सोमवार, 8 मार्च 2010

हवा का रुख़ बदल जाता है अक्सर

हवा का रुख़ बदल जाता है अक्सर।
वो पहलू से निकल जाता है अक्सर्॥
ये सीना भी कोई आतश-फ़िशाँ है,
यहाँ लावा पिघल जाता है अक्सर्॥
भड़कती है कुछ ऐसी आग दिल में,
मेरा दामन भी जल जाता है अक्सर्॥
तबाही की तरफ़ जाकर ये मौसम,
अचानक ख़ुद सँभल जाता है अक्सर्॥
किसी ख़ित्ते में हो कोई धमाका,
हमारा दिल दहल जाता है अक्सर॥
हमें होती नहीं मुत्लक़ ख़बर तक,
ज़माना चाल चल जाता है अक्सर॥
अभी से दिल को यूँ छोटा न कीजे,
बुरा वक़्त आके टल जाता है अक्सर॥
सुलूक उसका बहोत अच्छा है, लेकिन,
ज़ुबाँ ऐसी है, खल जाता है अक्सर॥
कहीं जाऊँ, उसी की रह्गुज़र पर,
क़दम क्यों आजकल जाता है अक्सर॥
बनाने के लिए तस्वीर उस की,
ख़याल उसका मचल जाता है अक्सर॥
**********
रुख=दिशा । आतश-फ़शाँ=ज्वालामुखी।ख़ित्ता=भूभाग,क्षेत्र्।मुत्लक़=तनिक भी।सुलूक=व्यवहार।

रविवार, 7 मार्च 2010

तवील होती हैं क्यों आजकल शबें बेहद

तवील होती हैं क्यों आजकल शबें बेहद।
ये कौन है जो बढ़ाता है उल्झनें बेहद॥
ज़माने को नहीं शायद अब एक पल भी क़रार,
अजीब हाल है लेता है कर्वटें बेहद॥
कहीं भी जाओ मयस्सर नहीं ज़रा भी सुकूं,
कोई भी काम करो हैं रुकावटें बेहद॥
ख़बर भी है के गढे जा रहे हैं क्या क़िस्से,
हमारे हक़ में है बेहतर न हम मिलें बेहद॥
ये चन्द-रोज़ा इनायात क्यों हैं मेरे लिए,
मैं ख़ुश हूं अपनी ग़रीबी के हाल में बेहद्॥
जिन्हें था इश्क़ वो दुनिया में अब भी ज़िन्दा हैं,
मिलेगा क्या हमें करके इबादतें बेहद्॥
**********
तवील=लम्बी ।शबें=रातें । क़रार=चैन,सुकून ।मयस्सर=उपलब्ध ।इनायात=कृपाएं ।

ज़िकरे रोज़ो-शब करता हूं

ज़िकरे रोज़ो-शब करता हूं।
उसकी बातें कब करता हूं॥

आँसू पलकों पर क्यों आये,
दिल में तलाशे-सबब करता हूं॥

सिर्फ़ लबों को चूम रहा हूं,
ऐसा कौन ग़ज़ब करता हूं॥

जब से उसको देख लिया है,
बातें कुछ बेढब करता हूं॥

रुस्वाई का ख़ौफ़ है इतना,
ज़िक्र भी ज़ेरे-लब करता हूं॥

सोच के शायद वो भी आये,
बरपा बज़्मे तरब करता हूं॥

उसकी ही बात समझते हैं सब,
बात किसी की जब कर्ता हूं॥
********

शनिवार, 6 मार्च 2010

तवील होता है जब इन्तेज़ार सोचता हूं

तवील होता है जब इन्तेज़ार सोचता हूं।
मैं उसपे करता हूं क्यों एतबार सोचता हूं॥

इनायत उसकी कोई ख़ास तो नहीं मुझ पर,
ये जान उसपे करूं क्यों निसार सोचता हूं॥

दरख़्त के वो समर हैं बलन्दियों पे बहोत,
रसाई मेरी कहाँ, बार-बार सोचता हूं॥

शिकायतें मैं कभी कोई उससे कर न सका,
वो हो न जाये कहीं शर्मसार सोचता हूं॥

किसी का दिल ही नहीं साफ़ है किसी के लिए,
भरा है ज़हनों में गर्दो-ग़ुबार सोचता हूं॥

न कोई तन्ज़ न कुछ तब्सेरा ही मैं ने किया,
फिर उसके दिल में चुभा कैसे ख़ार सोचता हूं॥

बदल के रास्ता अपना मैं मुत्मइन न हुआ,
के ये भी गुज़रा उसे नागवार सोचता हूं॥

मैं जितना चाहता हूं उसका ज़िक्र ही न करूं,
उसी के बारे में बे-अख़्तियार सोचता हूं॥
***********

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

दिल की बातें बे मानी हैं

दिल की बातें बे मानी हैं।
मैं नहीं कहता,माँ कहती हैं॥
कब से राहें देख रही हैं,
शायद आँखें थक सी गयी हैं॥
टुकड़े-टुकड़े यकजा कर लूं,
यादें आज बहोत महँगी हैं॥
कोई तो है जो घर आया है,
प्यार की खुश्बूएँ फैली हैं॥
दर्द के क़िस्से, दुख के फ़साने,
अब तो यही मेरी पूँजी हैं॥
दिल सहरा जैसा वीराँ है,
आँखें इक सूखी सी नदी हैं॥
उड़ गयी कैसे इन की लिखावट,
दिल की किताबें क्यों सादी हैं॥
लौट के अब वो नहीं आयेंगी,
वो सारी बातें माज़ी हैं॥
नासमझी में क्या कर बैठे,
हम भी शायद अहमक़ ही हैं॥
मुझ में कोई बोल रहा है,
बातें मैंने उसकी सुनी हैं॥
मैं अश'आर कहाँ कहता हूं,
ये सब ग़ज़लें इलहामी हैं॥
*********

