युग-विमर्श (YUG -VIMARSH) یگ ومرش

युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले।

›
आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले. मल्लाह तू भी कश्ती से पतवार खींच ले. तस्लीम है मुझे कि मैं बागी हूँ, ज़िन्दगी! क्या सोचती है, मुझको सरे-...
2 टिप्‍पणियां:
शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

ऐ मौत के फ़रिश्ते ! झिजकता है किस लिए.

›
ऐ मौत के फ़रिश्ते ! झिजकता है किस लिए. लेजा हयात, गोशे में सिमटा है किस लिए. इस ज़िन्दगी के हम कभी मालिक नहीं बने, फिर ज़िन्दगी की हमको तमन्...
1 टिप्पणी:

हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.

›
हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश. हालात हैं ऐसे कि है मर जाने की ख्वाहिश. उस कतरए-नैसाँ को थी आगोशे-सदफ़ में, मानिन्दे-गुहर हुस्न से...
2 टिप्‍पणियां:
गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

ज़िन्दगी गुज़री है सन्नाटों की चादर ओढे.

›
ज़िन्दगी गुज़री है सन्नाटों की चादर ओढे. मौत आयेगी उजालों के समंदर ओढे. हम भी दुःख-दर्द की दुनिया में उसी तर्ह जिये, जैसे वीरानों में गौतम ने...
2 टिप्‍पणियां:
बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

युग-विमर्श की यात्रा का एक वर्ष

›
आज 25 फरवरी 2009 को युग-विमार्श ने अपनी यात्रा का एक वर्ष पूरा कर लिया. इस बीच 5872 पाठकों ने 14563 बार युग-विमर्श की रचनाओं और विचारों के स...
3 टिप्‍पणियां:
रविवार, 22 फ़रवरी 2009

किसी से कुछ न कहूँगा लबों को सी लूँगा

›
किसी से कुछ न कहूँगा लबों को सी लूँगा यकीं करो मैं तुम्हारे बगैर जी लूँगा खुशी मिली थी तो उसमें भी कुछ सुरूर न था मिला है ग़म तो उसे भी खुशी...
4 टिप्‍पणियां:

शोर मैं कैसा, ये ऐ दौरे-क़मर! देखता हूँ.

›
फ़ारसी साहित्य के प्रख्यात कवि हाफिज़ शीराजी ने अपने समय के मूल्य-परक परिवर्तनों को जिस रूप में एक ग़ज़ल में [ईं चि शोरीस्त की दर दौरि-क़मर म...
2 टिप्‍पणियां:
शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो कामियाब न था.

›
शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो कामियाब न था. के मेरी राह में, मायूसियों का बाब न था. कभी मैं वक्त का हमसाया, बन नहीं पाया, के वक्त, साथ कभी, मेर...

डस गया हो साँप जैसे फ़िक्र की परवाज़ को.

›
डस गया हो साँप जैसे फ़िक्र की परवाज़ को. लब हिलाना भी हुआ मुश्किल सुख़न के साज़ को. फूल, पत्ते, शाख, कलियाँ, रंगों-बू हैं नगमा-रेज़, फिर भी ...
1 टिप्पणी:
गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

हिजाब, गुंचों को लाज़िम हुआ, गुलों को नहीं.

›
हिजाब, गुंचों को लाज़िम हुआ, गुलों को नहीं. नक़ाब-पोशियाँ भाईं कभी बुतों को नहीं. खुशी हुई उसे, दिल की इबारतें पढ़कर, कि उसने चाहा कभी सादे का...
4 टिप्‍पणियां:
‹
›
मुख्यपृष्ठ
वेब वर्शन देखें
Blogger द्वारा संचालित.