बुधवार, 23 सितंबर 2009

परिन्दे पहले के जैसी उड़ान भरते नहीं ।

परिन्दे पहले के जैसी उड़ान भरते नहीं ।
के उनके उड़ने से अब आसमान भरते नहीं ॥

वो ख़्वाब क्या थे जिन्हें कोई नाम दे न सका,
वो ज़्ख़्म कैसे थे जिनके निशान भरते नहीं ॥

इबारतों का मज़ा सादगी में होता है,
दक़ीक़ लफ़्ज़ों को अहले-ज़बान भरते नहीं ॥

शऊर करती है बेदार हक़ शनास नज़र,
वसीअ क़ल्ब में वह्मो-गुमान भरते नहीं ॥

क़याम करते हैं सब होटलों की दुनिय में,
अज़ीज़ो-अक़रुबा से अब मकान भरते नहीं ॥

कोई भी शोबा तो ऐसा नज़र नहीं आता,
के जिस में लोग कहें बेइमान भरते नहीं ॥

हुआ है क्या तुम्हें ! क्यों इस क़दर तअम्मुल है,
के जाम मेरा, मेरे मेह्र्बान भरते नहीं ॥

वो अह्ले-इल्म हमारे लिए हैं लायानी,
समन्दरों क जो कूज़े में ग्यान भरते नहीं ॥
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मंगलवार, 22 सितंबर 2009

मेरे भी जिस्म पर कल एक सर था ।

मेरे भी जिस्म पर कल एक सर था ।
मैँ उस से इस क़दर क्यों बेख़बर था ॥

मेरी सांसों में थी सहरा-नवरदी,
मेरी आँखों में दरया का सफ़र था ॥

उजालों का वो कैसा कारवाँ था,
क़याम उस का बहोत ही मुख़्तसर था॥

यहाँ आँसू की क़ीमत कुछ नहीं थी,
वहाँ आँसू का हर क़तरा गुहर था ॥

गुलों ने क्यों मेरा सदक़ा उतारा,
चमन में क्यों मैं इतना मोतबर था ॥

वहाँ थे रेगज़ारों के समन्दर,
मैं उन के दरमियाँ मिस्ले शजर था ॥

जहाँ अब राख का इक ढेर सा है,
वहाँ पहले मेरा भी एक घर था ॥
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शनिवार, 29 अगस्त 2009

हमें है जाना जहाँ तक ये रास्ते जायें

हमें है जाना जहाँ तक ये रास्ते जायें।

इरादे बीच में कैसे जवाब दे जायें।।

घ्ररौन्दे हम तो बनाते रहेंगे साहिल पर ,

बला से मौजें इन्हें अपने साथ ले जायें ॥

उन्हें है आज भी माज़ी की सल्तनत का गुरूर,

किसी तरह तो देमाग़ों से ये नशे जायें ॥

ज़माल उसका वहाँ और भी नुमायाँ है,

बुराई क्या है अगर लोग बुतकदे जायें॥

न ख़ैरियत, न सलामो-दुआ, न ख़न्दालबी,

मिलें जो राह में बिल्कुल कटे-कटे जायें॥

कमाले-शेरो-सुख़न लज़्ज़ते-जमाल में है,

न हो जो हुस्न तो जीने के सब मज़े जायें॥

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बुधवार, 26 अगस्त 2009

ज़मीं के सीने का हर ज़ख्मे-तर उभारना है

ज़मीं के सीने का हर ज़ख्मे-तर उभारना है ।
शजर की तर्ह जहां भी हैं सर उभारना है॥

जो पत्थरों का जिगर चीर कर निकलता है,
उस आबशार का दिल में हुनर उभारना है ॥

सुलूक शम्सो-क़मर का हरेक से यकसां है ,
मआशरे को इसी राह पर उभारना है ॥

समन्दरों में हैं पोशीदा कितने ही गौहर,
लगा के ग़ोता वो सारे गुहर उभारना है॥

कलीमी बख़्श के तोड़े ग़ुरूरे-फ़िरऔनी,
इसी ज़मीं पे इक ऐसा शजर उभारना है ॥

सियाह दौलतें जितनी हैं ग़ैर मुल्कों में,
किसी तरह भी वो सब मालो-ज़र उभारना है ॥

बचा के रखना है इस राख की हरारत को,
के इस के बत्न से ताज़ा शरर उभारना है॥
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ज़माने के लिए मैं ज़ीनते-निगाह भी था ।