सदाएं देता है दरिया के पार से मुझ को

सदाएं देता है दरिया के पार से मुझ को।
निकालेगा वही इस इन्तेशार से मुझ को॥

बलन्दियाँ उसे मुझ में फ़लक की आयीं नज़र,
उठा के लाया वो गर्दो-ग़ुबार से मुझ को॥

तलाश करता हूं दश्ते-जुनूँ में जिस शय को,
वो खींच लायी ख़िरद के हिसार से मुझ को॥

मैं फूल ज़ुल्फ़ों में उसकी सजाने निकला हूं,
गिला कोई भी नहीं नोके-ख़ार से मुझ को॥

हवेलियों का पता खंडहरों से मिलता है,
लगाव क्यों न हो नक़्शो-निगार से मुझ को॥

भटक रहा हूं मैं वीरानों में इधर से उधर,
बुलाता है कोई उजड़े दयार से मुझ को॥

मैं जैसा भी हूं बहरहाल मुत्मइन हूं मैं,
मुहब्बतें हैं दिले-सोगवार से मुझ को॥
************

गुरुवार, 4 मार्च 2010

ख़ेज़ाँ के ज़ुल्म से पूरा शजर बरहना था

ख़ेज़ाँ के ज़ुल्म से पूरा शजर बरहना था।
ख़मोश लब थे सभी सब का घर बरहना था॥

कोई भी अपनी रविश से न बाज़ आया कभी,
रिवायतों का भरम टूट कर बरहना था॥

ये किस को रौन्द रहे थे जफ़ा-शआर यहाँ,
ये किस का जिस्म यहाँ ख़ाक पर बरहना था॥

अगरचे शह्र में शमशीरे-बेनियाम था वो,
सभी को इल्म था वो किस क़दर बरहना था॥

वो क़ाफ़िला था असीराने-ज़ुल्म का कैसा,
के ख़ाक जिस्म से लिप्टी थी, सर बरहना था॥
**************

बुधवार, 3 मार्च 2010

बहोत भीनी हो जो ख़ुश्बू किसे अच्छी नहीं लगती।

बहोत भीनी हो जो ख़ुश्बू किसे अच्छी नहीं लगती।
हमारे देश में उर्दू किसे अच्छी नहीं लगती॥

हवाएं धीमे-धीमे चल रही हों हलकी ख़ुनकी हो,
फ़िज़ा ऐसी बता दे तू किसे अच्छी नहीं लगती।

वो महफ़िल जिसमें तेरा ज़िक्र हो हर एक के लब पर,
तजल्ली हो तेरी हर सू किसे अच्छी नहीं लगती॥

ग़ज़ालाँ-चश्म होने का शरफ़ मुश्किल से मिलता है,
निगाहे-वहशते-आहू किसे अच्छी नहीं लगती॥

मुहब्बत तोड़कर रस्मे-जहाँ की सारी दीवारें,
अगर हो जाये बे-क़ाबू किसे अच्छी नहीं लगती॥
**************

मंगलवार, 2 मार्च 2010

हाँ तबीअत आजकल मेरी परीशाँ है बहोत्

हाँ तबीअत आजकल मेरी परीशाँ है बहोत्।
ठहरी-ठहरी ज़िन्दगी लगती परीशाँ है बहोत्॥

आसमानोँ पर कहीं सुनता हूं अनजाना सा शोर,
चाँद तारों की कोई बेटी परीशाँ है बहोत्॥

ख़फ़गियाँ आपस की ग़ैरों पर न खुल जायें कहीं,
दिल को है अन्देशए-सुबकी परीशाँ है बहोत्॥

मेरी तनहाई लिपटकर मुझसे रोई बार-बार,
देखकर मेरी बलानोशी परीशाँ है बहोत्॥

नफ़्स से कुछ कट गया है इसका रिश्ता इन दिनों,
जिसके बाइस पैकरे-ख़ाकी परीशाँ है बहोत्॥

मेरी उल्झन देखकर हैरत में हैं अहले-नज़र,
ज़िक्र है अहबाब में, तू भी परीशाँ है बहोत्॥

ख़ुम, सुराही, जाम, सब पाये गये ख़ामोश लब,
रिन्द रंज आलूद हैं साक़ी परीशाँ है बहोत्॥
**************

अहसास के तमग़े लिए

अहसास के तमग़े लिए।
जीता हूं मैं किस के लिए॥
अब याद कुछ आता नहीं,
कब किसने क्या वादे लिए॥
ख़्वाबों को था जब टूटना,
ग़फ़लत में क्यों फेरे लिए॥
मुर्दों की बेहिस भीड़ में,
जीते रहे धड़के लिए॥
क्या दूं हिसाबे-ज़िन्दगी,
अवराक़ हूं सादे लिए॥
भटकीं मेरी तनहाइयाँ,
दामन में कुछ रिश्ते लिए॥
उसके लिए हैं राहतें,
बेचैनियाँ मेरे लिए॥
आरिज़ ग़मों के खिल उठे,
ज़ख़्मों के जब बोसे लिए॥
दिल में दुआए-ख़ैर है,
सीने में हूं नग़मे लिए॥
******