शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

देखो ये बातें सच्ची हैं

देखो ये बातें सच्ची हैं।
तहज़ीबें मिटती रहती हैं॥

सूरज तो बेहिस होता है,
ख़्वाब ज़मीनें ही बुनती हैं॥

चाँद की मिटटी छू कर देखो,
उसकी आँखें भी गीली हैं॥

मुझको कोई ख़ौफ़ नहीं है,
मैं ने मौत से बातें की हैं॥

माँ की मिटटी के बटुए में,
मेरी साँसें तक गिरवी हैं॥

एक समन्दर मुझ में भी है,
जिसकी लहरें जाग रही हैं॥

सोने की चिड़िया के क़िस्से,
कुछ तो सुने हैं कुछ बाक़ी हैं॥
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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

ख़्वबों से थक जाएं पलकें

ख़्वबों से थक जाएं पलकें।
कितना बोझ उठाएं पलकें॥
दिल की तमन्ना बर आने पर,
झूमें नाचें गाएं पलकें॥
मातम है एहसास के घर में,
बच्चे आँसू माएं पलकें॥
झपकें तो हलचल मच जाए,
ठहरें तो शरमाएं पलकें॥
आधी आधी जब खुलती हैं ,
एक क़यामत ढाएं पलकें॥
खामोशी के स्वाँग रचा कर,
बेहद शोर मचाएं पलकें॥
आँखों मे तुम आकर देखो,
देंगी ख़ूब दुआएं पलकें॥
दिल रंजीदा आँखें पुरनम,
किस किस को समझाएं पलकें॥
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जब भी कुछ फ़ुर्तसत होती है

जब भी कुछ फ़ुर्तसत होती है।
तनहाई नेमत होती है।
शायर कोई और है मुझ में,
पर मेरी शुहरत होती है॥
उर्दू के शेरों में बेहद,
तरसीली क़ूवत होती है॥
लफ़्ज़ों के जादू में पिनहाँ,
मानी की ताक़त होती है॥
वादा-ख़िलाफ़ी करते क्यों हो,
दोस्ती बे-हुरमत होती है॥
वो अदना होता ही नहीं है,
जिसकी कुछ इज़्ज़त होती है॥
माँ के आँसू गिरने मत दो,
बून्द बून्द जन्नत होती है॥
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देह मे जब तक भटकती सांस है/घनश्याम मौर्य

महोदय,

मै आप्के युग विमर्श ब्लॉग का नियमित रूप से अनुसरण करता हूँ. इस पर उत्कृष्ट एवं स्तरीय रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं. हिंदी साहित्य का प्रेमी होने के साथ ही मैं हिंदी में काव्य-रचना भी करता हूँ. अपनी एक ग़ज़ल आपके ब्लॉग पर प्रकाशन हेतु भेज रजा हूँ. कृपया अपने ब्लॉग पर इसे प्रकाशित करने हेतु विचार करने का कष्ट करें.

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Ghanshyam Maurya
283/459, Garhi Kanora
Lucknow-226011U.P.

देह मे जब तक भटकती सांस है.

त्रास के होते हुए भी आस है.

दर्द कितना भी भयानक हो मगर,

मुस्कुराने का हमे अभ्यास है.

पी रहा कोई सुधा कोई गरल,

किंतु अपने पास केवल प्यास है.

रास्ते मे आयेंगे तूफान जो,

हो रहा उनका हमे आभास है.

राज्सत्ता हो मुबारक आपको,

भाग्य मे अपने लिखा वन वास है.
घनश्याम मौर्य

    लखनऊ, उत्तर प्रदेश

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

काश मेरे पास कुछ होता सुबूत

काश मेरे पास कुछ होता सुबूत।
दे न पाया बेगुनाही का सुबूत॥
हो चुका है नज़्रे-आतश सारा जिस्म,
ये सुलगती राख है ज़िन्दा सुबूत्॥
क़ाज़िए-दिल वक़्त का नब्बाज़ है,
देख लेता है ये पोशीदा सुबूत्॥
इश्क़े-मजनूँ क्यों न होता लाज़वाल,
दे रही है आजतक लैला सुबूत्॥
कैसे-कैसे हैं नज़रयाती तिलिस्म,
आज लायानी है जो कल था सुबूत्॥
लोग ख़ालिक़ के भी मुनकिर हो गये,
उसके होने का न जब पाया सुबूत्॥
शायरी पैग़म्बरी का है बदल,
शेर हैं ज़रतुश्त के अच्छा सुबूत्॥
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बन्धनों में रहूँ मैं ये संभव नहीं

