शुक्रवार, 25 जून 2010

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्

कैसे मुम्किन है मसाएल से न टकराए हयात्।
कौन चाहेगा ख़मोशी से गुज़र जाये हयात् ॥

कोई तूफ़ान, कोई ज़्ल्ज़ला, कोई सैलाब,
ज़िन्दगी में न अगर हो तो किसे भाए हयात्॥

आ के मख़मूर हवाएं कभी नग़मा छेड़ें,
ख़ुश्बुओं का कोई आँचल कभी लहराए हयात्॥

रोज़ यूं टूटते रहने से किसी दिन यारब,
ऐसे हालात न हो जाएं के शर्माए हयात्॥

उसके ही ख़्व्बों से आती है बहारों की हवा,
उसके ही ज़िक्र से खिल उठते हैं गुलहाए हयात्॥
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गुरुवार, 24 जून 2010

खो गया मैं ये किस कल्पना में

खो गया मैं ये किस कल्पना में।
चाँद ही चाँद हैं हर दिशा में॥

मैं अमावस से सुबहें तराशूँ,
घोल दो चाँदनी तुम हवा में॥

मैं पिघलता रहूं मोम बनकर,
तुम प्रकाशित रहो बस शिखा में॥

मेरे होंठों की मुस्कान हो तुम,
तुम ही सुबहें मेरी तुम ही शामें॥

मूंद लूं जब भी मैं अपनी आँखें,
तुम उपस्थित रहो वन्दना में॥

लड़खड़ा कर संभल जाऊंगा मैं,
कह दो लोगों से मुझको न थामें॥

मैं ने दर्शन किया है तुम्हारा,
अन्यथा कुछ नहीं है शिला में॥

मन को काबे में रखकर सुरक्षित,
काया छोड़ आया मैं कर्बला में॥*
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*अन्तिम शेर में कबीर की इस अवधारणा को आधार बनाया गया है- "मन करि कबा, देह करि कबिला" अर्थात मन को काबा और शरीर को कर्बला बना लो।

बुधवार, 23 जून 2010

उनवाने-गुफ़्तुगूए-दिले-दोस्ताँ न हों

उनवाने-गुफ़्तुगूए-दिले-दोस्ताँ न हों।
जीना भी हो मुहाल जो ख़ुश-फ़ह्मियाँ न हों॥

कुछ तल्ख़ियाँ भी होती हैँ शायद बहोत लतीफ़,
क्या लुत्फ़ है सफ़र का जो दुश्वारियाँ न हों॥

रुक जाये कारवाने-मुहब्बत न राह में,
यारब हमारी कोशिशें यूं रायगाँ न हों॥

तारीफ़ें सुन के होता है दिल बेपनाह ख़ुश,
फ़िरऔनियत के हम में कहीं कुछ निशाँ न हों॥

औलाद से मदद की तवक़्क़ो फ़ुज़ूल है,
बेहतर ये है किसी पे भी बारे-गराँ न हों॥

मौसीक़ियत, मिठास, रवानी, शगुफ़्तगी,
किस तर्ह लोग आशिक़े-उर्दू ज़ुबाँ न हों॥
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ख़्वाहिशें और तमन्नाएं सभी रखते हैं

ख़्वाहिशें और तमन्नाएं सभी रखते हैं।
हम तो हर हाल में जीने की ख़ुशी रखते हैं॥

नुक्ताचीनी की बहरहाल सज़ा मिलती है,
वो सम्झदार हैं जो होँटोँ को सी रखते हैं॥

आस्तीनों में नहीं साँपों को पाला करते,
डसने की चाह ये मरदूद बनी रखते हैं॥

दुशमनी का उन्हें अहबाब की होता है पता,
जागते-सोते भी जो आँख खुली रखते हैं॥

ज़िन्दगी के हैं दरो-बाम नुमायाँ जिनमेँ,
ऐसे अश'आर हयाते अबदी रखते हैं॥

आज लाज़िम है के मिलते हुए मुहतात रहें,
आज के दौर में सब चेहरे कई रखते हैं॥
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मंगलवार, 22 जून 2010

क़त्ल की साज़िशों से क्या हासिल्

क़त्ल की साज़िशों से क्या हासिल्।
तुमको इन काविशों से क्या हासिल्॥

इश्क़ पाबन्द हो नहीं सकता,
इश्क़ पर बन्दिशों से क्या हासिल्॥

मुझको ख़ामोश कर न पाओगे,
ज़ुल्म की वरज़िशों से क्या हासिल्॥

कौन सुनता है अब अदालत में,
दर्द की नालिशों से क्या हासिल्॥

हो नहीं सकतीं जो कभी पूरी,
ऐसी फ़रमाइशों से क्या हासिल्॥

मुझ तक आये तो कोई बात बने,
जाम की गरदिशों से क्या हासिल्॥

फ़ासले किस लिए बढाते हो,
बे वजह रंजिशों से क्या हासिल्॥
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अमृत पीकर क्या पाओगे

