावों से मुक्त करके अपने कर्मों को परम सत्ता को समर्पित करते हुए आत्म-गौरव को प्राप्त करना है. इसी आधार पर भक्ति-योग, कर्म-योग और ज्ञान-योग को भगवद गीता का केन्द्रीय-बिन्दु स्वीकार किया गया है. गीता का महत्त्व भारत में ब्राह्मणिक मूल के चिंतन में और योगी सम्प्रदाय में सामान रूप से देखा गया है. वेदान्तियों ने प्रस्थान-त्रयी के अपने आधारमूलक पाठ में उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों के साथ गीता को भी एक स्थान दिया है. फ़ारसी भाषा में अबुल्फैज़ फैजी ने गीता का अदभुत काव्यानुवाद किया है. उर्दू में कृष्ण मोहन का काव्यानुवाद भी पठनीय है. अंगेजी में क्रिस्टोफर ईशरवुड का अनुवाद मार्मिक है. टी. एस.ईलियट ने गीता के मर्म को अपने ढंग से व्याख्यायित किया.जे. राबर्ट ओपनहीमर जिसने संहारात्मक हथियार बनाया था द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका को देखकर 16 जुलाई 1945 को कृष्ण के शब्द दुहराए थे- मैं ही मृत्यु हूँ, सम्पूर्ण जगत का संहारक. ओपनहीमर के पास अणु बम बनाने के पीछे यही तर्क था और वह अपने उद्देश्य को सार्थक समझता था. यद्यपि बाद में उसने कहा था- "जब आप किसी चीज़ को तकनीकी दृष्टि से मधुर देखते हैं तो आप उसके निर्माण में रुकते नहीं, किंतु जब आपको सफलता प्राप्त हो जाती है तो आपके समक्ष अनेक तर्क-वितर्क उठ खड़े होते हैं." इस भावना ने अर्जुन की नैतिक सोच को फिर से जीवित कर दिया है. मानव की हत्या करके सत्य की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है. मैं क्यों अपने निजी सुख के लिए साम्राज्य, और विजय चाहता हूँ?


आज भारत की जनता भगवद गीता पर गर्व करती है और हमने अपने राष्ट्रीय ध्वज में बीचोबीच कृष्ण के सार्थ का पहिया अथवा सुदर्शन-चक्र प्रतीक स्वरुप बना रखा है जिसकी प्रत्येक रेखा से जन गण मन का स्वर फूटता रहता है।


**************

वह पराजित तर्क भी जीवित है आज.

वह पराजित तर्क भी जीवित है आज.
पक्ष अर्जुन का बहुत चर्चित है आज.
*******
कृष्ण उपदेशक हैं जिस कर्तव्य के,
रक्त से मानव के वह सिंचित है आज.
*******
देखिये पढ़कर महाभारत का अंत,
भावना क्या उसमें संदर्भित है आज.
*******
शोक में थे युद्ध के कारण अशोक,
हर कोई संहार से विचलित है आज.
*******
क्यों दया, करुणा, क्षमा को भूलकर,
आदमी हर क्षण बहुत चिंतित है आज.
*******
प्रेम में परमात्मा का वास है,
दुःख ये है, यह प्रेम परिसीमित है आज.
************

हर बात हम सुनेंगे अगर ज़ाब्ते में हो.

हर बात हम सुनेंगे अगर ज़ाब्ते में हो.
छींटा-कशी से दूर हो, सबके भले में हो.
*******
गाहे-बगाहे देखो गरीबां में झाँक कर,
महसूस ख़ुद करोगे बहोत फ़ायदे में हो.
*******
यलगार जो करेगा वो खायेगा ज़ख्म भी,
बेहतर ये है कि हर कोई अपने क़िले में हो.
*******
ना-आशना हो मंज़िले-मक़सूद से अभी,
बढ़-बढ़ के यूँ न बोलो अभी रास्ते में हो.
*******
गैरों में करते रहते हो क्यों खामियां तलाश,
सोचो ज़रा कि ख़ुद भी उसी कठघरे में हो.
*******
अल्फाज़ लड़खड़ाते हैं,लगज़िश है फ़िक्र में,
लगता है आज पूरी तरह तुम नशे में हो.
**************