ज़माने के लिए मैं ज़ीनते-निगाह भी था ।
ये बात और है सर-ता-क़दम तबाह भी था॥

ख़मोशियों से मैं बढ़ता रहा सुए-मंज़िल ,
सियासतों का जहां जब के सद्दे-राह भी था॥

बयान कर न सका मैं सितम अज़ीज़ों के,
के ऐसा करने में अन्देशए-गुनाह भी था ॥

जो ख़ुद को करता था मेरे फ़िदाइयों में शुमार,
मेरे ख़िलाफ़ वही शख़्स कल गवाह भी था ॥

ख़ुलूस उस का बज़ाहिर बहोत ही दिलकश था,
बरत के देखा तो क़ल्बो-जिगर सियाह भि था॥

गुज़र रही थी फ़क़ीरी में ज़िन्दगी उस की,
ख़बर किसे थी सुख़न का वो बादशाह भी था ॥

उसी की सिम्त किया क़िब्ला रास्त खुसरो ने,
जो कज-कुलाह भी था और दीं-पनाह भी था॥*
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* अमीर खुसरो के गुरु हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने एक दिन कुछ हिन्दुओं को यमुना में नहाते देख कर सहज भाव से कहा - हर क़ौमे-रास्त राहे, दीने व क़िब्लागाहे। अर्थात प्रत्येक क़ौम का अपना सन्मार्ग होता है, धर्म होता है और पूज्य स्थल भी। हज़रत अमीर ख़ुसरो पास में ही खड़े थे, उन्हों ने अप्ने गुरु की ओर सकेत कर के तत्काल इस शेर को दूसरा चरण कह कर पूरा कर दिया - मन क़िब्ला रास्त करदम बर सिम्ते-कज-कुलाहे अर्थात मै अपना पूज्य स्थल तिर्छी टोपी वाले की ओर सीधा करता हूं।मुसलमानों में क़िब्ला [काबे] की ओर मुंह कर के नमाज़ पढ़ी जाती है और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया तिरछी टोपी [कजकुलाह] लगाते थे।इस शेर में यही सकेत है।

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

अना की जितनी भी दीवारें थीं वो तोड़ गया

अना की जितनी भी दीवारें थीं वो तोड़ गया ।
मुहब्बतों से हवाओं के रुख़ को मोड़ गया ॥

वो हमसफ़र था मेरा उसपे था भरोसा मुझे,
सफ़र के बीच वो क्यों साथ मेरा छोड़ गया ॥

करिश्मा ये है के हुस्ने सुलूक से अपने,
कलाई ज़ुल्मो तशद्दुद की वो मरोड़ गया ॥

उसी के ज़िक्र से मिलता है हौसला मुझ को,
अजीब तर्ह का रिश्ता वो मुझ से जोड़ गया ॥

हक़ीक़तों की कुदालें थीं उस के हाथों में,
तवह्हुमात के भांडे सभी वो फोड़ गया ॥

मैं ग़फ़्लतों के समन्दर में डूब ही जाता,
भला हो उसका के आकर मुझे झिंजोड़ गया ॥

घड़ा ये मिटटी का नौए बशर की दौलत है,
ये टूट जाये तो समझो कई करोड़ गया ॥
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गुरुवार, 13 अगस्त 2009

जो अब्र बाइसे तस्कीने ख़ासो आम हुआ

जो अब्र बाइसे तस्कीने ख़ासो आम हुआ ।
बराहे रास्त समन्दर से हम कलाम हुआ ॥

हमारी शायरी जिस दौर में थी ज़ेरे बहस ,
हमारे साथ ही वो दौर भी तमाम हुआ ॥

हरेक ज़बान का किरदार है जुदागाना ,
न जिस में खोट हो कोई उसे दवाम हुआ ॥

वो ख़ुशअदा भी ख़ुशअन्दाज़ो ख़ुशजमाल भी है,
जभी तो वादिए दिल में वो ख़ुश्मुक़ाम हुआ ॥

