बुधवार, 18 नवंबर 2009

हैरत है मेरा गाँव तरक़्क़ी न कर सका

हैरत है मेरा गाँव तरक़्क़ी न कर सका ।
मजबूर था के फ़िक्र भी अपनी न कर सका ॥

दुख-दर्द दूसरों के फ़क़त बाँटता रहा ,
अपने लिए हयात में कुछ भी न कर सका॥

मेरे खिलाफ़ साज़िशें करते रहे सभी,
शायद किसी की भी मैं तशफ़्फ़ी न कर सका॥

शेर-ओ-सुख़न की बज़्म से मैं दूर ही रहा,
ख़ुद पर तिलिस्मे-ज़ौक़ को हावी न कर सका॥

ज़ेबाइशे-सियासते-दुनिया है कजरवी ,
इसके लिए कोई मुझे राज़ी न कर सका ॥
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1 टिप्पणी:

"अर्श" ने कहा…

KHUBSURAT BAH'R PE KHUBSURAT GAZAL KE SHE'R KYA BAAT HAI MAJAA AAGAYAA ... MATALAA ITANE KARIB PAYA KE KUCHH KAHAA NAHI JAA SAKTA... BEHAD NAJUKI SE LIKHI GAYEE HAI YE GAZAL... BAHUT BAHUT BADHAAYEE


ARSH