युग-विमर्श (YUG -VIMARSH) یگ ومرش

युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.

मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

ग़ज़ल / शैलेश जैदी

›
ये दिल की धड़कनें होती हैं क्या, क्यों दिल धड़कता है ? मिला है जब भी वो, बाकायदा क्यों दिल धड़कता है ? बहुत मासूमियत से उसने पूछा एक दिन मुझसे...
मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

शैलेश ज़ैदी की पाँच हिन्दी ग़ज़लें

›
[1] यादों की दस्तक पर मन के वातायन खुल जाते है. अपने आप ही मर्यादा के सब बन्धन खुल जाते हैं. मैं उसको आवाज़ नहीं दे पाता लौट के आ जाओ, दिल क...
शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

ग़ज़ल : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

›
उसकी आंखों की इबारत साफ थी। मैं नहीं समझा, शिकायत साफ थी॥ क्या गिला करता मैं उसके ज़ुल्म का। उसकी जानिब से तबीअत साफ थी ॥ छुप के तन्हाई में क...
गुरुवार, 27 मार्च 2008

ग़ज़ल : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

›
मेरे मकान में थोडी सी रौशनी कम है । के आफताब की आमद यहाँ हुयी कम है ॥ मैं उसको चाहता हूँ और उससे दूर भी हूँ। कभी भरोसा है उसपर बहोत , कभी क...
मंगलवार, 25 मार्च 2008

प्रो० हरि शंकर आदेश

›
प्रोफेसर हरि शंकर आदेश एक सुविख्यात कवि, लेखक और संगीतकार हैं. कैनडा, अमेरिका और ट्रीनिडाड से हिन्दी की जीवन-ज्योति नामक पत्रिका का सफल संपा...
सोमवार, 17 मार्च 2008

कबतक ? : - शैलेश ज़ैदी

›
गुलाबों की हरी टहनियों को चाटते रहेंगे कबतक मिटटी से जन्मे , बदनीयत- बदहवास कीड़े ? कबतक भूखे पशुओं का भरती रहेगी पेट धरती पर लहलहाती हरी दूब...
शनिवार, 15 मार्च 2008

बरसों का सफर : कु० डॉ. मिश्कात आबिदी

›
माँ......... तुम्हारी झुर्रियों में छुपा है बरसों का सफर ज़िंदगी के अनगिनत उतार-चढाव . तुम्हारी आंखों के धुंधलकों में छुपे हैं ..... ज़िंदगी ...
गुरुवार, 13 मार्च 2008

राही मासूम रज़ा की याद में (नज़्म)

›
तुम्हारा नाम दर्सगाह के वरक-वरक पे है, मगर तुम्हारे दौर की, सभी इबारतें हैं आज अजनबी। कि इन इबारतों के आज , राज़दां नहीं रहे , खुलूस की रिव...
बुधवार, 12 मार्च 2008

पसंदीदा शायरी : ग़ज़ल

›
आज के माहौल में खंजर बुरे लगते नहीं । हाथ लोगों के लहू से तर बुरे लगते नहीं ॥ दर्द में डूबे हुए मंज़र बुरे लगते नहीं । अब किसी को भी बुरे रह...
1 टिप्पणी:
बुधवार, 5 मार्च 2008

पसंदीदा शायरी : ग़ज़ल

›
खामोश होगी कब ये ज़बाँ कुछ नहीं पता । बदलेगा कब निज़ामे- जहाँ कुछ नहीं पता ॥ कब टूट जाए रिश्तये-जां कुछ नहीं पता। कुछ कारे-खैर कर लो मियाँ कु...
‹
›
मुख्यपृष्ठ
वेब वर्शन देखें
Blogger द्वारा संचालित.