युग-विमर्श हिन्दी उर्दू की साहित्यिक विचारधारा के विभिन्न आयामों को परस्पर जोड़ने और उन्हें एक सर्जनात्मक दिशा देने का प्रयास है.इसमें युवा पीढ़ी की विशेष भूमिका अपेक्षित है.आप अपनी सशक्त रचनाएं प्रकाशनार्थ भेज सकते हैं.
गुरुवार, 31 दिसंबर 2009
कैसी चहल-पहल सी है ख़ाली मकान में
बुधवार, 30 दिसंबर 2009
मेरी तो उस समूह में कुछ भूमिका न थी।
मेरी तो उस समूह में कुछ भूमिका न थी।
फिर मैं वहाँ था क्यों, ये मुझे सूचना न थी॥
हर व्यक्ति कट गया है अब अपने कुटुंब से,
लोगों के पास पहले ये जीवन-कला न थी॥
चिन्तन फलक था दोहों का नदियों से भी विशाल,
अभिव्यक्ति के लिए कोई ऐसी विधा न थी॥
मुझको समय ने कर ही दिया संप्रदाय मुक्त,
अच्छा हुआ, वो मेरी कोई सम्पदा न थी॥
व्यवहार मेरा सब के लिए स्नेह पूर्ण था,
शायद इसी से मन में कोई भी व्यथा न थी॥
मैं ने तिमिर को दीप की लौ से जला दिया,
पथ में कभी मेरे कोई नीरव निशा न थी॥
मैं ने विपत्तियों में भी हंस-हंस के बात की,
जीवन सुखद हो ऐसी कोई कल्पना न थी॥
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शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009
फ़रशे-ज़मीं पे चाँद की क़न्दील देख कर
मंगलवार, 22 दिसंबर 2009
वो हादसा हुआ उस रोज़ शाम से पहले ॥
रविवार, 6 दिसंबर 2009
नर्गिसीयत के मरीज़ों से भरी है दुनिया
शनिवार, 5 दिसंबर 2009
फ़रेब खा के भी हर लहज़ा ख़ुश हुए सब लोग
के सिर्फ़ अपने ही ख़्वाबों में गुम रहे सब लोग ॥
सेहर से उसने सुख़न के दिलों को जीत लिया,
कलाम अपना वहाँ जब सुना चुके सब लोग ॥
ज़रा सी आ गयी दौलत, बदल गये अन्दाज़,
के अब नज़र मे ज़माने की हैं बड़े सब लोग ॥
नहीं रहा, तो सभी उस को याद कर्ते हैं,
वो जब हयात था क्यों दूर दूर थे सब लोग ॥
अक़ीदत उस से न थी, सिर्फ़ ख़ौफ़ था उस का,
जलाएं क़ब्र पे अब उस की क्यों दिये सब लोग्॥
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