युग-विमर्श (YUG -VIMARSH) یگ ومرش

युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

प्रोफ़ेसर क़ासमी को साहित्य अकादमी सम्मान : आग़ाज़ की शेरी-नशिस्त

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ऊर्दू के विश्वसनीय आलोचक और मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू प्रोफ़ेसर अबुल कलाम क़ासमी को साहित्य अकादमी पुरस्कार 2009 के लिए चुने जाने पर आ...
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तुम्हारा दिल मैं लेकर जा रहा हूँ कुछ ख़बर भी है

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ये ग़ज़ल प्रसिद्ध अमेरीकी कवि ई ई कम्मिंग्स [14 अक्तूबर 1894-3 सितंबर 1962] की सुविख्यात नज़्म " आइ कैरी योर हार्ट विद मी " को के...
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तुम मुवर्रिख़ हो / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

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तुम मुवर्रिख़ हो जिस तर्ह चाहो हमें तल्ख़ियों से भरे मस्ख़ औराक़ का एक हिस्सा बना दो। हमारे सभी कारनामे मिटा दो। हमें दफ़्न कर दो, सुला दो। ...
शनिवार, 30 जनवरी 2010

वो हब्से-दवामी है कहीं आज भी मौजूद

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वो हब्से-दवामी है कहीं आज भी मौजूद । एहसासे-ग़ुलामी है कहीं आज भी मौजूद्॥ मसदूद हैं सब रास्ते इन्साँ की बक़ा के, अफ़कार में ख़ामी है कही...
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शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

मिलती है शेर कहने से ज़हनी निजात कब

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मिलती है शेर कहने से ज़हनी निजात कब । खुलते हैं हिस्सियात के सारे जिहात कब ॥ सच है रुसूमियाती तसव्वुर से इश्क़ के, रौशन हुए किसी पे किसी क...
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गुरुवार, 28 जनवरी 2010

हमारे घर की दीवारों पे कुछ चेहरे से उगते हैं

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हमारे घर की दीवारों पे कुछ चेहरे से उगते हैं । न जाने क्यों ये रातों के उतर आने से उगते हैं ॥ वो पौदे जिनके बीजों से नहीं हम आज तक वाक़िफ़,...

हुकूमतों के है जूदो-करम की क्या क़ीमत् ।

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हुकूमतों के है जूदो-करम की क्या क़ीमत् । कोई लगाये गा अहले क़लम की क्या क़ीमत्॥ जुनूने-इश्क़ की दौलत से सर्फ़राज़ हैं हम , हमारी नज़रों में...
रविवार, 24 जनवरी 2010

दिल था ख़लीजे-ग़म की तरक़्क़ी से बेख़बर

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दिल था ख़लीजे-ग़म की तरक़्क़ी से बेख़बर । आँखें थी चश्मे-दिल की ख़राबी से बेख़बर ॥ मैं तारे-अन्कुबूत के घेरों में आ गया, तारीकियो...
गुरुवार, 21 जनवरी 2010

ज़ैदी जाफ़र रज़ा की दो नज़्में

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1- यक़ीन हवाएं लाई हैं कसरत से पत्तियाँ हमराह, बिछा रही हैं जिन्हें वो तमाम राहों में, हरेक सम्त जिधर भी उठा रहा हूं निगाह, सिवाय पत्तियो...
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मंगलवार, 19 जनवरी 2010

इमकान / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

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इमकान हवा के दोश पे उड़ते ये बादलों के गिरोह घना सियाह अंधेरा है जिन के दामन में न उड़ के जायें कहीं उन पहाड़ियों की तरफ़ नहा के ज़ुल्फ़ें व...
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