बन्धनों में रहूँ मैं ये संभव नहीं॥
अनवरत साथ दूँ मैं ये संभव नहीं॥
मेरी प्रतिबद्धता का ये आशय कहाँ,
झूट को सच कहूँ मैं ये संभव नहीं॥
मैं हूँ मानव,कोई तोता - मैना नहीं,
जो पढाओ पढूँ मैं ये संभव नहीं॥
पत्थरों में प्रतिष्ठित करूँ प्राण मैं,
सब के आगे झुकूँ मैं ये संभव नहीं॥
मेरी अपनी व्यथाएं भी कुछ कम नहीं,
आप ही की सुनूँ मैं ये संभव नहीं॥
मैं अदालत में जनता की जब हूं खड़ा,
रात को दिन लिखूँ मैं ये संभव नहीं॥
अपने अन्तःकरण का गला घोट कर्।
ब्र्ह्म हत्या करूं मैं ये संभव नहीं॥
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मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

जब हवाएं शिथिल पड़ गयीं

जब हवाएं शिथिल पड़ गयीं।
मान्यताएं शिथिल पड़ गयीं॥
ऐसे साहित्य कर्मी जुड़े,
संस्थाएं शिथिल पड़ गयीं॥
शून्य उत्साह जब हो गया,
भावनाएं शिथिल पड़ गयीं॥
गीत संघर्ष के सो गये,
वेदनाएं शिथिल पड़ गयीं।
शोर संसद भवन में हुआ,
शारदाएं शिथिल पड़ गयीं॥
हम दलित भी न कहला सके,
थक के हाएं शिथिल पड़ गयीं॥
सुनके मेरी ग़ज़ल कितनी ही,
ऊर्जाएं शिथिल पड़ गयीं
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कल थीं रसमय भूल गयी हैं

कल थीं रसमय भूल गयी हैं ।
कविताएं लय भूल गयी हैं॥
अहंकार-गर्भित सत्ताएं,
विजय परजय भूल गयी हैं॥
समय खिसकता सा जाता है,
कन्याएं वय भूल गयी हैं॥
लगता है अपनी ही साँसें,
अपना परिचय भूल गयी हैं॥
संघर्षों में रत पीड़ाएं,
मन का संशय भूल गयी हैं॥
हाथ की रेखाएं भी शायद,
अपना निर्णय भूल गयी हैं॥
चिन्ताएं बौलाई हुई हैं,
मंज़िल निश्चय भूल गयी हैं॥
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सोमवार, 26 अप्रैल 2010

आँखें चित्र-पटल होती हैं

आँखें चित्र-पटल होती हैं।
इसी लिए चंचल होती हैं।
जब भी चित्त व्यथित होता है,
ये भी साथ सजल होती हैं॥
मेरी, उसकी सबकी आँखें,
ठेस लगे, विह्वल होती हैं॥
मन की बातें सुन लेती हैं,
आँखें कुछ पागल होती हैं॥
हमें भनक सी लग जाती है,
जो घटनाएं कल होती हैं॥
पनघट की कविताओं वाली,
पनिहारिनें चपल होती हैं॥
पिता हिमालय कम होते हैं,
माएं गंगा जल होती हैं॥
संकल्पों की सब देहलीज़ें ,
स्थिर और अटल होती हैं॥
समय के पाँव कुचल जाते हैं,
आशाएं मख़मल होती हैं॥
कोई ग़ज़ल नहीं कहता मैं,
सब मेरा ही बदल होती हैं॥
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गीतों ने किया रात ये संवाद ग़ज़ल से

गीतों ने किया रात ये संवाद ग़ज़ल से।
हुशियार हमें रहना है इतिहास के छल से॥

विश्वास न था मन में तो क्यों आये यहाँ आप,
इक पल में हुए जाते हैं क्यों इतने विकल से॥

क्या आगे सुनाऊं मैं भला अपनी कहानी,
प्रारंभ में ही हो गये जब आप सजल से॥

मुम्ताज़ के ही रूप की आभा है जो अब भी,
आती है छलकती सी नज़र ताज महल से॥

ये सब है मेरे गाँव की मिटटी का ही जादू,
रखता है मुझे दूर जो शहरों की चुहल से॥

सच पूछो तो मिथ्या ये जगत हो नहीं सकता,
कब मुक्त हुआ है कोई संसार के छल से॥
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