ज़ाब्ते=संयम, गाहे-ब-गाहे= कभी-कभी, यलगार=आक्रमण, ना-आशना=अपरिचित, मंज़िले-मक़सूद=अभीष्ट गंतव्य,

रविवार, 2 नवंबर 2008

वेद, गीता, बाइबिल, कुरआन हैं लफ्ज़ों का खेल

वेद, गीता, बाइबिल, कुरआन हैं लफ्ज़ों का खेल.
आजका इन्सां समझता है इन्हें बच्चों का खेल.
*******
ग़म, मुसीबत, आहो-ज़ारी, दर्द, सीने की जलन,
जैसे हो एहसास के मैदान में यादों का खेल.
*******
मौत की दहशत भरी आवाज़ ने दहला दिया,
ज़िन्दगी इन्सान की है सिर्फ़ कुछ लम्हों का खेल.
*******
जिन दरख्तों पर लगे हैं फिर्कावारीयत के फल,
बरसों पहले जो उगे थे है ये उन पौदों का खेल.
*******
कौमियत, हुब्बे-वतन, ताईदे-बन्दे मातरम,
इक़्तदारों के लिए हैं बाहमी जंगों का खेल.
*******
दर हकीकत ये चुनावी मरहले हैं साफ़-साफ़,
टूटते, बनते-बिगड़ते, नित नये रिश्तों का खेल,
***************

गुफ्तो-शुनीद से भी कोई फ़ायदा नहीं.

गुफ्तो-शुनीद से भी कोई फ़ायदा नहीं।
ग़म दूसरों का आज कोई बांटता नहीं।
मज़हब का मोल-भाव है बाज़ार में बहोत,
इंसानियत के दर्द की होती दवा नहीं।
करते हैं इत्तेहाद की बातें सभी मगर
आपस में दिल किसी का किसी से मिला नहीं।
वो तो हमारे मुल्क की मज़बूत हैं जड़ें,
वरना ख़ुद इसके बेटों ने क्या-क्या किया नहीं।
कुछ इस क़दर सियासी खुदाओं में है कशिश,
खालिक पे अब भरोसा किसी को रहा नहीं।
होती है यूँ तो इश्को-मुहब्बत की बात भी,
लेकिन कोई सुरूर, कोई ज़ायका नहीं।
******************

उम्र की चिड़िया / सुधीर सक्सेना 'सुधि'

उम्र की चिड़िया
हर सुबह
उम्र की एक चिड़िया
मेरे कमरे में आकर
चहचहाती है. मैं दर्द से भीगे
शब्दों का चुग्गा
उसे चुगाता हूँ
ऐसा महसूस होता है कि मैं-
बहुत सहज हो गया हूँ.
चिड़िया उड़ जाती है फुर्र से
कुछ देर बाद और
मैं दर्शक बना इधर-उधर
ताकता रह जाता हूँ.
मेरे अपने भीतर की
सारी जली-अधजली कहानियाँ
बाहर छिटक पड़ती हैं
जिन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं होता
इसे तुम चाहे मेरी कमज़ोरी
समझो या
मूक विवशता!
जीवन का शेष सत्य
सिर्फ् यही बचा है
जिसे मैंने बहुत संभाल कर रखा है,
अगली पीढ़ी के लिए.
बिछुड़ी हुई उम्र पता नहीं
कब आकर मेरे दरवाजे पर
दस्तक दे जाए.
मैंने घुटन से मुक्ति का उपाय
सोच लिया है.
दरवाजों पर बंदनवार सजा ली है,
कृत्रिम प्रकाश-किरणों की
निरंतर गहराते जा रहे
दर्द की विसंगति को भोगना
बड़ा कठिन हो गया है मेरे लिए
चिड़िया तो अब सुबह ही आयेगी
अभी तो सामने पहाड़-सी
दोपहरी और पूरी रात
यमदूत की तरह खड़ी है!
**********
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
e-mail:
sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

शनिवार, 1 नवंबर 2008

और कितना अभी बदनाम करोगे उसको.