किसान हो गये आमादा ख़ुद्कुशी के लिए,
वो ख़ुद्कफ़ील बनें कब ये इह्तमाम हुआ ॥

सियासतों ने शिकस्ता किया सफ़ीनए दिल,
मिज़ाज पानियों का बहरे इन्तेक़ाम हुआ ॥

हमारा मुल्क है आज़ाद सिर्फ़ काग़ज़ पर,
अमल में फिर से ये हालात का ग़ुलाम हुआ ॥
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असासा ख़्वाबों का मह्फ़ूज़ कर नहीं पाया ।

असासा ख़्वाबों का मह्फ़ूज़ कर नहीं पाया ।
के दिल ने अपना कोई हमसफ़र नहीं पाया॥

हमारी आँखों में ऐसे चेराग़ रौशन थे,
अंधेरा राह में आकर ठहर नहीं पाया ॥

सुकून के वो हसीं लम्हे फिर नहीं लौटे,
कहाँ कहाँ उन्हें ढ़ूंढ़ा मगर नहीं पाया ॥

न जाने कब से है आमादए-सफ़र दुनिया,
कोई भी राह से तेरी गुज़र नहीं पाया ॥

अजब सेहर था तेरी ख़ुश-जमाल आँखों का,
हुआ ज़माना वो जादू उतर नहीं पाया ॥

क़दम-क़दम पे हमें राहज़न ही मिलते रहे,
किसी को हमने कभी राहबर नहीं पाया॥
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शनिवार, 8 अगस्त 2009

ज़िन्दगी ने इस तरह छेड़ा है साज़े-रोज़ो-शब ।

ज़िन्दगी ने इस तरह छेड़ा है साज़े-रोज़ो-शब ।
कारे-दुनिया ने मिटया इम्तियाज़े-रोज़ो-शब ।।

हो गया अब गाँव के तालाब का पानी भी ख़ुश्क,
झुन्ड चिड़ियों का बताये क्या फ़राज़े-रोज़ो-शब ।।

कश्तियाँ ग़र्क़ाब हो जाने का सदमा कम नहीं ,
हो गया ग़र्क़ाब क्यों सोज़ो-गुदाज़े-रोज़ो-शब ।।

रात दिन यकसाँ गुज़रती हो जब अपनी ज़िन्दगी,
कोई समझाये मुझे क्या है जवाज़े-रोज़ो-शब ।।

बेसुरे नग़्मों को सुनते-सुनते जी उकता गया,
काश कोई तोड़ देता बढ़ के साज़े-रोज़ो-शब ।।
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रविवार, 2 अगस्त 2009

तेरे जलाल का परतौ, तेरे जमाल का रंग

तेरे जलाल का परतौ, तेरे जमाल का रंग ।
बशर में है तेरे असरारे-ला-ज़वाल का रग्॥

कहाँ की सोज़िशे-दिल कैसा इज़्तेराबे-जिगर,
जुदाई में भी हो मह्सूस जब विसाल का रंग ॥

मैं हँसते-बोलते दुनिया से हो गया रुख़्सत,
जहाँ न देख सका मेरे इन्तेक़ाल का रंग ॥

हुए न पस्त किसी लम्हा हौसले मेरे,
के उनमें नक़्श था रफ़्तारे-माहो-साल का रंग॥

अजब नहीं मैं कोई ऐसी बात कह जाऊँ,
के सुन के बज़्म से उड़ जाये क़ीलो-क़ाल क रंग॥

मैं तेरे हुस्न का मद्दाह तो हूं पहले से,
तेरे निखार में है आज कुछ कमाल का रंग्॥

सभी हैं जोश में, होशो-हवास कुछ भी नहीं,
ज़माना ले के है निकला नये उबाल का रंग्॥

तेरे वुजूद से है इहतमामे-शेरो-सुख़न,
के हर ख़याल में है तेरे ख़द्दो-ख़ाल का रंग॥
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