गुरुवार, 19 नवंबर 2009

भेद कर मैं आज षटचक्रों को, बाहर आ गया ॥

भेद कर मैं आज षटचक्रों को, बाहर आ गया ॥
चान्द सूरज मिल गये, जीने का तेवर आ गया ॥

मैं क्षितिज के पार की पढ़ कर लिखावट था चकित,
किन्तु अब मेरी समझ में अक्षर अक्षर आ गया॥

रख दिया मैं ने जब उसके सामने जीवित यथार्थ,
देखने भी ठीक से पाया न था, ज्वर आ गया॥

बन्द थीं राधा की आखें, मुस्कुराते थे अधर,
स्वप्न में वंशी बजाता जब वो गिरिधर आ गया ॥

कर रहा था मैं भी जल क्रीड़ाएं मन की झील में,
क्रूर था ऐसा समय बन कर निशाचर आ गया ॥

कल मिले थे पर्वतों की ओट में हम, सोच कर,
मन ने लीं अँगड़ाइयाँ, आँखों में निर्झर आ गया ॥
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इक समन्दर बेकराँ रहता है मेरी ज़ात में ।

इक समन्दर बेकराँ रहता है मेरी ज़ात में ।
हर तरफ़, हर जा, वही छाया है मेरी ज़ात में॥

बस उसी क एक चेहरा है फ़ना जिस को नहीं,
और ताबिन्दा वही चेहरा है मेरी ज़ात में ॥

मैं नहीं जाता कहीं शेरो-सुख़न की बज़्म में,
रात दिन ये बज़्म ख़ुद बरपा है मेरी ज़ात में॥

हुस्ने बर हक़ का क़सीदा है अबूतालिब की नात,
इहतरामे-नाते-पाकीज़ा है मेरी ज़ात में ॥

उस के औसाफ़े-हमीदा का है मज़हर कायनात,
और ये मज़हर दरख़्शन्दा है मेरी ज़ात में॥
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बुधवार, 18 नवंबर 2009

हैरत है मेरा गाँव तरक़्क़ी न कर सका

हैरत है मेरा गाँव तरक़्क़ी न कर सका ।
मजबूर था के फ़िक्र भी अपनी न कर सका ॥

दुख-दर्द दूसरों के फ़क़त बाँटता रहा ,
अपने लिए हयात में कुछ भी न कर सका॥

मेरे खिलाफ़ साज़िशें करते रहे सभी,
शायद किसी की भी मैं तशफ़्फ़ी न कर सका॥

शेर-ओ-सुख़न की बज़्म से मैं दूर ही रहा,
ख़ुद पर तिलिस्मे-ज़ौक़ को हावी न कर सका॥

ज़ेबाइशे-सियासते-दुनिया है कजरवी ,
इसके लिए कोई मुझे राज़ी न कर सका ॥
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मंगलवार, 17 नवंबर 2009

खेतों को सींचता रहा मैं रात रात भर

खेतों को सींचता रहा मैं रात रात भर ।
हासिल हुवा मगर न मुझे कुछ हयात भर्॥

गो तू बहोत क़रीब न आया मेरे कभी ,
था बाइसे-सुकून तेरा इल्तेफ़ात भर ॥

तेरी ही धड़कनों से है ज़र्रात में हयात,
तनवीर है तेरी ही फ़क़त, कायनात भर्॥

पहचान कब हुई मुझे तेरे वुजूद की ,
थी सामने हमेशा मेरी अपनी ज़ात भर ॥

क़ादिर है तू के तुझ को हैं सारे ही अख्तियार,
ज़िन्दा रहूं मैं, मुझ में कुछ ऐसे सिफ़ात भर ॥
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सोमवार, 16 नवंबर 2009

जब उस की जफ़ाओं में कुछ आ जाती है नर्मी

जब उस की जफ़ाओं में कुछ आ जाती है नर्मी ।
दरिया की हवाओं में कुछ आ जाती है नर्मी ॥

हरियाली कहीं भी हो महज़ उस के असर से ,
सूरज की शुआओं में कुछ आ जाती है नर्मी ॥

साहिल पे अगर साथ हो तस्वीर भी उसकी ,
मौजों की अदाओं में कुछ आ जाती है नर्मी ॥

गहराइयों से दिल के निकलती हैं कभी जब,
इन्साँ की दुआओं में कुछ आ जाती है नर्मी ॥

ईमान हो पुख़्ता तो अक़ीदा है ये मेरा,
पत्थर के ख़ुदाओं में कुछ आ जाती है नर्मी॥
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रविवार, 15 नवंबर 2009