और कितना अभी बदनाम करोगे उसको.
कितने इल्ज़ाम हैं बाक़ी जो मढोगे उसको.
*******
वो है खामोश अभी खस्ता किताबों की तरह.
वक़्त आयेगा कि जब रोज़ पढोगे उसको.
*******
बारहा उसने भी इस घर की हिफाज़त की है,
संगदिल हो! कोई इनआम न दोगे उसको.
*******
मुझको खतरा है कहीं वो भी न तुम सा हो जाय,
यूँ ही गर रोज़ शिकंजों में कसोगे उसको.
*******
प्यार से मिल के तो देखो वो नहीं ऐसा बुरा,
पास जाओगे जभी जान सकोगे उसको.
*******
गुफ्तुगू होगी जो बाहम तो बनेगा माहौल,
कुछ सुनाओगे उसे और सुनोगे उसको.
************

जितनी चाहो नफरतें हमसे करो क्या पाओगे

जितनी चाहो नफरतें हमसे करो क्या पाओगे.
हम वो हैं हमको हमेशा मुस्कुराता पाओगे.
*******
खून के धब्बे हैं दामन पर बदल डालो लिबास,
वरना दुनिया की नज़र में ख़ुद को रुसवा पाओगे.
*******
तुम समझते हो हमें दुश्मन, चलो दुश्मन सही,
वक़्त आयेगा तो हम जैसों को अपना पाओगे.
*******
आओ देखो उस तरफ़ सूरज अभी होगा तुलू,
सुब्ह की किरनों में हर ज़र्रा नहाया पाओगे.
*******
ज़िन्दगी को तुम भी दरया की तरह करलो रवां,
सब्ज़ा-ज़ारों सा जहाँ को लहलहाता पाओगे.
*******
क़ल्ब है शफ्फाफ़ तो दैरो-हरम सब हैं वहाँ,
वो परागंदा है तो ख़ुद को तमाशा पाओगे.
****************

महाकवि हरिशंकर आदेश का एक महत्वपूर्ण महाकाव्य 'निर्वाण' [डायरी के पन्ने : 2]