अमृत पीकर क्या पाओगे।
विष पी लो शिव बन जाओगे॥

पीड़ा अपनी व्यक्त न करना,
लोग हँसेंगे, पछताओगे॥

चाँद बनो नीरव निशीथ में,
शीतल होकर मुस्काओगे॥

मन सशक्त रखना ही होगा,
पर्वत से जब टकराओगे॥

दो पल मन के भीतर झाँको.
दर्पन देख के घबराओगे॥

अलग-थलग रहकर जीवन में,
तड़पोगे या तड़पाओगे॥
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सोमवार, 21 जून 2010

तुम नहीं हो तो ये तनहाई भी है आवारा

तुम नहीं हो तो ये तनहाई भी है आवारा।
जा-ब-जा शहर में रुस्वाई भी है आवारा॥

कोयलें साथ उड़ा ले गयीं आँगन की फ़िज़ा,
पेड़ ख़ामोश हैं अँगनाई भी है आवारा॥

पहले आ-आ के मुझे छेड़ती रहती थी मगर,
अब तो लगता है के पुर्वाई भी है आवारा॥

जाने क्यों ज़ह्न कहीं पर भी ठहरता ही नहीं,
फ़िक्र की मेरे वो गहराई भी है आवारा॥

तेरी गुलरंग सेहरकारियाँ ओझल सी हैं,
दिल के सहरा में वो रानाई भी है आवारा॥
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गुरुवार, 17 जून 2010

किसी का दिल कहीं कुछ भी दुखा क्या

किसी का दिल कहीं कुछ भी दुखा क्या।
हमें इस आहो-ज़ारी ने दिया क्या॥
चलो अब उस से रिश्ते तोड़ते हैं,
वो समझेगा हमारा मुद्दआ क्या॥
वहाँ महशर का मंज़र था नुमायाँ,
कोई होता किसी का हमनवा क्या॥
उजाले क़ैद करके ख़ुश हुआ था,
अँधेरे को तमाशे से मिला क्या॥
बियाबाँ में समन्दर तश्नालब था,
नदी क्या थी नदी का हौसला क्या॥
मेरा बच्चा है प्यासा तीन दिन से,
समझ सकते हैं इसको अश्क़िया क्या॥
निसाई हिस्सियत ख़ैबर-शिकन थी,
झुकी थी आँख बुज़दिल बोलता क्या॥
जो दिल काबे सा पाकीज़ा हो उसमें,
तशद्दुद क्या जफ़ाए- कर्बला क्या॥
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गुरुवार, 3 जून 2010

हिन्दी में ग़ज़ल कहने का है स्वाद ही कुछ और्

हिन्दी में ग़ज़ल कहने का है स्वाद ही कुछ और्।
रचनाओं में होता है यहाँ नाद ही कुछ और्॥
आशीष दिया करती है माँ सुख से रहूँ मैं,
पर मुझसे समय करता है संवाद ही कुछ और्।
सीताओं की होती है यहाँ अग्नि परीक्षा,
राधाओं के है प्यार की मर्याद ही कुछ और्।
वह आँखें हैं कजरारी,चमकदार, नुकीली,
उन आँखों में चाहत का है उन्माद ही कुछ और्॥
ये फूल तो पतझड़ में भी मुरझाते नहीं हैं,
इन फूलों की जड़ में है पड़ी खाद ही कुछ और॥
काया में बजा करते हैं मीराओं के नूपुर,
अन्तस में हैं उस श्याम के प्रासाद ही कुछ और्॥
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गुरुवार, 20 मई 2010

लोग झुक जाते हैं वैसे तो सभी के आगे


लोग झुक जाते हैं वैसे तो सभी के आगे।
सर झुकाते नहीं ख़ुददार किसी के आगे॥

देख कर आंखों से भी कुछ नहीं कहता कोई,
लब सिले रहते हैं क्यों आज बदी के आगे॥

ग़म ज़माने का है जैसा भी हमें है मंज़ूर,
हाथ फैलाएंगे हरगिज़ न ख़ुशी के आगे॥

माँगने वाले हुआ करते हैं बेहद छोटे,
बावन अँगुल के हुए विश्नु बली के आगे॥

किस तरह करता मैं कैफ़ीयते-दिल का इज़हार,
लफ़्ज़ ख़ामोश थे आँखों की नमी के आगे।

जब भी मैं घर से निकलता हूं तो लगता है मुझे,
रास्ते बन्द हैं सब उसकी गली के आगे।

दिल भी एक शीशा है जिसको है तराशा उसने,
सब हुनर हेच हैं इस शीशागरी के आगे॥

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