ये सीना हो गया पत्थर सा सख़्त-जाँ कैसे ।

ये सीना हो गया पत्थर सा सख़्त-जाँ कैसे ।
उतार पायेगा ख़ंजर कोई यहाँ कैसे ॥
फ़लक पे गर्द उड़ाता है बादलों का हुजूम ,
ज़मीं पे चान्द करे नूर-पाशियाँ कैसे ॥
गुलों ने अपनी हिफ़ाज़त में कुछ किया ही नहीं,
संभाल पायेंगे ज़ुल्मत की आँधियाँ कैसे ॥
अभी तो सुबह का मंज़र है मेरी आँखोँ में,
अभी से ख़्वाबों को देखूं मैं खूं-चकाँ कैसे ॥
न कोई घर ही बचा है, न है ठिकाना कोई,
ये लोग शह्र से जायेंगे अब कहाँ कैसे ॥
मैं क़ैद ख़ानों में हर सर्दो-गर्म देख चुका,
मुझे सतायेंगी दुनिया की सख़्तियाँ कैसे ॥
मैं खोया-खोया सा हूं मीर के तग़ज़्ज़ुल में,
बनूं मैं हज़रते ग़ालिब का मदह-ख़्वाँ कैसे ॥
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मंगलवार, 10 नवंबर 2009

पहलू मेँ प्लस्टिक की थी नल्की लगी हुई ।

पहलू मेँ प्लस्टिक की थी नल्की लगी हुई ।
ख़ूँ रिस रहा था यूँ के बहोत बेकली हुई॥

ख़ाली थे घर के ताक़्चे, कुछ भी न था वहाँ,
मजबूरियों की फ़स्ल खड़ी थी पकी हुई॥

दालान से गुज़रती थी कल तक जो दोपहर,
अब उसके पास धूप नहीं थी बची हुई ॥

क्या रोशनाई वक़्त के सहरा से माँगता ,
अश्कों की थी सियाही वहाँ भी भरी हुई॥

यादों के ख़ैमे साथ लिये घूमता रहा,
चूल्हे पे दुख के, देग़ थी दिल की चढ़ी हुई॥

देखूँगा क्य मैं खोल के माज़ी की खिड़कियाँ,
एक फाँस सी है रूह के अन्दर चुभी हुई ॥

पेशानियाँ शऊर की हैं आज मुज़महिल,
इदराक की है नब्ज़ बहोत ही थकी हुई॥
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दिल के तवे पे जलते हैं लफ़ज़ों के कारवाँ।

दिल के तवे पे जलते हैं लफ़ज़ों के कारवाँ।
हो जायें राख राख न ख़्वाबों के कारवाँ॥

टुकड़ों में बँट गया है मेरा इस तरह वुजूद ,
हँसते हैं मेरी ज़ात पे अश्कों के कारवाँ ॥

मैं कल ज़मीन ओढ़ के सो जाऊँगा यहाँ ,
आयेंगे मेरे पास फ़रिश्तों के कारवाँ ॥

इक स्म्त हम को एटमी ताक़त का है ग़ुरूर,
इक स्म्त ख़ूँ-चकाँ हैं धमाकों के कारवाँ ॥

तरीख़ के हैं जिस्म पे नाख़ून के निशाँ,
बोसीदा हो चुके हैं किताबों के कारवाँ ॥

बीनाइयों की लाशें हुईं ख़ाक के सुपुर्द,
फिरते हैं अन्धी राह पे नस्लों के कारवाँ ॥

वो देखो उलटे लटके हैं सूली पे वक़्त की ,
कितनी हवास-बाख़्ता सदियोँ के कारवाँ ॥
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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।

न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।
के अब तो भूल चुकी है मुझे ज़ुबाँ अपनी॥

हुई थी मेरी कभी हुस्ने-लामकाँ को तलब,
जहाँ दिखायी थीं उसने निशानियाँ अपनी॥

निज़ामे-आतिशे इरफ़ाँ के गुलबदन अफ़्लाक,
सजा रहे हैं जबीनों पे कहकशाँ अपनी ॥

मेरा ही सर था जो काटा गया दरख्त के साथ,
जहाँ को रास नहीं आयीं खूबियाँ अपनी।

हवा में उड़ती फिरी ख़ाक मेरी चार तरफ़ ,
ज़माना ले गया ख़ुशबू कहाँ कहाँ अपनी॥
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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

मैं यूसुफ़ के लिए जीता रहा याक़ूब की सूरत ।

मैं यूसुफ़ के लिए जीता रहा याक़ूब की सूरत ।
के हर लह्ज़ा मेरी आँखों में थी मह्बूब की सूरत ॥

हज़ारों बार सर कटता रहा पर दिल नहीं टूटा,
ज़मीं पर हर जगह उगता रहा मैं दूब की सूरत ॥

मिला इनआम दुनिया से यही बस हक़-पसन्दों को,
निज़ामे-अह्ले-दुनिया में रहे मातूब की सूरत्॥

जिन्हें कुछ मस्लेहत आती थी वो कहलाए दानिशवर,
जो दानिश्मन्द थे फिरते रहे मजज़ूब की सूरत ॥

निगाहे दुशमनाँ में सूरते-क़तिल नज़र आये,
मगर अहबाब की महफ़िल में थे यासूब की सूरत्॥

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