अभी एक सप्ताह भी नहीं हुआ डाक से मुझे एक पुस्तक प्राप्त हुई 'निर्वाण'. इसकी प्रतीक्षा मैं पहले से कर रहा था. मेरे अग्रज और मित्र महाकवि हरिशंकर आदेश जी ने अमेरिका से मुझे फोन पर इसके सम्बन्ध में बताया भी था. अस्वस्थ होते हुए भी और डाक्टरों के निर्देश के बावजूद कि वे हिलें-डुलें और बातें न करें, उन्होंने मुझे फोन किया. मैंने भी उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना की. बहत्तर-तिहत्तर वर्ष की अवस्था में जितना कार्य महाकवि आदेश कर रहे हैं, बिरला ही कोई व्यक्ति कर सकता है. अबतक तीन सौ से अधिक पुस्तकें लिख चुके हैं वे, जिनमें चार तो महाकाव्य हैं - 'अनुराग', 'शकुंतला', 'महारानी दमयंती' और 'निर्वाण'. वे आदेश आश्रम त्रिनिदाद के कुलपति हैं, कनाडा और अमेरिका में मिनिस्टर आफ रेलिजन हैं, अखिल हिन्दू समाज, अमेरिका एवं विद्या मन्दिर कनाडा के आध्यात्मिक गुरु हैं और भारत के भूतपूर्व सांस्कृतिक दूत भी रह चुके हैं. फिर सबसे बड़ी बात ये है के वे मेरे मित्र हैं, हितैषी हैं, शुभ-चिन्तक हैं.
नवम्बर 1999 में जब मुझे मयामी फ्लोरिडा [अमेरिका] में महाकवि तुलसीदास पर आयोजित त्रिदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ तो वहाँ की मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि थे महाकवि हरिशंकर आदेश.मैत्री का यह जुडाव निरंतर गहराता गया. शायद इसलिए कि इसकी आधारशिला मज़बूत थी.
आजके हिनुदुत्ववादियों के मध्य हिंदुत्व-प्रेमी महाकवि हरि शंकर आदेश का क्या स्थान है, यह मैं नहीं जानता. किंतु इतना मैं अवश्य जानता हूँ कि महाकवि आदेश बहुमुखी प्रतिभा के धनी, सुविज्ञ, अध्ययनशील लेखक, कवि,समजोद्धारक, महापुरुष हैं. भारत के प्रति अटूट प्रेम उनके चिंतन का आधार है. संवेदनशीलता से उनकी वैचारिकता को ऊर्जा मिलती है. सर्व धर्म सम भाव उनके मन को शांत रखता है. हिंदुत्व के प्रति प्रेम उनमें आत्मविश्वास जगाता है और जिम्मेदारियों का एहसास भरता है. उनका ह्रदय पारदर्शी है, स्वच्छ है, कलुषताओं से मुक्त. धर्म के बीज वहाँ अंकुरित हो ही नहीं सकते जिनके ह्रदय में राग-द्वेष पलता है और मलिनाताएं कसमसाती हैं.
मुझे स्वयं आश्चर्य है कि इन छे-सात दिनों में सात सौ पृष्ठों का यह महाकाव्य- निर्वाण', मैं कैसे पढ़ गया. आपके हाथों में भी यह पुस्तक आजाय तो शायद आप भी इसे इसी प्रकार पढ़ जायेंगे. आज, जबकि हिन्दी कविता किसी बालिका की चुन्नी की तरह सिमट-सिकुड़कर हाइकू में शरण ले रही है, महाकाव्य लिखना कोई सरल कार्य नहीं है. महाकवि आदेश को भी समय के अंतराल के साथ इसे लिखने में चालीस वर्ष लग गए. किंतु इसे पढ़ते हुए केवल यही चालीस वर्ष नहीं, बल्कि महाराजा शुद्दोधन से अबतक का समय, प्रतीत होता है जैसे लेखक की मुट्ठियों में बंद हो गया हो और वह उसे आहिस्ता-आहिस्ता खोल रहा हो.
निर्वाण में कोई इतिहास नहीं है जो भीतर से झाँक रहा हो, इसमें कवि की सोच है जो अपना एक अलग इतिहास गढ़ रही है. पात्रों की गरिमा का ध्यान रखते हुए, आस्थाओं के बारीक शीशों को बिना चटकाए. बी.ए. के छात्र-जीवन में मैथिलि शरण गुप्त की यशोधरा ने भले ही लेखक के मन में स्थान बनाया हो, किंतु निर्वाण की रचना ने यशोधरा को बहुत पीछे छोड़ दिया है. यहाँ कोई दर्शन नहीं है जो गूढ़ शब्दावली में प्रस्तुत किया गया हो. यहाँ दर्शन और इतिहास समर्थित कल्पनाएँ हैं जो मंद गति से तरलीकृत होकर पाठक के मन में स्थान बना लेती हैं. महाराजा शुद्दोधन ने सिद्धार्थ को भले ही इस भय से वेदों के अध्ययन से दूर रखा हो कि उसके लिए आत्मा-परमात्मा, जीवन मृत्यु आदि का ज्ञान अनिवार्य है और यह सिद्धार्थ के हित में नहीं होगा, निर्वाण के रचनाकार का दृढ़ विश्वास है कि वेद प्रतिपादित सिद्धांतों और महात्मा बुद्ध प्रतिपासित सिद्धांतों में कोई टकराव या वैषम्य नहीं है.महाकवि की दृष्टि में वेदानुयायी तथा बौद्ध, दो पृथक लगने वाली प्रणालियाँ यथार्थ में एक ही हैं.
महाकवि आदेश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने काव्य की भाषा को इतना सरल कर दिया है कि वह लोक मानस में सहज ही अपनी समूची लयात्मकता के साथ प्रवेश करती है और कथानक की सभी बारीकियों को सरलीकृत कर देती है. यहाँ दुखवाद अनास्तिकता को प्रतीकायित नही करता.शैशव, कैशोर्य, प्रेमानुभूति,विवाह, मिलन-महोत्सव के प्रसंग सांस्कृतिक धरातल पर पाठक के साथ एकस्वर रहते हैं. जहाँ सिद्धार्थ के गृह-त्याग का प्रसंग है वहीं यशोधरा के आंसू भी हैं, राहुल का शैशव भी है, कपिलवस्तु कि स्थिति का अवलोकन भी है. महात्म बुद्ध का धर्म प्रसार, परिनिर्वाण और कपिलवस्तु लौटकर यशोधरा से मिलने का प्रसंग, पूरी गरिमा के साथ व्यक्त किया गया है.
महाकवि आदेश के इस महाकाव्य को नटराज प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया है और पुस्तक का मूल्य आठ सौ रूपए है.
**********************