मंगलवार, 2 सितंबर 2008

सफ़र में दिल को / क़ालिब मिर्ज़ापूरी

सफ़र में दिल को मयस्सर कहीं क़रार न था।
कई दरख्त मिले, कोई साया-दार न था।
जो मोतबर थे बज़ाहिर, वो दूर-दूर रहे
उसी ने साथ दिया जिसका एतबार न था।
बशर-नवाज़ों में उसका शुमार होता था,
वो आदमी जिसे इंसानियत से प्यार न था।
नज़र मिला न सकी मुन्सफी अदालत से,
सज़ा मिली थी उसे जो कुसूरवार न था।
मेरे नसीब में लिख दी गई थी महरूमी,
मेरे चमन के लिए मौसमे-बहार न था।
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4 टिप्‍पणियां:

  1. सफ़र में दिल को मयस्सर कहीं क़रार न था।
    कई दरख्त मिले, कोई साया-दार न था।
    जो मोतबर थे बज़ाहिर, वो दूर-दूर रहे
    उसी ने साथ दिया जिसका एतबार न था।
    kya andaaj hai

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  2. बहुत बढिया रचना है।

    सफ़र में दिल को मयस्सर कहीं क़रार न था।
    कई दरख्त मिले, कोई साया-दार न था।
    जो मोतबर थे बज़ाहिर, वो दूर-दूर रहे
    उसी ने साथ दिया जिसका एतबार न था।
    बहुत सुन्दर!!

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  3. सारी पंक्‍ति‍यॉं एक से बढ़कर एक। लाजवाब।

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