युग-विमर्श (YUG -VIMARSH) یگ ومرش

युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.

मंगलवार, 24 नवंबर 2009

ऐतिहासिक धरोहर की वापसी / शैलेश ज़ैदी [डायरी के पन्ने-6]

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अयोधया की बाबरी मस्जिद एक ऐतिहासिक धरोहर थी, ठोस और मूर्त्त्।मिथकीय कथा पर आधारित जन विश्वास नहीं जो अवचेतन में पकते पकते इतिहास के बराबर अ...

शाख़ से फल की तरह पक के टपक जायेंगे

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शाख़ से फल की तरह पक के टपक जायेंगे । इतनी तारीफ़ करोगे तो बहक जायेंगे ॥ फ़र्श पर रहते हुए अर्श पे उड़ते हैं फ़ुज़ूल , रोक लो अपने देमाग़...
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कितना तबाहकुन था समन्दर का इज़्तेराब

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कितना तबाहकुन था समन्दर का इज़्तेराब । आँखों में अब भी है उसी मंज़र का इज़्तेराब ॥ चुभती रही निगाहों में बस मेरी ख़ुदसरी , देखा किसी ने भी ...
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सोमवार, 23 नवंबर 2009

जुनूं-ख़ेज़ी में दीवानों से कुछ ऐसा भी होता है

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जुनूं-ख़ेज़ी में दीवानों से कुछ ऐसा भी होता है। के महबूबे-नज़र सहराओं का जलवा भी होत है॥ सफ़ीने की मदद को ख़ुद हवाएं चल के आती हैं, हिफ़ाज़त...
रविवार, 22 नवंबर 2009

भटक रहा हूं मैं कब से नये उफ़क़ ले कर

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भटक रहा हूं मैं कब से नये उफ़क़ ले कर । किताबे-दिल के उड़ा दो वरक़ वरक़ ले कर॥ मैं आसमानों से आगे निकल गया हूं कहीं , के लौटना है मुझे रम्ज़...
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शनिवार, 21 नवंबर 2009

वो एक ठहरे हुए शान्त जल के जैसा था

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वो एक ठहरे हुए शान्त जल के जैसा था । स्वभाव उसका मधुर था, तरल के जैसा था ॥ हमारे युग की ये गतिशीलता वहाँ पे रुकी, जहाँ समय किसी बरछी के फल क...
गुरुवार, 19 नवंबर 2009

भेद कर मैं आज षटचक्रों को, बाहर आ गया ॥

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भेद कर मैं आज षटचक्रों को, बाहर आ गया ॥ चान्द सूरज मिल गये, जीने का तेवर आ गया ॥ मैं क्षितिज के पार की पढ़ कर लिखावट था चकित, किन्तु अब मेरी...
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इक समन्दर बेकराँ रहता है मेरी ज़ात में ।

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इक समन्दर बेकराँ रहता है मेरी ज़ात में । हर तरफ़, हर जा, वही छाया है मेरी ज़ात में॥ बस उसी क एक चेहरा है फ़ना जिस को नहीं, और ताबिन्दा वही च...
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बुधवार, 18 नवंबर 2009

हैरत है मेरा गाँव तरक़्क़ी न कर सका

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हैरत है मेरा गाँव तरक़्क़ी न कर सका । मजबूर था के फ़िक्र भी अपनी न कर सका ॥ दुख-दर्द दूसरों के फ़क़त बाँटता रहा , अपने लिए हयात में कुछ भी न...
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मंगलवार, 17 नवंबर 2009

खेतों को सींचता रहा मैं रात रात भर

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खेतों को सींचता रहा मैं रात रात भर । हासिल हुवा मगर न मुझे कुछ हयात भर्॥ गो तू बहोत क़रीब न आया मेरे कभी , था बाइसे-सुकून तेरा इल्तेफ़ात भर ...
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